इस
सप्ताह दीपावली के अवसर
पर-
समकालीन कहानियों के अंतर्गत
यू एस ए से अनिल प्रभा कुमार की कहानी
दिवाली की शाम
उन्होंने
पीछे घूम कर देखा। सारी सड़क पर कोई देखने वाला नहीं था। नवंबर
की शाम थी। ठंड पड़ी नहीं थी सिर्फ़ अपने आने की सूचनाएँ भेज
रही थी। पत्ते भी मौसम के हिसाब से अपने रंग बदल कर धराशायी हो
गए। सब घरों के बाहर बढ़ना शुरू हो रहा था। कोई गाड़ी पास से
गुज़रती तो हकबका कर बाहर की रोशनी जग जाती। उनका मन जो अपना
घर देख कर थोड़ा मुग्ध हुआ था, वही अब आस-पड़ोस के घर देखकर
क्षुब्ध हो गया। दिवाली का दिन है और कहीं कोई शगुन तक के लिए
भी रोशनी नहीं। सिर्फ़ काले पड़ते पेड़ों की डालियों से छन कर
आता आकाश का फीका-सा उजाला था।
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हास्य-व्यंग्य के अंतर्गत
नरेंद्र कोहली की अग्निपरीक्षा
उस
दिन मेरा मन कुछ और ही हो रहा था, इसीलिए उन्हें 'गुड मार्निंग' न कह कर
''जय रामजी की'' कह बैठा। वे बिगड़ उठे, ''तुम्हें कुछ पता भी है कि मुझे
राम जी के कारण अपनी पढ़ी लिखी पत्नी और उसकी सहेलियों से कितनी डाँट
सुननी पड़ी।''
मैं 'पढ़ी लिखी' विशेषण पर विचार कर ही रहा था कि उन्होंने गोला दागा,
''बताओ राम जी ने सीता जी की अग्निपरीक्षा क्यों ली? 'अपनी पत्नी के साथ
ऐसा व्यवहार करना चाहिए क्या?'' मेरे पास इस प्रश्न का कोई मौलिक समाधान
नहीं था। विनोद में कहना होता तो कह देता कि सहस्रों पत्नियाँ प्रतिदिन
अपने पतियों की अग्निपरीक्षा लेती रहती हैं। कभी एक पति ने ऐसी परीक्षा
ले ली तो कौन-सा आकाश फट पड़ा।
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पर्व परिचय में
चिरंतन की पड़ताल- दीपोत्सव के प्रारंभ का इतिहास
दीपावली
भारत के उस आदि स्वातंत्र्य-उत्सव का प्रतीक पर्व हे जब पहली बार विदेशियों
के पदाक्रांत से आहत होने के बाद देश ने अपने पारतंत्र्य से मुक्ति पाई थी और
हिरण्याक्ष से लेकर बलि तक की दैत्य परंपरा का अंत हुआ था। भारत को सर्वप्रथम
आक्रांत करने वाली विदेशी जाति दैत्य जाति थी और वह वायव्य दिशा से आई थी।
इसके नेता का नाम हिरण्याक्ष था। कदाचित भारत की संपत्ति अर्थात हिरण्य पर
दृष्टि (अक्ष) रखने के कारण ही उसका नाम हिरण्याक्ष पड़ा होगा। यह घटना उस
अंधकारमय काल की है जब आर्यावर्त की सीमाओं को पार कर आर्य जाति ने दक्षिणापथ
की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था।
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ललित निबंध में
डॉ प्रेम जनमेजय की रचना
उजाला एक विश्वास
दीपावली
समीप आती है तो मन दीपकों की संघर्षशील चेतना को लक्षित कर प्रसन्न एवं
प्रेरित होता है परंतु यह सोचकर कि आधी रात को इन दीपकों के बुझते-बुझते हम
तो सो जाएँगे और हमारे सोते ही अंधेरा सुबह के उजाले के आने तक अपने पैर
पसारे अपने होने का अहसास दिलाता रहेगा, मन अवसाद में घिर जाता है। इस बार भी
दीपावली की प्रतीक्षा सामान्य भारतीय की तरह कर रहा हूँ और आशा कर रहा हूँ कि
कुछ देर के लिए ही सही अपने सामाजिक जीवन में अकेलेपन के अँधेरे के न होने के
अहसास का आनंद उठा पाऊँगा। मुझे त्रिनिदाद की दीपावली याद आ रही है जहाँ इस
दिन उपवास रखा जाता है।
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साहित्यिक निबंध में
महेश दत्त शर्मा का आलेख शाश्वत राम हमारे
रामनाम की सर्वव्यापकता उनके अस्तित्व का प्रमाण है। यह नाम उतना ही सच्चा
है, जितना हिमालय और गंगा का अस्तित्व। भगवान राम सूर्यवंश में उत्पन्न हुए।
यह वंश राजा इक्ष्वाकु से आरंभ हुआ। पुराणों में कहा गया है कि इक्ष्वाकु
वैवस्वत मनु के पुत्र थे। इस वंश में राजा पृथु, मांधाता, दिलीप, सगर, भगीरथ,
रघु, अंबरीष, नाभाग, त्रिशंकु, नहुष और सत्यवादी हरिश्चंद्र जैसे प्रतापी
व्यक्तियों ने जन्म लिया। ये नाम किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। श्रीराम के
पूर्वज पृथु के नाम पर ही इस पृथ्वी का नामकरण हुआ। पृथु ने पृथ्वी को समतल
करवाकर कृषि का आविष्कार किया और राजा सगर पृथ्वी को खुदवाकर समुद्र बनवाए,
इसलिए इनके नाम पर इन्हें सागर भी कहा जाने लगा।
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