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फुलवारी

रघु और मैं
- नीलिमा सिंह


दीवाली की रात थी। सारे मुहल्ले में रंग-बिरंगी बत्तियां झिलमिल-झिलमिल कर रही थीं। मैं अपनी छत पर खड़ा देख रहा था। वह दृश्य मेरे मन को मुग्ध कर रहा था।

सामने वाला घर तेल के दीयों और मोमबत्तियों के प्रकाश से जगमगा रहा था। उसके छज्जे पर खड़ा लड़का एक के बाद एक पटाखे छोड़ता जा रहा था। उसने अनार जलाया जिससे रंग-बिरंगा फव्वारा फूट पड़ा। फिर एक रॉकेट छोड़ा। वह आवाज करता हुआ सर्र से ऊपर उड़ा। वह बहुत ऊँचाई पर जाकर आकाश में फटा तो उसमें से रंग-बिरंगे तारे निकलकर चारों ओर फैल गए।

मैं भी रॉकेट छोड़ना चाहता था। मैं भी अनार जलाना चाहता था और चमकती हुई फुलझड़ी को हाथ में लेने को उत्सुक था। मैं ललचाए मन से उसकी ओर देख रहा था कि उसने मुझे अपनी ओर घूरते हुए देख लिया।

"तुम भी पटाखे चलाओगे?" उसके पूछते ही मैंने हाँ में सिर हिलाया।

उसने एक पुराने कागज में कुछ लपेटा और मेरी ओर फेंक दिया। उसमें कई तरह के पटाखे और एक माचिस की डिब्बी थी। मैंने एक के बाद एक पटाखे छोड़ने शुरू कर दिए। बड़ा मजा आ रहा था।

"तुम्हारा नाम क्या है?" लड़के ने पूछा।
"अशरफ।"
"मेरा नाम रघु है," उसने कहा और इस प्रकार रघु और मै मित्र बन गए।

हम पड़ोसी थे। आमने-सामने के घरों में रहते थे। बस एक गली बीच में थी। न जाने क्यों, हमारे माता-पिता कभी आपस में नहीं मिलते थे। शायद एक-दूसरे को जानते भी न हों। लेकिन हमारी मित्रता दिन पर दिन गहरी होती जा रही थी। दोपहर को जब दोनों घरों में माता-पिता आराम करते, हम दोनों गुल्ली-डंडा, कंचे खेल रहे होते। यह हमारा रोज का नियम बन गया था।

रघु को मिठाई बहुत पसन्द थी। जब ईद आयी तो मैंने उसे बताया कि मेरी अम्मी बहुत स्वादिष्ट सेंवई बनाती हैं। सेंवई में डाले गये बादाम, किशमिश और ऊपर से लगाये चाँदी के वर्क से सजे होने की बात सुनकर उसके मुँह में पानी भर आया।

"तुम सेंवई खाने अवश्य आना," मैंने रघु को आमंत्रित किया।
"लेकिन आऊंगा कैसे? अम्मा आने नहीं देगी," रघु बोला।
"अपनी अम्मा को मत बताना बस।" वह मान गया।

ईद के दिन नया रेशमी कुरता और कसीदा कढ़ी हुई टोपी पहन कर मैं चमक रहा था। ये दोनों चीजें अब्बा कश्मीर से आज के दिन पहनने के लिए ही लाए थे। मैं अपनी सजधज रघु को दिखाने के लिए बेचैन था।

दोपहर में घंटी बजते ही मैंने लपक कर द्वार खोला। रघु था। अम्मी रसोई में अपनी सहेलियों के साथ व्यस्त थीं। उनकी एक सहेली ने पूछा, "कोन है?" तो मैंने तपाक से उत्तर दिया, "रघु।"
"वही रघु जो हमारे घर के सामने रहता है।
"अच्छा उन सामने वालों का लड़का है। लेकिन हमारा उनसे क्या वास्ता। उसे कहो कि वह चला जाये, "अम्मी की सहेली ने कहा।
"लेकिन क्यों?"
"बहस मत करो। जो कहा है, करो।"

इससे पहले कि मैं कुछ कहता, रघु मुड़कर आगे बढ़ गया। अम्मी की पुकार को अनसुनी करते हुए मैं उसके पीछे दौड़ा। "सुनो, मैं तुम्हारे लिए सेंवई ला रहा हूँ।"
"मुझे नहीं चाहिए, " उसने कहा।

मैं उसे जाने नहीं देना चाहता था। मैंने लपक कर उसको पकड़ लिया।
"मगर मैं चाहता हूँ कि तुम खाओ। ऐसा करो तुम स्टेशन के सामने वाले पार्क में आ जाओ। हम वहीं मिलेंगे और दोनों सेंवई खायेंगे।"
"तुम बहुत जिद्दी हो, अशरफ, " हँसते हुए रघु ने कहा।

मैंने अपने स्कूल के टिफिन बॉक्स में सेंवई भरीं और पार्क में जा पहुँचा। हम दोनों ने खूब चटखारे ले लेकर सेंवईं खाई। देखते ही देखते टिफिन बिलकुल साफ हो गया।

"मुझे समझ नहीं आता कि हमारे परिवार एक-दूसरे से बात क्यों नहीं करते?" रघु ने चिन्तित स्वर में पूछा।
"मुझे लगता है कोई पुराना झगड़ा है, मुगल काल के जमाने से ही हमारे पूर्वज यहाँ रहते आ रहे हैं।" "हमारे भी। वे यहाँ गदर के समय से हैं।"
"इतनी पुरानी शत्रुता बनाये रखना क्या मूर्खता नहीं है?"
"हाँ, है तो।"

इतने में हमारा ध्यान शोर से भंग हुआ। जहाँ से आवाज आ रही थी वहाँ पर भीड़ जमा थी। सफेद धोती, कुरता और टोपी पहने एक आदमी भाषण दे रहा था। तभी उसने गुस्से से मुक्का दिखाया, जिससे भीड़ ताली बजाने लगी। भाषण जैसे-जैसे जोर पकड़ता जा रहा था, भीड़ में भी उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। भाषण खतम होते ही भीड़ उस आदमी के पीछे चल पड़ी।
"वे किधर जा रहे है?" हम दोनों एक साथ चिल्ला उठे।

रास्ता चलते एक व्यक्ति ने चेतावनी-सी दी, "ऐ बच्चे घर भाग जाओ। यह उत्तेजित भीड़ अवश्य ही कुछ हंगामा करेगी।" हम फौरन उठे और घर की ओर भागने लगे। भीड़ को उधर ही आते हुए देखकर हमें घबराहट होने लगी। हमने रास्ता काटकर पगडंडी पकड़ी ताकि भीड़ से पहले अपनी गली में पहुँच जाएं।

दुकानदार जल्दी-जल्दी दुकानें बन्द कर रहे थे। औरतें अपने-अपने बच्चों को पुकार रहीं थीं। गली में एकदम सन्नाटा छा गया था। बस हम दोनों ही वहाँ रह गए थे।

"अशरफ," रघु ने मुझे रोकते हुए कहा, "भीड़ थोड़ी देर में इधर आ जायेगी। ऐसा लग रहा है कि वे लोग लूटपाट करना चाहते हैं। हमें उन्हें आगे बढ़ने से रोकना होगा।"
"तुम पागल हो गए हो? वे क्या तुम्हारी बात सुनेंगे? मैंने चिल्लाते हुए पूछा।
"उन्हें सुननी ही पड़ेगी हमारी बात" रघु ने दृढ़ता से कहा। "उन्हें समझना पड़ेगा। जब हम दोनों बच्चे होकर भी मिलकर दीवाली और ईद मना सकते हैं तो वे बड़े और समझदार होकर भी हमारी तरह दोस्त क्यों नहीं बन सकते।"

रघु ने कसकर मेरा हाथ पकड़ा और मुझे ले चला और जाकर गली के मोड़ पर खड़ा हो गया। मुझे डरता देख उसने पूछा, "क्यों अशरफ तुमने गांधी फिल्म देखी थी न?"
"हाँ। पर..."
"बापू कभी नहीं डरे थे। तब भी नहीं जब उन पर लाठियां बरस रही थीं।"

जब भीड़ हमारे करीब आई तो हम एक-दूसरे का हाथ पकड़कर खड़े हो गये। हम चिल्लाये। भीड़ एकाएक अचकचा कर रूक गई।

"बच्चो! रास्ता छोड़ दो," उनका नेता गुर्राया। औरों ने भी हमें धमकाते हुए रास्ता छोड़ने और मार्ग से हटने को कहा।

हमने भी उसी तरह पूरा जोर लगाकर और चिल्लाकर कहा, "इस गली में हमारे घर हैं। हम तुम्हें अन्दर नहीं घुसने देंगे।"
"क्या, ये गुस्ताखी?"

हमने पत्थर उठा लिए और चिल्लाये, "चले जाओ यहाँ से, इससे पहले कि हम तुम्हें मारें।"

उनके नेता ने आगे बढ़कर पूछा, "क्या बात है? तुम हमें क्यों रोक रहे हो? हमें आगे बढ़ने दो।"
"नहीं, कभी नहीं।" हमने दृढ़तापूर्वक कहा।

अचानक एक गुण्डे किस्म के नौजवान ने रघु को जोर से धक्का दिया। वह मुँह के बल धरती पर जा गिरा। उसका सिर एक पत्थर से टकराया और माथे से खून बहने लगा। नेता ने उसे उठाया और पूछा, "चोट लगी है न? तुम्हारा नाम क्या है?"

रघु की चोट देखकर मैं आग बबूला हो गया। रघु उसकी बात का उत्तर देता इससे पहले ही मैं उस पर झपटा और दोनों हाथों से उसपर घूँसे बरसाने लगा। और घूँसे मारते-मारते उसकी बात का उत्तर देने लगा, "यह रघु है, मेरा मित्र। और मेरा नाम है अशरफ। हम दोनों इस गली में रहते हैं। और हम तुम्हें इस गली में कोई उत्पात नहीं मचाने देंगे।"

यह कहते हुए मुझे लग रहा था कि पूरी भीड़ मुझ पर टूट पड़ेगी। लेकिन भीड़ मूर्तिवत खड़ी थी। उनका नेता बुदबुदाया, "रघु और अशरफ!" फिर भीड़ की ओर मुड़कर बोला, "जब ये दोनों दोस्त हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं हो सकते? चलो, सब लोग अपने-अपने घरों को लौट जाओ। मैं जा रहा हूँ इन दोनों के माता-पिता के पास यह बताने कि कितने बहादुर और बुद्धिमान हैं, उनके ये दोनों बच्चे।"
१ नवंबर २००१

  
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