हास्य व्यंग्य

दीपक से साक्षात्कार 
—अनूप कुमार शुक्ल  


जब से बिजली से जगमगाने वाली सजावटी लड़ियों का आगमन हुआ है दिवाली के दीपक की लोकप्रियता पर प्रश्न चिह्न लगने लगे हैं। एक दिन था जब दीपावली की आवली में सिर्फ़ मिट्टी के बने दीपकों की जगमगाहट होती थी। दीवाली में कुम्हार वैसे ही व्यस्त हो जाते थे जैसे चुनाव में नेता, वर्षांत में चार्टेड एकाउंटेंट या परीक्षा में विद्यार्थी। उनके भाव बढ़ जाते, वे बेभाव कमाते। वक्त का तकाज़ा, आज वे बेभाव हो गए। दीपक को मोमबत्तियों ने और मोमबत्तियों को बिजली की झालरों ने अपदस्थ कर दिया। कुम्हारों का तो जो हुआ सो हुआ दीपक का क्या हुआ होगा. . .

हम यह सब सोच ही रहे थे कि हमारे दोस्त मिर्ज़ा कमरे में किसी वायरस की तरह घुसे। राकेट की तरह लहराते हुए कमरे की कक्षा में स्थापित हुए और चटाई बम की तरह तड़कने लगे। घर में रोशनी के अनार फूटने लगे। मिर्ज़ा चकरघिन्नी की तरह नाचकर सबसे मिले। बच्चों को पुचकारा, चाय का फ़रमाइशी आर्डर उछाला और हमारी पीठ पर धौल जमाते हुए कंदील की तरह मुस्करा कर बोले, "मिया क्या चेहरे पर मुहर्रम सजाए हो, कौन तुम्हारी कप्तानी छिन गई है जो गांगुली बने बैठे हो?"

हमने अपने दीवाली चिंतन से उन्हें अवगत कराया। मिर्ज़ा ईद के चाँद की तरह रोशन हो गए। अचानक चाय का आख़िरी घूँट लेकर बोले– बरखुरदार मन का चिराग़ रौशन कर लो। चलो आज किसी दीए का इंटरव्यू लेते हैं। देखें जो रोशनी देता है, वो कैसा महसूस करता है।
हमारी सहमति–असहमति को तवज्जो दिए बग़ैर मिर्ज़ा हमको टाँग के वैसे ही चल दिए जैसे अमेरिका ब्रिटेन के साथ चलता है। रास्ते में एक पेशेवर साक्षात्कार सेवा कंपनी से एक इंटरव्यू लेने वाली सुंदरी को साथ ले लिया। वह तुरंत अपने नाज़–नखरे, लिपिस्टक, पाउडर, अल्हड़ता, चश्मा, अदायें और माइक समेट कर साथ चल दी।

हम इंटरव्यू लेने लायक दीये की खोज में भटकने लगे। जिस मुस्तैदी से विकसित देश आतंकवादी खोजते हैं या बेरोज़गार रोज़गार टटोलते हैं या फिर जवान लड़की का बाप अपनी कन्या हेतु वर खोजता है उसी तन्मयता से हम नए–पुराने, समूचे–टूटे, छोटे–बड़े दीये की खोज में थे। हर भूरी गोल दिखती चीज़ पर साथ की महिला माइक अड़ा देती – क्या आप दीपक जी हैं?

सारे रास्ते पालीथीन, प्लास्टिक पाउच और पार्थेनियम गाजर घास से पटे पड़े थे। उत्साही पालीथीन के टुकड़े उड़न तस्तरियों से कूड़े के ढेरों की परिक्रमा कर रहे थे। कूड़े के ढेर के ये उपग्रह आपस में टकरा भी रहे थे, गिरकर फिर उड़ रहे थे। गाजर घास विदेशी पूँजी-सी चहक रही थी। जितना उखाड़ो उतना फैल रही थी। साँस लेना मुश्किल। लेकिन हम इन आकर्षणों के चक्कर में पड़े बिना दीपक की खोज में लगे थे। हमें नई दुनिया की खोज में कोलंबस के कष्ट का अहसास हो रहा था। सब कुछ दिख रहा था। गोबर के ढ़ेरपान की पीक, सड़क पर गायों की संसद कीचड़ में सुअरों की सभा केवल दिया नदारद था– नौकरशाही में ईमानदारी की तरह।

अचानक मिर्ज़ा के चेहरे पर यूरेका छा गया। वे एक नाली के किनारे कूड़े के ढ़ेर में दीये को खोजने में कामयाब हो गए। इंटरव्यू–कन्या को इशारा किया। कन्या मुस्कराई। अपना तथा माइक का टेप आन किया। बोली– दीपक जी आप कैसे हैं? आई मीन हाऊ आर यू मिस्टर लैंप? उधर से कोई आवाज़ नहीं आई। सुंदरी मुस्कराई, कसमसाई, सकुचाई, किंचित झल्लाई फिर सवाल दोहराया गया – आप कैसे हैं? क्या आप मेरी आवाज़ सुन पा रहे हैं दीपक जी?
जवाब नदारद। कन्या आदतन बोली– लगता है दीपक जी से हमारा संपर्क नहीं हो पा रहा है।

इस बीच मिर्ज़ा पास के पंचर बनाने वाले को पकड़ लाए जो कि पहले बर्तन बनाता था। और दीपक तथा कन्या के बीच वार्ता अनुवाद का काम पंचर बनाने वाले को सौंप दिया। इस आउटसोर्सिंग के बाद इंटरव्यू का व्यापार धड़ल्ले से चलने लगा। कन्या दीपक को कालर माइक पहले ही पहना चुकी थी।

सवाल : दीपक जी आप कैसे हैं? कैसा महसूस कर रहे हैं?
जवाब : हमारी हालत उस सरकार की तरह है जिसका तख़्ता पलट गया हो। मैं पहले पूजा गया। फिर महीनों रोशनी देता रहा। आज घूरे पर पड़ा हूँ। कैसा महसूस कर सकता है कोई ऐसे में। मेरी हालत ओल्ड होम में अपने दिन गिनते बुजुर्गों–सी हो गई है।

सवाल : आप यहाँ कब से पड़े हैं? मेरा मतलब कब से यहाँ रह रहे हैं?
जवाब : अब हमारे पास कोई घड़ी या कैलेंडर तो है नहीं जो बता सकें कि कब से पड़े हैं यहाँ। लेकिन यहाँ आने से पहले मैं सामने की नाली में पड़ा था। हमारे ऊपर पड़े तमाम कूड़े–कचरे के कारण नाली जाम हो गई तो लोगों ने चंदा करके उसको साफ़ कराया तथा मुझे कूड़े समेत यहाँ पटक दिया गया। तब से यहीं पड़ा हूँ।

सवाल : आप पालीथीन, पार्थेनियम वगैरह के साथ कैसा महसूस करते हैं? डर नहीं लगता आपको अकेले यहाँ इनके बीच?
जवाब : यहाँ तो सब कुछ कूड़ा है। यहाँ कूड़े में जातिवाद, संप्रदायवाद तो है नहीं जो किसी से डर लगे। लेकिन हमारा पालीथीन का क्या मेल? हमें कोई ठोकर मारेगा हम ख़तम हो जाएँगे। वे बहुतों को ख़तम करके तब जाएँगी। ये जो बगल की पालीथीन देख रहीं हैं ये तीन गायों को, उनके पेट में घुस कर निपटा चुकी है।

सवाल : आपकी इस दुर्दशा के लिए कौन ज़िम्मेदार है?
जवाब : माफ़ करें, इस बारे में हमारी और मिट्टी के दूसरे उत्पादों की दुर्दशा के संबंध में एक जनहित याचिका पाँच साल से विचाराधीन है इसलिए इस बारे में मैं कुछ नहीं बता पाऊँगा।

सवाल : आप में और उद्घाटन के दीये में क्या अंतर होता है?
जवाब : वही जो एक नेता और आम आदमी में होता है। जैसे आम जनता का प्रतिनिधि होते हुए भी नेता आम जनता के कष्टों से ऊपर होता है वैसे ही उद्घाटन का दिया दिया होते हुए भी हमेशा चमकता रहता है। उसे तेल की कोई कमी नहीं होती। उसके कंधों पर अंधेरे को भगाने का दायित्व नहीं होता। वह रोशनी में रोशनी का झंडा फहराता है। हमारी तरह अंधेरे से नहीं लड़ता। हम अगर आम हैं तो वह ख़ास।

सवाल : दीपावली पर आप दीये लोग कैसा महसूस करते हैं?
जवाब : इस दिन हमारी पूछ चुनाव के समय में स्वयंसेवकों की तरह बढ़ जाती है। हमें भी लगता है कि हम अंधेरे को खदेड़कर दुनिया को रोशन कर रहे हैं। यह खुशनुमा अहसास मन में गुदगुदी पैदा करता है। वैसे हम सदियों से रोशनी बाँटते रहे यह कहते हुए :
जो सुमन बीहड़ों में, वन में खिलते हैं
वे माली के मोहताज नहीं होते,
जो दीप उम्र भर जलते है
वे दीवाली के मोहताज नहीं होते।

सवाल : आजकल आप लोगों की संख्या इतनी कम कैसे हो गई? क्या आप लोग भी परिवार नियोजन अपना रहे हैं?
जवाब : तमाम कारण हैं। कटिया की बिजली की सहज उपलब्धता ने तथा तेल की कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी ने हमें उसी तरह बाहर कर दिया है जिस तरह विकसित देश की कंपनियाँ अपने कर्मचारियों को 'ले आफ़' कर देती हैं। लेकिन आप लोगों ने जो भी किया हो अंधेरे के डर से हमें जब भी याद किया गया हम कभी अपने काम से नहीं चूके।

सवाल : जवाब शायद और चलते लेकिन तेज़ हवा के कारण दिया कूड़े से सरककर गहरी नाली में जा गिरा। वहाँ तक माइक का तार नहीं पहुँच पा रहा था।

सुंदरी का समय भी हो चुका था। थैंक्यू कहकर उसने अपनी मुस्कराहट व माइक दोनों को एक साथ समेट लिया।
हम वापस लौट पड़े। मिर्ज़ा कुछ उदासी के पाले में पहुँचकर मेराज़ फैज़ाबादी का शेर दोहरा रहे थे :
चाँद से कह दो अभी मत निकल,
ईद के लिए तैयार नहीं हैं हम लोग।

लेकिन घर पहुँचते ही पटाखे छुड़ाते बच्चों को देखते ही मिर्ज़ा उदासी को धूल की तरह झटककर कब फुलझड़ी की तरह चमकने लगे पता ही न चला।

1 नवंबर 2005