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श्रीराम
वन-गमन मार्ग के प्रमुख स्थान
डा. राधेश्याम द्विवेदी
मर्यादा
पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को १४ वर्ष का वनवास हुआ था। इस काल
में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की,
तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय
समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया था। संपूर्ण
भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बाँधा।
राम वन-गमन मार्ग और उससे जुड़े स्थलों पर शोध के लिए जीवन
समर्पित करने वाले आयकर विभाग की राजभाषा सेल में असिस्टेंट
डाइरेक्टर की नौकरी छोड़कर ढाई दशक से इस अभियान में डॉ. राम
अवतार शर्मा लगे हुए हैं। उन्होंने समुचित प्रामाणिकता के साथ
१० हजार किलोमीटर लंबे राम वन-गमन मार्ग एवं भगवान राम से जुड़े
२४८ स्थलों की पहचान सुनिश्चित की है। राम वन-गमन मार्ग पर शोध
करने की उनकी परियोजना केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने
स्वीकृत की थी। राम वन-गमन मार्ग एवं जिन स्थलों पर भगवान राम
ने वन-गमन के दौरान विश्राम किया, वे वन-गमन मार्ग एवं भगवान
राम के विश्राम स्थलों की खोज के साथ इन स्थलों के विकास के
प्रति दृढ़ता से उत्सुक हुए।
उन्होंने कुछ साल पूर्व से ही श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान
का गठन कर रखा है और संगठन के माध्यम से वे वन-गमन मार्ग सहित
भगवान राम की कुछ अन्य यात्राओं का मार्ग फलक पर उभारने की
कोशिश में हैं। उनके इन्हीं प्रयासों को ध्यान में रख कर २०१५
में केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय ने न केवल रामायण सर्किट विकसित
करने का एलान किया बल्कि शर्मा को रामायण सर्किट सलाहकार समिति
का अध्यक्ष बनाया।
भारत व श्रीलंका का केन्द्रीय तथा भारत की अनेक प्रदेशीय
सरकारें इन स्थलों के विकास के लिए प्रयासरत हैं। राम वन-गमन
मार्ग न भी बने पर उन स्थलों को संपर्क मार्ग से जरूर जोड़ा
जाना चाहिए, जो भगवान राम की प्रामाणिकता बयां करते हैं।
श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे स्थान आज भी
तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहाँ श्रीराम और सीता
रुके या रहे थे। वहाँ के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि
स्थानों के समय-काल की जाँच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से होती
रही है। इनमें प्रथम ५ उत्तर प्रदेश में स्थित है। छठा, सातवाँ
और आठवाँ मध्य प्रदेश में ९वाँ और १०वाँ छत्तीसगढ में, ११वाँ
१२वाँ तथा १३वाँ महाराष्ट्र में, १४वाँ से १५वाँ तक
आंध्रप्रदेश में, १६वाँ केरल में १७वाँ कर्नाटक में, १८वाँ से
२०वाँ तक तमिलनाडु में और आखिरी २१वाँ श्रीलंका में स्थित है।
उत्तर प्रदेश में वनगमन स्थल-
तमसा नदी
यह नदी अयोध्या से जिले की सीमा दराबगंज तक वन-गमन यात्रा ३५
किलोमीटर का सफर तय करती है। राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि
रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुँचे,
जो अयोध्या से २० किमी दूर फैजाबाद के महादेवा घाट पर है। यहाँ
पर उन्होंने नाव से नदी पार की। तमसा नदी पार करते हुए भगवान
राम ने जिस घाट पर वन-गमन का पहला रात्रि प्रवास किया था, वह
स्थल रामचौरा के नाम से जाना जाता है। १९८५ में तत्कालीन
मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी ने ४२ लाख की लागत से इस स्थल
का पर्यटन की दृष्टि से विकास कराया था।
शृगवेरपुर (सिंगरौर)
इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद)
से २०-२२ किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुँचे, जो निषादराज
गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा
पार कराने को कहा था। श्रृंगवेरपुर को वर्तमान में सिंगरौर कहा
जाता है। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा
घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया
है।
कुरई
इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के
निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो
इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी
स्थान पर उतरे थे। इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो
स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहाँ गंगा को
पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम
किया था।
प्रयाग
कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित
प्रयाग पहुँचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता
है। यहाँ गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे
बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी
को पार किया और फिर पहुँच गए चित्रकूट। यहाँ स्थित स्मारकों
में शामिल हैं- वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप
इत्यादि।
चित्रकूट
प्रभु श्रीराम ने प्रयाग संगम के समीप यमुना नदी को पार किया
और फिर पहुँच गए चित्रकूट। चित्रकूट में श्रीराम के दुर्लभ
प्रमाण हैं. चित्रकूट वह स्थान है, जहाँ राम को मनाने के लिए
भरत अपनी सेना के साथ पहुँचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो
जाता है। भरत यहाँ से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण
पादुका रखकर राज्य करते हैं।
मध्यप्रदेश में वनगमन स्थल-
संस्कृति विभाग का मानना है कि भगवान राम अपने वनवास के दौरान
साढ़े ग्यारह साल चित्रकूट में रहे थे. इसके बाद सतना, पन्ना,
शहडोल, जबलपुर, विदिशा के वन क्षेत्रों से होकर दंडकारण्य चले
गये थे. भगवान श्री राम नचना, भरहुत, उचेहरा, भेड़ाघाट एवं
बाँधवगढ़ होते हुए छत्तीसगढ़ गये थे. इन जिलों के नाम रामायण,
पौराणिक ग्रंथों और व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर निकाले गए.
भगवान राम वनवास के दौरान सतना जिले के कई स्थानों से होकर
गुजरे थे. उनमें सरभंगा आश्रम व सिद्धा पहाड़ भी था. रामचरित
मानस के अरण्य कांड में सरभंगा आश्रम का जिक्र है. सरभंगा ऋषि
के तपोबल से मंदाकिनी नदी का उद्गम यहाँ से हुआ. नदी के उद्गम
स्थल को ब्रह्म कुण्ड कहा जाता है. इस कुण्ड में अस्थि विसर्जन
भी किया जाता है. भगवान राम वनवास के दौरान अपने अनुज लक्ष्मण
के साथ इस आश्रम में भी आए थे. रामचरित मानस के ही अनुसार
भगवान राम जब चित्रकूट की ओर बढ़े, तो सिद्धा पहाड़ मिला, यह
पहाड़ अस्थियों का था. तब राम को मुनियों ने बताया कि राक्षस
कई मुनियों को खा गए हैं और यह अस्थियाँ उन्हीं मुनियों की
हैं. भगवान राम ने यहीं पर राक्षसों के विनाश की प्रतिज्ञा ली
थी.
सतना
चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का
आश्रम था। हालाँकि अनुसूइया-पति महर्षि अत्रि, चित्रकूट के
तपोवन में रहा करते थे, लेकिन सतना में 'रामवन' नामक स्थान पर
भी श्रीराम रुके थे, जहाँ ऋषि अत्रि का एक ओर आश्रम था।
अत्रि ऋषि का आश्रम
चित्रकूट के पास ही सतना मध्यप्रदेश स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम
था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहाँ
श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के
द्रष्टा हैं। अत्रि ऋषि की पत्नी का नाम है अनुसूइया, जो दक्ष
प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी। अत्रि पत्नी अनुसूइया
के तपोबल से ही भगीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में
प्रविष्ट हुई और ‘मंदाकिनी’ नाम से प्रसिद्ध हुई। ब्रह्मा,
विष्णु व महेश ने अनसूइया के सतीत्व की परीक्षा ली थी, लेकिन
तीनों को उन्होंने अपने तपोबल से बालक बना दिया था। तब तीनों
देवियों की प्रार्थना के बाद ही तीनों देवता बाल रूप से मुक्त
हो पाए थे।
फिर तीनों देवताओं के वरदान से उन्हें एक पुत्र मिला, जो थे
महायोगी ‘दत्तात्रेय’। अत्रि ऋषि के दूसरे पुत्र का नाम था
‘दुर्वासा’। दुर्वासा ऋषि को कौन नहीं जानता? अत्रि के आश्रम
के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व
माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने
उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में
इसका वर्णन मिलता है। प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे
तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले-
‘हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं,
जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक
तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता
हूँ, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।’
राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा
मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का
वचन देकर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।
सतना
अत्रि-आश्रम से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुँचे, जहाँ
‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व
महानदी नदियों के किनारे १० वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों
का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध
सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण
आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक
विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम,
राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।
दंडकारण्य
अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल
बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि-आश्रम’ से
‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम
के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहाँ के नदियों,
पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की
भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहाँ वे लगभग १०
वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे।
शहडोल (अमरकंटक)
राम वहाँ से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल
से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहाँ एक पर्वत का नाम
‘रामगढ़’ है। ३० फीट की ऊँचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता
है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहाँ वशिष्ठ गुफा है। दो
गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल
से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है।
वर्तमान में करीब ९२३०० वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस
इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियाँ तथा पूर्व में इसकी
सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा
एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार
उत्तर से दक्षिण तक करीब ३२० किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग
४८० किलोमीटर है।
दंडकारण्य
दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। यहाँ रामायण काल
में रावण के सहयोगी बाणासुर का राज्य था। उसका इन्द्रावती,
महानदी और पूर्व समुद्र तट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा
अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार,
छिन्दक कोया तक राज्य था। वर्तमान बस्तर की ‘बारसूर’ नामक
समृद्ध नगर की नींव बाणासुर ने डाली, जो इन्द्रावती नदी के तट
पर था। यहीं पर उसने ग्राम देवी कोयतर माँ की बेटी माता माय
(खेरमाय) की स्थापना की। बाणासुर द्वारा स्थापित देवी दांत
तोना (दंतेवाड़िन) है। यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से
जाना जाता है। यहाँ वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा
समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है। इसी दंडकारण्य का
ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के
तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह
मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने
वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।
स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और
जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ
गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर
जटायु का एकमात्र मंदिर है। दंडकारण्य क्षेत्र की चर्चा
पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा
महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र
के नासिक के अलावा एक आश्रम था।
पंचवटी, नासिक
दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई
नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक
में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी
क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी
ने वनवास का कुछ समय यहाँ बिताया। उस काल में पंचवटी जनस्थान
या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का
उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग ३२ किमी दूर है। वर्तमान में
पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे
स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है।
अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट
किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर
स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पाँच वृक्षों का
स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पाँच वृक्ष थे- पीपल, बरगद,
आँवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास
पाँच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है।
माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीता और लक्ष्मण ने अपने
हाथों से लगाया था। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी
थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहाँ पर
मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है।
नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर,
राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहाँ श्रीराम का बनाया हुआ एक
मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है। मारीच का वध पंचवटी के निकट
ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की
मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी
का मनोहर वर्णन मिलता है।
सीताहरण का स्थान सर्वतीर्थ
नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद
ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी
स्मृति नासिक से ५६ किमी दूर ताकेड़ गाँव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक
स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के
स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड़ गाँव
में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि
यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी
ने यहाँ जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का
श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।
पर्णशाला, भद्राचलम
पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित
है। रामालय से लगभग १ घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को
‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक
स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित
है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहाँ से सीताजी का हरण हुआ
था। हालाँकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान
उतारा था। इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में
बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहाँ छोड़ी थी। इसी से वास्तविक
हरण का स्थल यह माना जाता है। यहाँ पर राम-सीता का प्राचीन
मंदिर है।
सीता की खोज तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र
सर्वतीर्थ जहाँ जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का
प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा
कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुँच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी
नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।
शबरी का आश्रम पम्पा सरोवर (केरल)
तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्मण चले
सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्चात वे
ऋष्यमूक पर्वत पहुँचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी
आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। पम्पा नदी भारत के
केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भी
जाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है।
श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर
हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी
प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख
वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।
ऋष्यमूक पर्वत हनुमान से भेंट (कर्नाटक)
मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की
ओर बढ़े। यहाँ उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के
आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत
वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के
निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई
थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक
अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर
किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने
लगा था। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी,
जिला बेल्लारी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से
ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहाँ तुंगभद्रा नदी
(पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक
चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर
है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर
मतंग ऋषि का आश्रम था, जो हनुमानजी के गुरु थे। ऋष्यमूक पर्वत
तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित
है।
कोडीकरई (तमिलनाडु)
हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का
गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक
नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना
ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को
कोडीकरई में एकत्रित किया। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो
लगभग १००० किमी तक विस्तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी
के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और
दक्षिण में पाल्क स्ट्रेट से घिरा हुआ है। लेकिन राम की सेना
ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहाँ से समुद्र को
पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी
नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।
रामेश्वरम (तमिलनाडु)
रामेश्वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहाँ का छिछला
पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्वरम प्रसिद्ध
हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्य रामायण के अनुसार भगवान
श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहाँ भगवान शिव की पूजा
की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग
है।
धनुषकोडी (तमिलनाडु)
वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने
रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूँढ निकाला, जहाँ से
आसानी से श्रीलंका पहुँचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की
मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला
लिया। छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से
संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम
में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों
को दिखाने ले जाते हैं।
धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम
द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गाँव है। धनुषकोडी पंबन
के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में
तलैमन्नार से करीब १८ मील पश्चिम में है। इसका नाम धनुषकोडी
इसलिए है कि यहाँ से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और
नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के
समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के
अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच
एकमात्र स्थलीय सीमा है, जहाँ समुद्र नदी की गहराई जितना है
जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है। यहाँ एक पुल डूबा पड़ा है।
१८६० में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए
गए। अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी
यह नाम प्रचलित हो गया।
अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद
भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बाद में बंदरगाह
बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया। ३० मील लंबा और
सवा मील चौड़ा यह रामसेतु ५ से ३० फुट तक पानी में डूबा है।
श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर
भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन
हेतु उसे तोड़ना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने
सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका के ऊर्जा
मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और
श्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा
था।
’नुवारा एलिया’ पर्वत शृंखला (श्रीलंका)
वाल्मिकी रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था।
‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग ९० किलोमीटर दूर बांद्रवेला
की तरफ मध्य लंका की ऊँची पहाड़ियों के बीचोंबीच सुरंगों तथा
गुफाओं के भँवरजाल मिलते हैं। यहाँ ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष
मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।
श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल,
रावण गुफाएँ, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की
पुरातात्विक जाँच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती
है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएँ, जीव, वनस्पति
तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित
किए गए हैं। श्री वाल्मीकि ने रामायण की संरचना श्रीराम के
राज्याभिषेक के बाद वर्ष ५०७५ ई.पू. के आसपास की होगी
(१/४/१-२)। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से
पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष १००० ई.पू. के आसपास
इसको लिखित रूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण
मिलते हैं।
राम वन-गमन मार्ग पर ८४ कोसी परिक्रमा मार्ग पर काम शुरु-
भगवान राम की नगरी अयोध्या और उनके वनवास के केंद्र चित्रकूट
के बीच राम वन-गमन पथ पर गाड़ियाँ फर्राटा भरेंगी। अवध को
चित्रकूट से जोड़ने के लिए राम वन-गमन पथ बनेगा। प्रतापगढ़,
चित्रकूट के बीच राम वन-गमन पथ (हाईवे) के लिए वही रूट चुना
गया है जिस रास्ते भगवान राम के वन जाने की बात होती है। यह पथ
अवध की सीमा रहे श्रृंगवेरपुर (इलाहाबाद) से गुजरेगा। राम वन
जाते समय श्रृंगवेरपुर में श्रृंगेरी ऋषि के यहाँ रुके थे।
प्रतापगढ़ और चित्रकूट के बीच प्रस्तावित पथ में शामिल छोटी
सड़कों को हाईवे का रूप मिलेगा। तकरीबन १५० किमी लंबा हाईवे
पहले चरण में टू या थ्री लेन का होगा। भविष्य में इसे फोर लेन
बनाने की योजना है। अयोध्या से प्रतापगढ़ के बीच सड़क बनी है।
प्रस्तावित मार्ग को उससे लिंक किया जाएगा। राम वन-गमन पथ चार
जिलों को जोड़ेगा। यह मार्ग प्रतापगढ़ से शुरू होगा। पथ
इलाहाबाद, कौशांबी होते हुए चित्रकूट में समाप्त होगा।
राम वन-गमन पथ प्रतापगढ़ के मोहनगंज से शुरू होकर जेठवारा,
कन्हैयापुर, त्रिलोकपुर (प्रतापगढ़), श्रृंगवेरपुर, कोखराज,
कौशांबी होते हुए चित्रकूट जाएगा। उत्तर प्रदेश के अयोध्या से
प्रतापगढ़ के मोहनगंज तक फिर जेठवारा के बाद इलाहाबाद में
लालगोपालगंज, कन्हैयानगर, त्रिलोकपुर, भगौतीपुर से
श्रृंग्वेरपुर तक राम वन-गमन मार्ग विकसित किये जा रहे हैं।
श्रंग्वेरपुर के निकट ही एनएच-२ (कानपुर-वाराणसी हाईवे) को पार
कर कौशांबी के कोखराज से वाया मंझनपुर चित्रकूट तक फोरलेन सड़क
प्रस्तावित है। भगवान राम श्रृंग्वेरपुर में गंगा पार करने के
बाद कौशांबी जिले के कुरई गाँव स्थित घाट पर उतरे थे। वहाँ से
वह चरवा पहुँचे और रात्रि विश्राम किया। अयोध्या के चौरासी
कोसी की परिक्रमा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
भगवान श्री राम कौशल देश के राजा थे जिसकी सीमा चौरासी कोस में
फैली थी और अयोध्या इसकी राजधानी थी। नियम है कि चैत्र मास की
पूर्णिमा तिथि से शुरू होकर बैसाख नवमी तक यह परिक्रमा चलती
है। लेकिन श्रद्धालु भक्त कभी भी कौशल राज्य की पवित्र भूमि की
परिक्रमा कर सकते हैं। माना जाता है कि चौरासी कोस की यात्रा
चौरासी लाख योनियों से छुटकारा पाने के लिए है। हमारा शरीर भी
चौरासी अंगुल की माप का है। परिक्रमा में शामिल श्रद्धालु इस
दौरान पाँच जिलों में स्थित २१ पड़ावों पर रात्रि विश्राम करते
हैं।
यात्रा मखौड़ा धाम से प्रारंभ होकर यहीं समाप्त भी होती है।
बस्ती जिले में यात्री रामरेखा मंदिर पर पहली रात विश्राम करते
हैं। दूसरे दिन दुबौलिया ब्लाक के हनुमानबाग चकोही में विश्राम
करते हैं। तीसरे दिन सेरवाघाट पर सरयू नदी पार कर श्रृंगीऋषि
आश्रम गोसाईगंज फैजाबाद पहुँचते हैं। चौथे दिन अंबेडकर नगर
जनपद में प्रवेश कर पुन: फैजाबाद के महादेवा घाट पर पहुँचकर
तमसा नदी पार करते हैं। फैजाबाद के तारून ब्लाक के आगागंज
टिकरी में विश्राम करते हैं। अगला पड़ाव फैजाबाद के भगनरामपुर
सूर्यकुंड में करते हैं। सीता कुंड बीकापुर, ढेमावैश्य, इनायत
नगर, जनमेजय कुंड खंडासा, अमानीगंज पोखरा, रूदौली, पटरंगा,
बेलखरा, टिकैत नगर बाराबंकी, दुलारेबाग, परशुपुर, गोंडा,
राजापुर, परशुपुर, गोंडा, विद्रावन, खैरा, सेमरागंगा, भगत उमरी
बेगमगंज, उत्तरी भवानी, जमथा तरबगंज, नाका पहलवान, बीर मंदिर,
नवाबगंज, प्राथमिक विद्यालय, रेहली नवाबगंज से होते हुए पुन:
मखौड़ा पहुँचते हैं। मखौड़ा में भंडारा के बाद यात्रा की समाप्ति
होती है। |