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पर्व
पुंज दीपावली
—मनोहर पुरी
बसंत और शरद दोनों
ऋतुएँ जलवायु की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी गई हैं। आर्य
संस्कृति में इस बात का वर्णन बार-बार किया गया है। खगोल
शास्त्रियों के अनुसार अश्विन और कार्तिक तथा फाल्गुन और
चैत्र माह के दिनों में दो बार सूर्य विषुवत रेखा पर होता है।
ऐसे समय में बड़े-बड़े उत्सव मनाने की प्रथा भारत में
प्राचीन काल से रही है। शरद पूर्णिमा
को मनाया जाने वाला कौमुदी महोत्सव और अमावस्या की यक्ष
रात्रि का सम्मिलित आयोजन दीपावली के पर्व-पुंज के रूप में
सामने आया जो भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों से जुड़ता
ही नहीं, उन्हें परस्पर जोड़ता भी है।
दीपावली का
शाब्दिक अर्थ है दीपों की अवलि अर्थात पंक्ति जो अंधकारमय
रात्रि को जगमगा देती है। भावनात्मक रूप में दीवाली भौतिकता
के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने वाला पर्व है।
इसे ज्योति पर्व, प्रकाश पर्व और दीपोत्सव भी कहा जाता है।
ज्ञान रूपी प्रकाश की यह पूजा दीपोत्सव, अथवा दीपमालिका का
आधार है। उत्तर वैदिक काल में शुरू हुई आकाश दीप की परंपरा
को वर्तमान दीवाली का प्रारंभिक रूप माना जाता है। शरद काल
में श्राद्ध पक्ष में भारत में पूर्वजों का आह्वान किया जाता
था। जब पूर्वज वापस अपने लोकों को लौटते थे तो उनके मार्ग को
आलोकित करने के लिए लंबे-लंबे बाँसों पर कंदील जलाने की
परंपरा थी। द्रविण जन कार्तिक अमावस्या के अवसर पर दीपदान
महोत्सव पर दीप जलाते हैं।
प्राचीन काल
में दीवाली चतुर्दशी, अमावस्या और कार्तिक प्रतिपदा तीनों
दिन मनाने का रिवाज़ था। आज भी यह पर्वपुंज पाँच दिन मनाया
जाता है। दीवाली के पाँच दिनों में पाँच कृत्य करने का विधान
है। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी अर्थात धन तेरस को घर द्वार की
साफ़-सफ़ाई की जाती है। कहीं गंदगी का निशान नहीं रहता। आज
कल लोग नया बर्तन ख़रीद कर इस दिवस को मनाते हैं। बर्तन
ख़रीदने की प्रथा मुख्य रूप से शहरों में ही दिखाई देती है।
पुराने बर्तनों को विशेष तौर पर चमकाने का प्रयास कम ही
दिखाई देता है। इस दिन धन के देवता कुबेर की श्रद्धापूर्वक
आराधना की जाती है।
दीपावली
त्योहार समूह का दूसरा चरण छोटी दिवाली के रूप में मनाया
जाता है। इसे नरक चौदस भी कहते हैं। इस दिन सर्व प्रथम
सुगंधित द्रव्यों से बना उबटन मल कर स्नान किया जाता है। फिर
घर-घर से थाली पीट-पीट कर दरिद्र भगाने की आवाज़ें सुनाई देती
हैं। कुछ क्षेत्रों में इस दिन उड़द की दाल देने की प्रथा भी
है। ऐसी मान्यता है कि इसके द्वारा घर की बुरी शक्तियों को
भगाया जाता है। प्रारंभिक काल में नरक से बचने और यम को
प्रसन्न रखने के लिए यह पर्व मनाया जाता था। इस दिन सायंकाल कूड़े के ढेर पर दीपक जलाने का भी रिवाज़ है।
दीपावली के
अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन-पूजा का पर्व
श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। ब्रज प्रदेश में
गोवर्धन पूजा को दिवाली से भी अधिक महत्व दिया जाता है। इस
भूखंड के लोक जीवन में दीपावली की कल्पना एक दुल्हन के रूप
में की गई है जबकि गिरिराज गोवर्धन को वर मान कर कहा गया है-
"गिरिराज बन्यो दूल्हे और दुलहन दिबारी है।"
पौराणिक कथाओं
के अनुसार इस दिन यादव लोग वर्षा के देवता इंद्र की
पूजा-अर्चना करते थे। भगवान श्री कृष्ण ने ब्रजवासियों के
समक्ष नवीन चिंतन प्रस्तुत करते हुए कहा कि गिरिराज गोवर्धन
ही हमारे उपास्य देव होने चाहिए क्यों कि उनकी तलहटी में गोधन
पलता-बढ़ता है, उनसे हमें छाया और वनस्पति प्राप्त होती है।
अन्नकूट त्योहार वस्तुत: श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पूजा की
आवृत्ति है। इस दिन घरों के आँगन में गोबर से गोवर्धन की
मानवाकार आकृति बनाई जाती है और वृक्षावलि दर्शाने के लिए
रूई के फाहे लगी सीकें गाड़ दी जाती हैं। दूध, दही, बताशे और
खील से पूजा की जाती है। इस दिन लोग गाय-बैलों को नहला कर
उन्हें सजाते हैं और उनकी पूजा करते हैं। इस दिन गायों का
दूध नहीं दुहा जाता व लोग बैलों के ऊपर बोझा नहीं ढोते।
दीपावली पर्वों की शृंखला में अंतिम पर्व है यम द्वितीय अथवा
भाई दूज। पौराणिक आख्यान के अनुसार सूर्य की पत्नी संज्ञा से
'यम' नामक पुत्र तथा यमुना नामक पुत्री का जन्म हुआ। अपने
पति के तेज से अभिभूत संज्ञा ने छाया का रूप धारण कर उत्तरी
ध्रुव में रहना प्रारंभ किया क्यों कि वहाँ सूर्य के तेज का
प्रभाव काफ़ी कम था। यहाँ रहते हुए उनके शनिचर नामक पुत्र और
ताप्ती नामक पुत्री का जन्म हुआ। बाद में अश्विनी कुमार
उत्पन्न हुए। अपने ज्येष्ठ पुत्र और पुत्री से संज्ञा के
संबंध बिगड़ने लगे तो दुखी यम ने अपना अलग लोक बना कर मृतक
प्राणियों की व्यवस्था का कार्य भार सँभाल लिया और यमराज
कहलाए। यमुना अपना घर छोड़ कर भूलोक पहुँची और मथुरा को अपनी
गतिविधियों का केंद्र बनाया और विश्राम घाट पर निवास करने
लगी। कालांतर में जब यमराज को अपनी बहन की याद आई तो वह उसे
खोजते हुए मथुरा पहुँचे। लंबे अंतराल के बाद भाई को सामने
देख कर यमुना को अपार हर्ष हुआ और उसने भाई का बहुत आदर
सत्कार किया। कुछ देर यमराज ने वहाँ विश्राम किया और जाते
समय यह वरदान दे गए कि कार्तिक शुक्ल की द्वितीया के दिन जो
भाई अपनी बहन से स्नेह पूर्वक मिलेगा तथा उसके द्वारा परोसी
हुई खीर खाएगा उसकी आत्मा को मोक्ष प्राप्त होगा। इस प्रकार
भाई दूज का त्योहार भाई बहिन के स्नेह का प्रतीक है।
दो पर्व आगे
और दो पीछे लिए हुए मध्य में दीपावली का त्योहार भारतीय
संस्कृति का सबसे अधिक गरिमामय पर्व है। देश के हर भाग में
ही नहीं बल्कि विदेशों में भी यह त्योहार बहुत ही धूमधाम से
मनाया जाता है। दीपावली के प्रचलन के संबंध में हिंदू समाज
में अनेकानेक कथाओं का प्रचलन है परंतु सबसे अधिक प्रसिद्ध
कथा विष्णु पुराण की है जिसमें दुर्वास ऋषि के शाप से जब
देवता श्रीहीन हो गए तब भगवान विष्णु ने उन्हें दैत्यों से
मिल कर समुद्र मंथन करने का सुझाव दिया ताकि उसमें से
प्राप्त अमृतपान करके वे अमर हो सकें। योजनाबद्ध रूप से किए
गए सागर मंथन से चौदह रत्न प्राप्त हुए। कार्तिक अमावस्या के
दिन चौदह रत्नों में सर्वश्रेष्ठ रत्न लक्ष्मी का आविर्भाव
हुआ। लक्ष्मी के हिरण्यमय रूप को देख कर सभी चकित हो गए और
उन्हें वरण करने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करने लगे। परंतु
लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु का वरण किया। इस अवसर पर सबने
उत्साह पूर्वक उनका मिष्ठान से स्वागत किया और दीप माला करके
उनकी आराधना की। अथर्ववेद में यह उल्लेख है कि तब से ही
अमावस्या की रात्रि में इंद्र समस्त देवगणों के साथ एकत्र
होते हैं क्यों कि यह रात्रि धन देने वाली लक्ष्मी की रात्रि
मानी जाती है। तभी से ही कार्तिक अमावस्या को लक्ष्मी के
पूजन की परंपरा चली आ रही है।
साधारण भारतीय
की यह मान्यता है कि जब राम-रावण को पराजित कर वनवास की अवधि
समाप्त करके लौटे तो अयोध्या को दीपकों से जगमगा दिया गया
था। रघुवंश के राजपुरोहित महर्षि वसिष्ठ ने इसी दिन श्री राम
का राजतिलक किया था। नील मत पुराण के अनुसार दीपावली की
रात्रि को इसलिए सुखरात्रि नाम दिया गया क्यों कि इस दिन
देवता अभय प्राप्त करके चैन की नींद सोये थे। वाराह पुराण के
अनुसार इस दिन सूर्य तुला राशि में होने के कारण ही लक्ष्मी
जी निद्रा से जाग कर अपने भक्तों को आशीर्वाद देती हैं।
राजा हर्ष ने
इस आलोक पर्व का दीप प्रतिपदोत्सव के नाम से उल्लेख किया है।
सम्राट अशोक ने दिग्विजय का अभियान इसी दिन प्रारंभ किया था।
इस खुशी में दीपदान किया गया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के
अनुसार कार्तिक अमावस्या के अवसर पर मंदिरों और घाटों पर
बड़ी मात्रा में दीप जलाए जाते थे। आज के दिन ही सम्राट
विक्रमादित्य का राज तिलक हुआ और विक्रमी संवत का प्रारंभ
हुआ। इसीलिए आज भी भारतीय व्यापारी अपने व्यापार वर्ष का
पहला दिवस मानते हुए नए बही खाते लगाते हैं।
दीपोत्सव का
महत्व मुगल काल में भी कम नहीं था। जश्ने चिरागाँ का त्योहार
जहांदर शाह के युग में इतने व्यापक पैमाने पर मनाया जाता था
कि दीपक जलाने के लिए तेल तक मिलना कठिन हो जाता था। आइने
अकबरी में दीपोत्सव का उल्लेख है। अकबर दीपावली के दिन
दौलतखाने के सामने सबसे ऊँचे स्तंभ पर आकाश दीप टाँगते थे।
सिखों के दशम गुरु गोविंद सिंह जी को आज के दिन मुग़लों से
रिहाई मिली थी। इसी दिन गुरु अर्जुन देव ने अमृतसर में
स्वर्ण मंदिर की स्थापना की थी। स्वामी रामतीर्थ का जन्म आज
के दिन हुआ था और इसी दिन उन्होंने जल समाधि भी ली थी। आर्य
समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने आज के दिन ही
अपने जीवन का अंतिम श्वास लिया था। आर्य समाज में इस दिवस का
काफ़ी महत्व है। वेदांत के प्रचारक स्वामी रामतीर्थ भी इसी
दिन धरा पर अवतरित हुए थे और इसी दिन उन्होंने अपना शरीर
त्यागा था।
भगवान महावीर
का निर्वाण दिवस होने के कारण जैन मत के अनुयायी कार्तिक
अमावस्या को अत्यंत पावन दिवस मनाते हैं। जैन धर्म मानने
वालों का मत है कि भगवान महावीर मोक्ष प्राप्त करके जब
स्वर्ग पहुँचे तो देवताओं ने दीप मालाएँ जला कर उनका स्वागत
किया। कल्प सूत्र में कहा गया है कि वीर निर्वाण के साथ जो
अंतर्ज्योति सदा के लिए बुझ गई उसकी क्षतिपूर्ति के लिए
बाह्यज्योति के प्रतीक दीप जलाए जाएँ। बौद्ध धर्म के
प्रवर्तक गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम
बुद्ध के स्वागत में लाखों दीप जला कर दीपावली मनाई थी।
दीपावली मनाने के कारण कुछ भी रहे हों परंतु यह निश्चित है
कि यह वस्तुत: दीपोत्सव है।
दीपों की ही
भाँति दिवाली आतिशबाजी और मिठाइयों का भी त्योहार है। अनुमान
है कि वैदिक काल में यह नई फसल का त्योहार रहा होगा। शरदकाल
में फसल की कटाई के पश्चात नवधान्येष्टि हुआ करती थी।
लक्ष्मी पूजन में नये धान्य की खील और बताशे आदि उसी वैदिक
परंपरा के लगते हैं। आज लाखों करोड़ों रुपए की मिठाई का
आदान-प्रदान भी बताशों द्वारा मुँह मीठा करवाने की परंपरा का
विकसित और आडंबरपूर्ण रूप है। यह भी कहा जाता है कि थाली और
छाज पीट-पीट कर लक्ष्मी की बहिन दरिद्रता को भगाने की परंपरा
ने ही शायद पटाखे का रूप लिया होगा। पटाखे जहाँ तेज़ आवाज़
करते हैं वहीं अपनी रोशनी से मन को लुभाते भी हैं। आतिशबाजी
की यह परंपरा भी अब मात्र समृद्धि दिखाने का साधन बनती जा
रही है। एक अनुमान के अनुसार केवल दिवाली मनाने के लिए एक ही
रात्रि में भारत वर्ष में 50 करोड़ रुपए की आतिशबाजी की जाती
है। भले ही आतिशबाजी महमूद गजनवी के साथ भारत आई हो अथवा चीन
से पर इतना निश्चित है कि बारूद जला कर प्राचीन काल से
प्रसन्नता व्यक्त करने का रिवाज़ अपने देश में रहा है।
ऋग्वेद में इसे अग्नि क्रीड़ा कहा गया है।
आज दिवाली
कृत्रिम रोशनी, भारी भरकम पटाखों, जुआ खेलने के विभिन्न
साधनों और महँगी से महँगी वस्तुओं के आदान प्रदान का त्योहार
बनता जा रहा है। त्योहार में आध्यात्मिकता और सामाजिकता की
भावना का अभाव सर्वत्र दिखाई देता है। अपनी चमक-दमक,
तड़क-भड़क और दिखावे के कारण भारत का यह महान पर्व मात्र
औपचारिकता बनता जा रहा है। इस ओर भारतीय मनीषियों, धार्मिक
नेताओं और समाजशास्त्रियों को तुरंत ध्यान देना चाहिए ताकि
इस त्योहार की वास्तविक आत्मा सुरक्षित रह सके।
१६ अक्तूबर
२००७ |