मुझे त्रिनिदाद की
दीपावली याद आ रही है जहाँ इस दिन उपवास रखा जाता है।
अमेरिकी संस्कृति के समुद्र से घिरे उस देश में एक सौ
साठ वर्षों से भारतीय संस्कृति को अपने सीने से चिपकाए
ये लोग किस उजाले की आशा में उपवास रखते हैं जबकि भारत
में हम इस दिन 'खाओ पिओ` मस्त रहो' की मुद्रा में रहते
हैं। वहाँ लक्ष्मी पूजन के साथ गणेश पूजन की परंपरा
नहीं है। परंपरा कैसी भी हो लक्ष्य तो जीवन के अंधेरे
से लड़ना है...अब वो चाहे अस्मिता का अँधेरा हो या फिर
उजला अंधेरा जो हमारे संबंधों को लील रहा है।
मैं अपने चारों ओर से
अपने आपको एक अजब तरह के अँधेरे से घिरा पा रहा हूँ,
एक ऐसा अँधेरा जो उजाले की शक्ल लेकर आया है और उजाला
हमें छल रहा है। ऐसे में कवि कन्हैयालाल नंदन की
पंक्तियाँ याद आ रही है जिसमें वे कहते है-
'उजालों ने कुछ इस तरह छला कि अँधेरों से प्यार हो
गया।'`
यह प्यार घोर निराशा
से उत्पन विवशता का अहसास है जो रिश्तों की खटास तथा
बेरुखी से पैदा होता है। हम जैसे-जैसे भौतिक प्रगति के
उजाले से घिरते जा रहे हैं वैसे अजनबी पन के सुरमई
अँधेरे के मोह पाश में बंधते जा रहे हैं। समाज के जीवन
में वे क्षण बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं जब उसके
उजले हिस्से अँधेरे को अपना सत्य मान उसका आकार ग्रहण
करने को लालायित दिखने लगते हैं।
उजाले की तरह आज हमने
अँधेरे भी बांट लिए हैं और यही कारण है कि हम
अपने-अपने अंधेरों से अकेले ही लड़ रहे हैं। ये हमारे
'सद्प्रयत्नों` का फल है कि हम अपने अँधेरे को मिटता
देख उतना प्रसन्न नहीं होते हैं जितना दूसरे के अँधेरे
को और गहराता देखकर प्रसन्न होते हैं। पिछले लगभग एक
दशक से महानगरीय जीवन में (कस्बों और गाँवों में भी
इसका वायरस पहुँच गया है) पहले मोहल्ला गायब हुआ फिर
संयुक्त परिवार और अब इसकी छाया पति-पत्नी के रिश्तों
पर पड़ने लगी है। हम अपने में मस्त होकर अकेलेपन के
आदी होते जा रहे हैं। अकेलेपन के इस अँधेरे में बच्चों
का बचपन गायब हुआ है, युवाओं का युवामन और बुजुर्गों
की सुरक्षा ग़ायब हुई है। युवाओं के पास बहुराष्ट्रीय
कंपनियों के प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए पूरा` समय
है पर अपनी संतान के लिए नहीं (माता-पिता तो किसी खेत
की मूली हैं अत:....)क्यों कि संतान नहीं जानती कि समय
धन है और उसको धन ही ख़रीद सकता है। हम स्वयं अकेलेपन
की यांत्रिक ज़िंदगी जी रहे हैं और साथ ही भविष्य की
पीढ़ी के लिए भी वही माहौल तैयार कर रहे हैं। अकेलेपन
का अंधेरा धीरे-धीरे गहराता जा रहा है और हम उसे उजाला
मान उसका अपने जीवन में स्वागत कर रहे हैं। अंधेरा
बहुत चालाक हो गया है और वह उजाले का बुरका पहन कर
सामने आता है। वह लोहे को लोहा काटता है के सिद्धांत
पर अपने हथियारों का सदुपयोग करता है और विश्व को विवश
कर देता है कि वह अँधेरे को ही उजाला माने। (हाथ कंगन
को आरसी क्या और पढ़े लिखे को इराक और अफ़गानिस्तान
क्या?)
अंधेरा मिटता नहीं बस
उसका स्थानांतरण हो जाता है। चाहे पुलिस थाना हो, चाहे
नौकरशाही, चाहे संसद हो और चाहे न्याय का मैदान, आप
अंधेरा होने की शिकायत करके देखिए कि कैसे अँधेरे का
स्थानांतरण होता है। अंधेरा बहुत चतुर होता है, जब वो
देखता है कि उजाले से लड़ना संभव नहीं, मिटने का डर है
तो वह 'सादर' सिंहासन खाली कर देता है और उजाले के
कमज़ोर होने की प्रतीक्षा करने लगता है। वरना क्या
कारण है कि बार-बार धर्म की हानि होती है और बार-बार
प्रभु को अवतार लेना पड़ता है? प्रभु का एक बार अवतार
लेने से काम नहीं चलता है।
मैं महान नहीं हूँ
अत: महान वायवीय दावे नहीं कर पाता हूँ। मेरी सोच बहुत
ही संकुचित है जो बस अपने आस-पास के वातावरण तक सीमित
रहती है। मैं तो गिलहरी की तरह एक बूँद अंधेरा हटाकर
विशाल प्रकाश-पुंज का लघुतम कण बनना चाहता हूँ। मैं
अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए अंधेरा मिटाने की नौटंकी
नहीं कर सकता, मैं तो अपनी क्षमता अनुसार (कुछ अधिक
भी) प्रयत्न कर सकता हूँ कि मानवीय मूल्यों और संबंधों
की टी.आर.पी. न गिरे। हम अपने छोटे-छोटे दीपक ही चाहे
जलाएं पर उसके प्रकाश को छनकर बाहर जाने से न रोकें और
एक प्रकाशपुंज का हिस्सा बनकर अँधेरे का स्थानांतरण
करने के स्थान पर उसे समाप्त करने का सार्थक प्रयत्न
करें।
क्या
कभी सोचा है कि घनघोर अँधेरे से लड़ना आसान हो जाता है
पर घनघोर उजाले का भ्रम देने वाले उजाले से लड़ना
कठिनतर? उजाला अँधेरे से लड़ता है या अंधेरा उजाले से
लड़ता है? किस सत्ता की प्राप्ति के लिए लाखों वर्षों
से यह लड़ाई जारी है? इस लड़ाई का कोई अंत है अथवा ये
समाप्त होने का भ्रम पैदा कर ये पुन: आरंभ हो जाती है,
बस मुखौटे बदल जाते हैं। राम-रावण युद्ध निंरतर है बस
मुखौटा बदल जाता है। इतने सारे सवालों के बीच, उजाला
एक विश्वास है जो अँधेरे के किसी भी रूप के विरुद्ध
संघर्ष का बिगुल बजाने को तत्पर रहता है। ये हममें
साहस और निडरता भरता है।
1 नवंबर
2007 |