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पिता के साये
में जीवन
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ब्रज श्रीवास्तव
'सीताराम तो कहो रे ..रे मनवा ‘...होश सँभालने के बाद की बात
है... गाँव में अपने पड़ोस वाले घर में उस रात गम्मत हो रही
थी, मैं अपने कुछ चपल बाल मित्रों के साथ वहाँ पहुँचा तो देखा
कि मेरे पिताजी हारमोनियम बजाते हुए, उक्त पंक्ति को गा रहे
थे, सभी उनके अलाप का इंतजार कर रहे थे, और जब उन्होंने ऊँचे
सुर में आलाप लिया तो मौजूद रसिक गण लग वाह वाह करने।
गाँव मेरे लिये हमेशा एक रुमान रहा है। यह एक ऐसा ठाँव है जहाँ
बुंदेलखंड और मालवा के छोर मिलते हैं, वहाँ की बोली सुनकर कोई
भाषा का जानकार भी उलझ सकता है कि इस बोली को क्या नाम दिया
जाये, जिसमें बुन्देली, मालवी में थोड़ी सी मुरैन्वी भी घुली
हो, पिताजी अलबत्ता खड़ी बोली भी बोल सकते थे। हमारा कच्चा घर
था लेकिन दुमंजिला अटारी वाला घर। बचपन में जब सीढ़ी चढ़ते तो
वहीं से आवाज़ देते कि हम आ गए खेलकूद कर, ताकि दादी या माँ
हमें पानी के छीटों से पवित्र कर दें जैसे गैर जाति के बच्चों
के साथ खेलने से हम सच में अपवित्र हो गए हों। पिताजी की उस
वक्त की सूरतो शकल याद करूँ तो याद आता है कि वो एक सुंदर युवक
थे, और उनकी आँखों में आकांक्षाएँ और जिज्ञासाएँ चमकती थीं,
गोल चेहरा, नुकीली नाक, चौड़ा माथा और फुग्गा रचने योग्य काले
चमकीले बाल, गाँव में सर्वाधिक शिक्षित वो ही थे...
गाँव की मुख्य सीमा तो एक नदी से खिंची है, जो बड़ा आश्रय थी
उन दिनों। किसी भी वक्त जाने पर वहाँ दस बीस लोग नहाते- धोते
मिल ही जाते। कैसी लहराती हुई बहती थी वो नदिया, जो आगे जाकर
बीना नदी में समा जाती। उस नदी में ही पिता के हाथों के सहारे
ने मुझे तैरना सिखाया। जाने कब वो दिन आ गये, जब मैं उनकी
अंगुली छोड़ खुद ही उसकी गोद में खेलने के लिये जाने लग गया
था। वो पगडंडियाँ, और चारों ओर खड़े महुआ, पीपल, बरगद, आम,
खजूर, कबीट के पेड़ जैसे संकल्प लिये थे छाया देने को। चना,
गेहूँ, मसूर के लिये उपयुक्त काली मिट्टी इस आंचल की पहचान थी।
अपनेपन से बोलते, बदन पर आधी धोती लपेटे, वो मजदूरनुमा लोग ही
थे जो गाँव को सच्चे मायनों में गाँव बनाये रखते थे। बरसात में
खपरों को वाद्ययंत्र मानकर जब पानी की बूँदें अपना पतन राग
छेड़तीं तो हम बच्चो को बहुत मजा आता। बाहर चबूतरों पर चौपड़
का टूर्नामेंट चलता रहता, तो कभी आल्हा का समवेत स्वर में
गायन। चिमनी और लालटेन की दीपशिखा इतने विशाल अंधियारे से
भिड़ंत कर लेती। दूसरी ऋतुओं में भी अपनी तरह के कुछ ना कुछ
कौतुक होते ही रहते थे।
पिताजी भी अक्सर चबूतरों पर अपना कुलीन बोध छोड़कर बैठ जाते...
अपने निरक्षर सखाओं के साथ वह ताश खेलते, गपशप करते, लोकगीत
गाते, तफरीह को जाते और हाट-बाजार को भी जाते। हर गाँव में एक
मन्दिर होता है सो वहाँ भी था। जहाँ कीर्तन होता, पिताजी उसमें
शामिल न होते, उन्हें ऐसा शगल उबाऊ लगता था। हाँ हम बच्चे जरूर
प्रसाद पाने और मौज मस्ती करने के लिये पिताजी की नजरों से
बचकर जाया करते...मुझे तो इसके लिये पिताजी से कई बार फटकार भी
पड़ी थी। पिताजी वैसे वाले भक्त नहीं थे। जब और लोग भजन कीर्तन
करते, पिताजी चिमनी के मद्धिम प्रकाश में पढऩे के लिये बैठे
होते। वह उस दुनिया में रहते हुए साहित्य से, न जाने कैसे जुड़
गए थे कि धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, मायापुरी आदि के अंक
नियमित रूप से डाकिया दे जाया करता था। शरतचंद्र के उपन्यासों
के अलावा उनकी अलमारी में रानू, वेदप्रकाश शर्मा, जैसे लेखकों
की किताबें भी हुआ करती थीं। इतनी अभिरुचियों के साथ ही कदाचित
वो इतनी अच्छी जिन्दगी जी पाते थे। वैसे बढिय़ा जीवन कहाँ था
उनका? दादाजी के बड़े पुत्र होने के कारण जहाँ पारिवारिक
जिम्मेदारियों के लिये एक मर्यादित और अनुशासित जीवन जीने की
अनिवार्यता थी, वहीं हम छह भाई बहिनों के पालन पोषण की
जिम्मेदारी भी उन्हें चुनौती देने के लिये काफी थी।
उनका नाम घनश्याम मुरारी श्रीवास्तव था, बाद में उन्होंने
उपनाम के स्थान पर लेखकीय उपनाम 'पुष्प' लिखना शुरू कर दिया
था। दादी कहतीं थी कि वे रामनवमी को जन्मे थे, १९४२ में। शायद
इसी वजह से उनका राम के मिथकीय चरित्र से बड़ा लगाव था और वह
रामचरित मानस का खूब पाठ करते थे। पाठ भी केवल पाठ ना होता था।
अर्थ खुद ही समझना और उसमें छिपी कविता का रस लेना उन्हें
दिलचस्प लगता था, तुलसी जयंती के पहले ही वह मुझसे
पूछते...स्कूल में तुम नहीं भाग लोगे तुलसी जयंती पर? और वह
खुद लिखकर देते एक तहरीर। अक्सर मैं ही प्रथम पुरस्कार पाता।
मेरे गाँव का नाम कांकर है जो कुरवाई के पास है और विदिशा से
लगभग ८० की.मी. की दूरी पर। गाँव के उसी स्कूल में मैं पहले
दूसरे दर्जे में पढ़ा हूँ जिसमे पिताजी ही शिक्षक थे। उसी
वक्फे का एक प्रसंग मुझे खूब याद है। दरअसल पिताजी ने कुछ
युवकों को जोड़कर नाटक खेलना शुरू किया था। बाकायदा मंच होता
था, मुखौटे, अनुरूप पोशाकें, और लटकने वाला माइक होता था।
पिताजी राजा हरिश्चंद्र के किरदार का निर्वहन कर रहे थे। अंतिम
दृश्य में वह काफी तकलीफों से गुजर रहे थे...और लगभग विलाप कर
रहे थे, दर्शक दीर्घा में बैठा मैं सिसकते हुए रोने भी लगा। जब
मुझे रोका गया तो मैं बिलख बिलख कर कहने लगा...पिताजी को यहाँ
बुलाओ मैं उन्हें घर ले जाऊँगा..दृश्यांतर के बाद वह आए और
बोले- बेटे, ये तो नाटक है देखो मैं तो खुश हूँ। तब जाकर मुझे
राहत हुई। लेकिन उनके अभिनय की कला को अब तक न भूल पाया हूँ
मैं।
पिताजी कवि हैं ये भी मुझे बचपन में ही मालूम हो गया था। उनकी
कविताओं का प्रसारण आकाशवाणी से हुआ करता और चबूतरों पर बैठकर
लोग उनकी तारीफ करते और गौरव करते कि हमारे गाँव का नाम हो रहा
है। बाद में माध्यमिक की पढ़ाई के लिये मुझे अपने मामा के
कस्बे अशोकनगर (जिला गुना म.प्र.) भेजा गया था। एक बार पिताजी
जब अशोकनगर आए तो गिरिजाकुमार माथुर से मिलने मैं भी उनके साथ
गया था। मुझे याद है उनके बीच एक लम्बी चर्चा हुई थी...काश मैं
ध्यान से सुन सका होता...कितनी महत्वपूर्ण बातें हुईं होगीं
वहाँ।
समय की रेल चलती ही रहती है। हम उसमें सवार न भी हों तो भी वह
हमें ढोती है...बाज़वक्त हम अपने गंतव्य को समझ उसकी सवारी
करते हैं ..ऐसा ही कुछ हुआ कि पिताजी को प्रतियोगी परीक्षाओं
में बैठने की धुन सवार हो गयी...इसके पहले वे बी.ए. में भोपाल
विश्वविद्यालय में मेरिट में आने के कारण आत्मविश्वास से भरे
थे। दो बार पी.एस.सी. में लिखित परीक्षा में भी पास हुए..और
फिर वह १९८० में एक छोटी सी प्रशासनिक अधिकारी की नौकरी पाने
में कामयाब होकर, बस्तर जैसी दुर्गम जमीन पर ज्वाइन करने चले
गए। पहली बार जब वहाँ से आए तो कितने संतुष्ट थे। हाथ में
सुंदर ब्रीफकेस और एक अन्य बैग में उपहारनुमा कई वस्तुएँ। तब
वे ४०-४२ साल के थे। मैं अक्सर अपनी आयु का ख्याल करते समय,
उनकी इस आयु में अर्जित की गयीं उपलब्धियाँ और संघर्ष की
कल्पना करता हूँ तो चौंक जाता हूँ कि मेरी चाल कितनी मंथर है
और वे कितने द्रुत रहे। उनकी इस नौकरी के चलते हमें मध्यप्रदेश
के कस्बों शाहनगर, अजयगढ़, निवाड़ी, पृथ्वीपुर, पन्ना, कटनी
में रहने का मौका मिला।
पिताजी प्रशासनिक अधिकारी तो हो गए थे, लेकिन अक्सर ही असहज
रहते। कारण होतीं उनकी स्पष्ट सोच और वैसी ही बातचीत। जबकि
राजनीतिक लोग गलत करवाने का दबाव डालते रहते। इसी वजह से उनको
तबादलों की परेशानी भी झेलनी पड़ी। नौकरी के कुछ सालों पहले
उनका तबादला कुरवाई (विदिशा) के लिये ही हो गया था। उसी दौरान
उनका पहला कविता संग्रह, रामकृष्ण प्रकाशन से आया। उस किताब के
लोकार्पण में प्रो. कमला प्रसाद, विनय दुबे, नरेन्द्र जैन,
शैलेन्द्र शैली, हरिवंश सिलाकारी, आदि मौजूद थे, तब से पिताजी
से हमेशा कमला जी संपर्क में रहते थे। वे मुझसे कहते थे कि
तुम्हारे पिता बहुत अच्छे इनसान हैं। मेरे कविता संग्रह के
लोकार्पण में जब राजेश जोशी, पूर्णचंद्र रथ, रामप्रकाश
त्रिपाठी आए, वे सब भी पिताजी से मिलकर उनकी विनम्रता का चर्चा
करते रहे। मेरे मित्रों से भी पिताजी बहुत आत्मीयता से मिलते
थे। श्री हरि भटनागर, विनय उपाध्याय, पवन करण, आलोक
श्रीवास्तव, रविन्द्र प्रजापति से वे सदा संपर्क में भी रहा
करते थे। उनका शिष्टाचार वाला पक्ष तो जाहिर है खास था, लेकिन
मैंने उनकी डाँट, उलाहने और फटकारें भी सहीं, बल्कि उन्हें
शिरोधार्य करके आगे बढ़ता रहा। वह हमेशा मुझे कोई बड़ा काम
करने योग्य बन जाने के लिये झकझोरते रहे। मेरा संतुष्ट दिखाई
दे जाना, उन्हें बहुत असंतुष्ट करता था। वह कहते थे बड़े भाग
मानस तन जाना—कान सुने जो पूत बखाना। यानि वो पिता भाग्यशाली
होते हैं, जो अपने पुत्र का यश सुन पाते हैं...तुम ऐसा कुछ करो
कि तुम्हारा यश मैं देख, सुन सकूँ। अफसोस कि मैं ये न कर सका।
एक घटना याद आती है मैं जब पढ़ रहा था, शौक-ए-कविता तो था ही।
मैंने भेज दी कविता छपने, और वह देशबंधु के अवकाश अंक में आ भी
गयी। मोहल्ले में सभी लोगों ने बधाई दी, लेकिन पिताजी खामोश
रहे, मुझे और चिंता हो गयी..आखिर मैंने माँ से अपनी बात कह कर
लगभग पिताजी की शिकायत ही कर डाली...कि वे...ऐसे वक्त में
भी...माँ ने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा था- हाँ मुझे ये चिंता
है कि अभी उसका ध्यान गणित में होना चाहिए। कविता के शौक में
वह आत्ममुग्धता में फँसने के अलावा क्या पायेगा..पहले अच्छा
कैरियर बनाये..फिर करे ये शौक।
उन्होंने बिल्कुल सही कहा था। एक कवि पिता की चिंता मेरे हित
में थी..और मैंने फिर तभी इस दुनिया में कदम रखा जब मैं
आत्मनिर्भर हो गया। पिताजी ने सचमुच ही हम सभी 6 भाई बहिनों के
सुरक्षित भविष्य के लिये अपनी ओर से जी तोड़ योजनाबद्ध तरीके
से मेहनत की, और कामयाब भी हुए। बहनों को शिक्षित करने के बाद
उनके लिये सुयोग्य वर तलाशने के दिनों की माथे पर सलवटें देखी
हैं मैंने, और अच्छे सम्बन्ध पाने पर उनके चेहरे की खुशी भी।
किसी सृजन से कम नहीं ये तलाश। इस अनुभव पर उनकी कुछ कवितायेँ
भी हैं जिनका जिक्र कमलाप्रसाद जी ने उनके दूसरे कविता संग्रह
'दुनिया के बाजार में 'में किया भी है।
मेरी और अनुजों की नौकरी लग जाने के बाद भी वह कभी संतुष्ट ना
हुए। कहते ही रहते- यथास्थितिवादी मत बनो... सकल पदार्थ हैं जग
माहीं... करम हीन नर पावत नाही।
पिताजी अपना ६७ वाँ जन्मदिन न देख सके। वे तब हितोपदेश का
काव्यानुवाद का आधा काम कर चुके थे..और तीसरे कविता संग्रह की
पाण्डुलिपि बना रहे थे, और हाँ इस साल वह परिवार के लिये कार
खरीदने का भी मन बना चुके थे... कि ६ जनवरी २००८ को दिल का
दौरा आ गया। दिन के १२ बजे वह एक तस्वीर में बदल गए..और हम सब
दु:ख से ठन्डे होते जाने के सिवा कुछ ना कर सके। जिनके साये
में जीवन कितना सुकून भरा था, अब उनकी यादें ही हैं जो सुकून
का एक विकल्प मात्र हैं।
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