आज के मानव समाज जिन विसगतियाँ और विडंबनाओं का सामना
कर रहा है उन से निजात पाने के लिए तुलसी का काव्य रामचरित मानस विशेष रुप से
प्रासंगिक है। समाज अनेक वर्गो और वर्णो में विभाजित हो चुका है। मानव-मानव के बीच
विषमता शिखर पर पहुँच गयी है। एक मनुष्य दूसरों के प्रति घृणा से परिचालित हो रहा
है। समूचे भारत वर्ष में इन दिनों भावनात्मक एकता की कमी महसूस की रही है जिसके
कारण मानस की प्रासंगिता और बढ़ गयी है। इस महान कवि ने राम राज की कल्पना द्वारा़
’ना ही दरिद्र कोई दुखी ना दीना’ (उत्तरकाण्ड) का आदर्श प्रस्तुत किया गया। सभी
प्रकार के दुखों से मुक्ति का तुलसी के रामराज्य में गंभीर रचनात्मक आश्वासन है। आज
समूचे विश्व में इस महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मानव संघर्ष तीव्र से तीव्रतर
हो चला है।
तुलसी ने लिखा है- ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सोई
नृप अवसि नरक अधिकारी।‘। (अयोध्याकांड) अर्थात जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी
है, अभावग्रस्त जीवन व्यतीत कर रही है, वह राजा निश्चय ही नरक का अधिकारी है। तुलसी
की यह पंक्तियाँ आज के शासक वर्ग को पूरे मनोयोग से पढ़ने और समझने की आवश्यकता है।
यह सही है कि तुलसी दास ने जिस समय रामचरित मानस की रचना की उस समय भारत की दशा
अत्यंत दयनीय थी, विदेशी शासकों द्वारा निर्दोष जनता पर अत्याचार किये जा रहे थे और
भारत की भूमि आक्रमणकारियों के दमन से त्रस्त थी। तुलसी ने इस विषम परिस्थिति में
रामचरित मानस लिखकर इस प्रकार ज्योति फैलाई कि न केवल अपने समय में वह भारतीय
संस्कृति की संरक्षक बनी बल्कि बाद के सालों में भी वह उहमारी संस्कृति की
विजयपताका बनकर देश विदेश में फैली। साहित्य को राजनीति के आगे जलनेवाली मशाल कहा
गया है। तुलसी की रामकथा ने इसे सच्चाई के रुप में चरितार्थ किया। आज का भारत वर्ष
यद्यपि सांस्कृतिक दृष्टि से अपना प्राचीन गौरव गवाँ चुका है। तथापि जिन अंशों में
यह आज भी अपनी जातीय तेज के साथ अग्रसर और
सक्रिय है उनका सबसे बड़ा श्रेय तुलसी के काव्य को ही देना चाहिए।
जो लोग तुलसी को शूद्रों और स्त्रियों के प्रति निष्ठुर और संवेदनशील मानते है, वे
वस्तुतः एक बडे भारी विभ्रम के शिकार हैं। तुलसीदास जी ने भारतीय नारी को उसकी
समूची गरिमा और एर्श्वय के साथ सीता अनुसूइया जैसी नारियों में प्रतिष्ठित किया है।
वे लिखते हैं-
‘कत विधि सृजि नारी जग माही। पराधीन सपनेहुँ सुख नाही ‘ ।।
अर्थात ना जाने किस विघाता ने नारी का सृजन किया है जो पराधीन है और पराधीन होने के
कारण सपने में भी सुख नहीं मिलता। नारी के प्रति तुलसी की इस चिन्ता से ये समझने
में किसी प्रकार का विलम्ब नहीं होना चाहिए कि यह
कवि नारियों के प्रति कितना संवेदनशील रहा है।
यह अकारण नहीं है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गोस्वामी तुलसीदास को गौतम
बुद्ध के बाद भारत का सबसे बड़ा लोकनायक कहा था। लोकनायक वह होता है जो समन्वय कर
सके। हमारा समाज अनेक वर्णो और वर्गो में बटा हुआ एक विखंडित समाज बन गया है। इसमे
ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, शासक-शासित का भेद बढ़ता ही जा रहा है। अनेकता की प्रवृतियाँ
स्वाभाविक हैं। किन्तु अनेकता में एकता ही किसी सबल और सक्रिय जाति और देश की पहचान
होती है। आज के विषम परिवेश में तुलसी कृत रामचरित मानस के अनुशीलन से अनेकता में
एकता के तत्वों को पहचाना जा सकता है। और
विखंडित समाज को अखंड भारत के आदर्श से जोड़ा जा सकता है।
तुलसी ने जिस राम का आदर्श सामने रखा है, वह विशिष्ट है। शासन सूत्र, सम्बन्धों से
घिरे हुए क्षुद्र मनुष्य के हाथों में पड़ कर समाज को पतनशीलता की ओर ले जाता है।
राम सब प्रकार की क्षुद्रताओं से मुक्त स्वार्थ संबधों से उपर उठे हुए आदर्श का नाम
है। उनके बारे में तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में लिखा है-
’ऐसों को उदार जग माही बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं ‘।।
तुलसी के राम एक ऐसे राजा का आदर्श प्रस्तुत
करते हैं जो परम उदार हैं, परदुःखकातर हैं। प्रजा वत्सल हैं, बिना कुछ लिए ही दीनों
के प्रति सहानुभूति दिखाते हैं, उनका उद्धार करते है। शासक के रुप में ऐसे राजा राम
की अनिवार्यता हर युग को रहेगी। सनातन काल तक मानव समाज राम जैसे शासक की प्रतीक्षा
करता रहेगा। तुलसी काव्य की प्रासंगिकता आज के मानव समाज में इस दृष्टि से भी है कि
वह धार्मिकता के सच्चे स्वरुप को उजागर करता है, विशेषतः हिन्दु समाज जो अनेक
कुरीतियों को प्राश्रय दे रहा है। तुलसी कृत रामचरित मानस में वर्णित मानवीय
संबंधों से परिचित होकर संभव है कुछ आत्म परिष्कार कर सकें। तुलसीदास की ही यह
पंक्ति है -
‘कन्द मूल फल सुरस अति, दिए राम कहुँ आनि । प्रेम सहित प्रभु खाए, बारंबार बखानि‘।।
(अरण्यकाण्ड) जहाँ श्रीरामचन्द्र की उदात्तता प्रकट होती है।
राम की यही उदात्तता यह हमें और हमारे समाज में फैले
उँच-नीच, जाति-पाति के भेद को मिटाने के लिए घूँटी का काम करेगा। अति संक्षेप में
हम कह सकते हैं कि आज के मानव समाज में तुलसी का काव्य अधिकांश रुप में प्रासंगिक
है। सामाजिक न्याय, नारी की प्रतिष्ठा, समाज को मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न अधिक
से अधिक रचनात्मक हो सके एवं शान्ति व स्नेह के साथ हमारा समाज प्रगति के पथ पर
निर्भय हो कर आगे बढ़े इसके लिए तुलसी कृत रामचरित मानस का अध्ययन अनिवार्य ही नहीं
अपरिहार्य है।
१९ मार्च २०१२।
१ अप्रैल २०२० |