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कला दीर्घा


श्री राम के पुरातात्विक कला - शिल्प
ललित शर्मा


पुरातात्विक शिल्प, स्थापत्य तथा इतिहास के आधार पर विद्वानों का मानना है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के मंदिरों के निर्माण की परंपरा हमारे देश में गुप्त काल से पहले की प्राप्त नहीं होती। पुरातत्वविद डॉ.शशिकांत भट्ट का मानना है कि मूर्तिपूजा मूलतः व्यक्ति पूजा का ही रूप था और इस के पूर्व श्री राम के सद्कार्यों व उन के जीवन-आदर्शों की पूजा के मृद्पट्ट पुरातात्विक रूप में हमारे देश के मध्य प्रदेश से लेकर हरियाणा और कौशाम्बी तक के विस्तृत क्षेत्र में मिले हैं।

श्री राम के कला-शिल्प में रामायण के जो दृश्य उकरे हैं, वे मूलतः पकी हुई ईंटों पर हैं, इनमें श्री राम, हनुमान तथा उन की वानर सेना है। ये ईंटें पटना के पुरासंग्रहालय में प्रदर्शित हैं। मध्य-प्रदेश के पन्ना जिलान्तर्गत नचना नामक पुरास्थल के मंदिरों में गुप्तयुग के कला स्थापत्य के सुन्दर शिल्प में श्री राम से सम्बंधित कई दृश्य देखने को मिलते हैं। इनमें सीता से रावण द्वारा छद्म साधु वेश में भिक्षा की याचना करते हुए तथा श्री राम की उपस्थिति में लक्षमण द्वारा सूपर्णखा की नासिका काटते हुए शिल्पांकित किया गया है। ऐसी शिल्प-परंपरापन्ना से नर्मदा नदी तक उस के पूर्वी निमाड़ क्षेत्र के बड़केश्वर मंदिर तक प्रसारित रही। नर्मदा तट पर बसे नेमावर के मंदिरों में भी रामायण के कुछ दृश्य शिल्परूप में देखे गए हैं।

पुरातत्वविद डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार, गुप्तयुग में श्री राम के मंदिर चौकोर भवनवाले, परन्तु शिखर विहीन बने थे, जिनकी कई दीवारों पर श्री राम के चरित्र सम्बन्धी अनेक घटनाक्रमों का मृद्पट्टिकाओं पर शिल्पांकन किया गया। ये पट्टिकाएँ ४३.से.मी तथा ५६.से.मी आकर की हैं। इन पट्टिकाओं में श्री राम के जीवन-आदर्शों से राजा-प्रजा को अवगत करना था, ताकि राजा व प्रजा के मध्य शासन-सञ्चालन तथा व्यवहार सौहार्दपूर्ण, अनुशासित एवं मर्यादा में रहे। इन पट्टिकाओं पर श्री राम-बालीयुद्ध, राम-रावणयुद्ध, अशोक वाटिका में हनुमान एवं सीताजी, पंचवटी जाते श्री राम-सीता और लक्ष्मण मकराक्ष (राक्षस) के साथ श्री राम का युद्ध, बालि-सुग्रीव युद्ध, श्री राम द्वारा त्रिशिरा राक्षस का शिरच्छेदन स्वर्णमृग का पीछा करते श्री राम, अशोकवाटिका को नष्ट करते वानर सेनानायक रूप में हनुमान, सेतु निर्माण करती वानर सेना जैसे दृश्य दर्जनों की संख्या में हैं। पर इनसे भी (ऊपर या नीचे) गुप्त कालीन ब्राम्ही लिपि में संस्कृत में रामायण के श्लोक एवं शीर्षक उकेरे गए हैं। डॉ. भट्ट के आकलन के अनुसार, लिपि शास्त्र के आधार पर ये शिल्पावशेष वाल्मीकि रामायण के १५०० वर्ष पुराने पुरातात्विक प्रमाण हैं।

उक्त प्रसंग में मारीच एवं श्रीराम का फलक मूलतः हरियाणा के नचारखेड़ा स्थल में प्राप्त हुआ है, जो ४३x४३ से.मी. आकार का है। इस फलक में स्वर्ण मृग दौड़ता हुआ भय वश पीछे मुड़कर देख रहा है तथा श्रीराम-सीता भी उसे देख रहे हैं। श्री राम के धनुष-बाण और कन्धों पर अक्षय तूणीर है तथा जटा पर मुकुट है, जबकि सीता बालों में वनपुष्पाभरण धारण किये हुए हैं। इस मृद फलक पर पंचवटी जाते हुए श्री राम का जटायु से मिलन का दृश्य भी उकेरा हुआ है जिस पर ब्राम्ही लिपि में एक पंक्तिबद्ध लेख 'न अन्तरारघुनन्दन आससादमहागृध्रैः' अंकित है। वाल्मीकि रामायण में भी इस दृश्य का वर्णन है -
अथपञ्चवटीगच्छनअन्तरारघुनन्दनः।
आससाद मह का यंगृध्रं भी मपराक्रमम्।।
( रामायण, अरण्य, सर्ग१४, श्लोक१)

हरियाणा के कुरुक्षेत्र से ८० की .मी. दक्षिण -पूर्व में स्थित संधाय ग्राम से प्राप्त एक मृदफलक (२२ x २२ से.मी.) पर श्री राम तथा मकराक्ष का युद्ध उकेरा हुआ मिला है। इसमें खर नामक राक्षस के पुत्र मकराक्ष को रावण ने अपनी बहन सूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के लिए श्री राम के विरुद्ध भेजा था। मकराक्ष ने लंका की युद्धभूमि में अपने पिता खर की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए श्री राम से युद्ध किया था। उसने श्री राम से कहा, "राम ठहरो। सावधान हो जाओ, तुम्हारे से मेरा द्वंद्व युद्ध होगा और मैं अपने पैने तीरों से तुम्हारे प्राण ले लूँगा।'

उल्लेखनीय है कि इस राक्षस की आँखें और मुख मकराकृति (मगरमच्छ) जैसा तथा शेष शरीर गधे (खर) जैसा होने से इसे 'मकराक्ष' कहा गया। फलक पर मूर्तिकार ने मकराक्ष को श्री राम का बायाँ हाथ अपने जबड़े में पकडे व श्री राम को अपना बायाँ पैर राक्षस के पेट पर मारकर उसे धक्का देते बड़े सुन्दर शिल्प से सजाया है। यहाँ श्री राम के कानों में सुन्दर कुंडल, ग्रीवा में अलंकृत कंठाभरण हैं, जिसमें चक्रदार पेंडल है, को पहने दर्शाया है। श्री राम द्वंद्वयुद्ध में लँगोट धारण किए हुए हैं। उनके नीचे एक अश्व मृत पड़ा है। मकराक्ष के मुख के नुकीले दाँत तीक्ष्ण हैं तथा उस के सर पर कान के नीचे लम्बे मोटे बाल हैं। उस की मुखमुद्रा आक्रामक है। वह अपने दोनों खुरों पर खड़ा हुआ श्री राम से द्वंद्व युद्ध कर रहा है।

झज्जर के गुरुकुल पुरातत्व संग्रहालय में दर्शित एक मृदाफलक काफी भग्न है। इसमें श्रीराम वृक्ष की आड़ में बाली पर धनुष ताने हुए हैं। एक अन्य फलक हरियाणा के हिसार जिले में स्थित दुर्जनपुर के ग्राम नचारखेड़ा में मिला था, जो ४३ x ४३ से. मी. का है। इस में रामायण के अरण्यकांड में वर्णित त्रिशिरा राक्षस को उकेरा गया है। वह दो स्तम्भ पर आधारित छत के नीचे बनी एक चौकी पर बैठा है तथा उस के दाएँ बाएँ जमीं पर हाथ में तलवार लिए दो रक्षक बैठे हैं। इनमें से एक के पैर में कुषाण कालीन जूते हैं। त्रिशिरा के चेहरे पर बाईं ओर चौथी सदी की ब्राह्मी लिपि में 'तृशिर' (त्रिशिरा) उकेरा हुवा है। फलक के निचले भाग पर ब्राह्मी में ही 'चतुर्दश राक्षसासुजित्वा राम होययशः' (अर्थात श्री राम ने १४ राक्षसों को जीतकर यश प्राप्त किया) उकेरा हुआ है। ऐसे ही एक अन्य फलक में त्रिशिरा को युद्धरत दिखाया गया है। फलक में उस के दो मुख भग्न हैं तथा तीसरा मुख श्रीराम के बाण से कटकर गिरने की अवस्था में उकेरा हुआ है। उसे अश्व जुते रथ पर पद्मासनमुद्रा में बैठे व युद्ध करते दर्शाया गया है। उस के कुल ६ हाथ हैं, परन्तु उनमें से ४ भग्न हैं। शेष दो हाथों में क्रमशः तलवार एवं चक्र हैं।

इस प्रकार श्री राम के ये पुरातात्विक कला-शिल्प सैकड़ों वर्षों पूर्व की राम-कथा के ऐसे प्रमाण हैं, जो राम-कथा परंपरा की प्राचीनता को पुष्टता प्रदान करते हैं। सामान्य राम भक्त या राम कथावाचक श्री राम के ऐसे पुराशिल्प प्रमाणों से अभी अनभिज्ञ हैं। भारतीय इतिहास में मध्ययुग के पूर्व भी छठी सदी ई. में भगवान श्री राम जनमानस में आराध्य रूप में प्रतिष्ठित होकर मूर्तिपूजा की धार्मिक प्रवृत्तियों में समाविष्ट हो गए थे। इस प्रमाण की चर्चा ११वीं सदी में भारत आये मुस्लिम इतिहासकार अलबरूनी ने भी की है। उन्होंने स्पष्ट लिखा, 'यदि आकृति दशरथ के पुत्र राम की प्रतिमा (बनाने) की है तो उस की लंबाई सामान्य अंगुली की रखें। हिन्दू अपनी मूर्तियों का सम्मान उस सामग्री की वजह से नहीं करते, जिस से वे बनाई गई हैं, बल्कि उन लोगों के कारण करते हैं जिन्होंने उन्हें प्रतिष्ठित किया है।

उसने आगे के साथ-साथ उन के द्वारा स्थापित रामेश्वरम्सेतुबंध तथा वानरों की चर्चा करते हुए लिखा, 'रामशेर (रामेश्वर) सरनदीप के सामने है। श्री राम के रामशेर और सेतुबंध के के बीच २ फरसख की दूरी है। यह समुद्र पर बना पुल है, जो दशरथ पुत्र राम की नहर है। जिसे उसने महाद्वीप से लेकर लंका के दुर्ग तक बनवाया था। इस समय इसमें छितरे हुए पर्वत हैं, जिनके बीच में समुद्र बहता है। सेतुबंध से पूर्व की ओर सोलह फरसख की दूरी पर किहकीद (किष्किंध) वानरों का पर्वत है। वहाँ वानरों का राजा जंगली व ड़ाकू भी है। हर रोज वह झाड़ी से निकल कर अपने वानर-समूह के साथ आता है और वे सब अपने आप से आसनों पर, जो उनके लिए विशेष रूप से बनाए गए हैं, बैठ जाते हैं। लोक विश्वास है कि वे मानव जाति के ही थे, लेकिन उन्होंने उस समय राम की सहायता की थी, जब वे राक्षसों से युद्ध कर रहे थे तो उन्हें वानर जाति में बदल दिया गया था। मान्यता है कि राम ने उन्हें ये गाँव जागीर में दिए थे। यदि कोई मनुष्य उन्हें रामायण सुनाता है और राम के मंत्रादि का उच्चारण करता है तो उन्हें वे शांति पूर्वक सुनते हैं।

इस प्रकार ९वीं -१०वीं सदी के आस-पास रामायण संस्कृति एवं साहित्य का विस्तार दक्षिण भारत में भी प्रारंभ हुआ और राम मंदिरों (बड़े गोपुरम वाले) का निर्माण किया गया। विजयनगर की स्थापना और विस्तार से रामायण की घटनाओं ने शिल्पांकन क्षेत्र में नवीन आयाम स्थापित किए, साथ में महाभारत के भी दृश्य उकेरे गए। गुप्त काल की अवनति में विशेषकर कर्मकांडों का बड़ा योगदान रहा तथा इस कृत्य ने रामायण साहित्य में अंधविश्वासों का जंजाल रच डाला। जहाँ मूर्तिपूजा पर जरूरत से ज्यादा जोर देने के कारण जनता दिग्भ्रमित हो गई। इस दिग्भ्रमित संक्रमण काल में श्री राम के साहित्य की उपयोगिता से सभी को अवगत कराने वाले संतवर्ग का उत्कर्ष हुआ। संत रामानंद, संत कबीर, संत पीपाजी जैसे अनेक संतों ने व्यक्ति पूजा के स्थान पर महापुरुषों के आदर्शों का विश्लेषण कर भारतीय समाज में उनकी उपादेयता संबंधी साहित्य व वाणियों का सृजन किया और इस से राम साहित्य का लोकोपयोगी पक्ष उभरकर आया, जिसमें जाति तथा ऊँच-नीच के कथन शिथिल हुए और श्री राम के जीवन आदर्श मानवीय समानता के आधार बने। 

१ नवंबर २०१८

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