कार्तिक हे सखी पुण्य महीना
-मृदुला सिन्हा
'कार्तिक हे सखी
पुण्य महीना सब सखी गंगा स्नान हे,
सब सखि पहिरे राम पाट पटंबर हम धनि लुगरी
पुरान।'
मिथिलांचल क्षेत्र में गाए जानेवाले बारहमासा
की कुछ पंक्तियाँ हैं। ये पंक्तियाँ कार्तिक
मास में विरहिणी नारी के मन का वर्णन करती
हैं। परंतु कार्तिक मास की यह पहचान विरहिणी
नारी के मन की है। जिनके पिया परदेश हैं, वे
नारियों भी कार्तिक मास को पुण्य मास तो मानती
हैं, परंतु उनका हृदय इस मास में भी
पिया-वियोग में विदीर्ण होता है।
उनकी सभी सखियाँ पाट पटंबर पहन रही हैं, सज-धज
रही हैं, लेकिन उनके पास कुछ नहीं, इसलिए
उन्होंने पुरानी फटी-पिटी साड़ी पहनी हैं।
उन्होंने सावन, भादों और आश्विन महीने में ऐसे
कपड़े पहन लिये, पर कार्तिक मास में उन्हें ये
कपड़े मंज़ूर नहीं।
कार्तिक मास के पूर्व आश्विन मास आता है और
इसी के दूसरे पखवाड़े में देवी पूजा प्रारंभ
होती है। देवी अर्चना-वंदना से लोगों के मन
में बदलाव आना प्रारंभ हो जाता है -
बार अइली हे जगदंबा घर दीयरा
जराय अइली हे जग-तारण घर दीयरा।
जगदंबा के घर में दीया जलाकर मन को संतोष होता
है, परंतु दीया जलाते समय ये महिलाएँ देवी की
वेशभूषा भी निरखती हैं -
अइली शरण में तोहार हे जग-तारण मैया
लाली कोठलिया के लाले दरवजवा
लाले चौखटवा तोहार हे जग-तारण मैया!
लाले-लाले ओठ पर लाली विराजे
लाले है अभरण तोहार हे जग-तारण मैया
मांगीले अंचरा पसार हे जग-तारण मैया!
देवी के शृंगार का वर्णन करतीं, उसे अपनी
आंखों में बैठाती ललनाएँ अपने लिए देवी से
सुख-समृद्धि मांगना नहीं भूलतीं। आंचल पसारकर
माँगती हैं।
आश्विन मास के बाद कार्तिक मास का प्रारंभ
होता है। व्रत-त्योहारों से भरा है यह माह।
गंगा मैया के सेवन के लिए चल पड़ते हैं
ग्रामीण लोग। गंगा के घाट पर पूरे मास रहते
हैं, गंगास्नान करते हैं। बच्चे के जन्म पर
सोहर गाने का रिवाज है। एक सोहर के बोल हैं -
मचिया बैठल सासुजी बालक मुख निरखले
बहूजी कौन-कौन व्रत कइली बालक बड़ा सुंदर।
सास अपने पोते का मुख निरखकर बहू से पूछती है
कि उसने कौन-कौन से व्रत किए। गर्भवती औरत की
मानसिक स्थिति का सीधा असर बच्चे पर पड़ता है।
इसलिए गर्भवती औरत के द्वारा भी व्रत-त्योहार
करने का विधान बनाया गया। बहू का उत्तर है -
कार्तिक मास गंगा नहइली, सूरज गोर लागली हे
सासु व्रत कइली इतवार, बालक बड़ा सुंदर।
कार्तिक मास में गंगास्नान किया। प्रतिदिन
सूरज को प्रणाम किया और इतवार का व्रत किया।
सोहर की इन पंक्तियों से भी लोक-शिक्षण होता
था कि गर्भवती औरत को क्या खाना चाहिए, कैसा
व्रत करना चाहिए। निश्चितरूपेण सूर्य की रोशनी
गर्भवती औरत के शरीर पर पड़ना आवश्यक है।
कार्तिक मास का गंगास्नान भी गर्भवती औरत के
स्वास्थ्य के अनुकूल होगा, तभी इस भाव को गीत
में पंक्तिबद्ध किया गया।
सावन-भादों की वर्षा और बाढ़ की विभीषिका से
लोग तबाह हो जाते हैं। घर गिर जाते हैं।
कार्तिक मास में छप्पर छवाने का भी विधान है।
पूरा दरवाजा भरना, लीपना-पोतना, नए फूल-पौधे
लगाना और लक्ष्मी-पूजा की तैयारी करना।
अमावस्या तिथि को आनेवाली दीवाली के एक दिन
पूर्व मानो उसका अभ्यास शुरू होता है। दीवाली
के पहले दिन यम का दीप निकाला जाता है। एक ही
दीप में सात प्रकार के अन्न के दाने और तेल
डालकर जलाया जाता है। उसे घर के पीछे कूड़े के
ढेर पर जलाया जाता है -
कार्तिक मास सखि आई दिवारी
कर दिवला लेसहिं नर-नारी
मेरी अयोध्या पड़ी अंधियारी
करौं मैं कैसे दिवारी।
राम का वनवास होता हैं। अयोध्या नगरी सूनी हो
जाती है। इसलिए लोकगीतों में भी राम के विरह
में अयोध्या अंधेरी रहती है -
हमरा राम-लखन दूनू भैया के वन में
के भेजल गे माई,
राम बिना मोर सून्न अयोध्या,
लछमन बिना ठकुराई,
सीता बिना मोर सुन्न रसोइया
के मोर भोजना बनाई।
जब अयोध्या, ठकुराई और रसोई ही सूनी है तो
दीवाली का सवाल कहाँ उठता है। पर उनके मन में
आशा है राम के अयोध्या लौटने की। इसलिए बड़े
विश्वास के साथ वे गाते हैं -
सखियन सब जोहेलीं बाट
कब राम अयोध्या अइहें,
अइहें राम अयोध्या अइहें
सुतल धरती के प्रज्ञा जगइहें।
अयोध्या नगरी के लोगों का यह विश्वास था, आशा
थी। राम अयोध्या आ गए और इसलिए सब सुहावन लग
रहा है। दीवाली मन रही है। भोजपुरी लोकगीत की
पंक्तियाँ हैं -
दीप सुंदर सुहावन सुंदर लागि हे
एहो दीवाली के दिन है
राजा रामचंद्र अयोध्या अइले
सेहो दिन भइले दीवाली हे
सेहो दिन लक्ष्मी के आगमन
धन-संपत्ति बाढ़ली हे
सेहो दिन पूजा होइली।
मिथिलांचल के गाँवों में एक रिवाज था।
अमावस्या की शाम को दीवाली जगाई जाती थी और
रात्रि होने पर घर की बड़ी-बूढ़ी औरत घर के
चारों ओर सूप पीटती हुई घूमती थी। वह
बुदबुदाती थी -
दरिद्र सोए, लक्ष्मी जागे,
लक्ष्मी आए, दरिद्र भागे।
इस प्रकार निर्धन-से-निर्धन परिवार द्वारा भी
लक्ष्मी को आमंत्रित करने की परंपरा रही है।
द्वितीया को 'भाई दूज' मनाया जाता है। देश के
विविध भागों में भाई के ललाट पर टीका लगाकर
मिठाई खिलाने का रिवाज है। परंतु मिथिलांचल
में विशेष विधि है। इसे 'यम द्वितीया' के रूप
में मनाया जाता है। भाई को यम की नज़र से
बचाकर उसे दीर्घायु बनाने का व्रत किया जाता
है। इस अवसर पर भी मन के भावों को गीतों की
पंक्तियों में पिरोकर प्रकट किया जाता है -
कौन भैया चलले अहेरिया
कौन बहिनो देलन आशीष
जीअहू रे मेरो भइया
जीओ भैया लाख बरीसे हो ना
हाथ कमल मुख बीरिया
भौजी के बाढ़ो सिर सिंदूर हो ना।
इसी पखवाड़े में सामा चकेवा खेला जाता है।
भाई-बहन का त्योहार। भाई-बहन के संबंध भाव के
विभिन्न रूपों को गीतों में पिरोया जाता है -
कौन भैया के धनी फुलवड़िया हे
कौन बहिनी लोढ़ले बहेली फूल हे
फूलवा लोढ़इते बहिनिया मोर घामल हे
घामी गेल सिर के सिंदूरवा हे
छतवा लेले दौड़ल अबथीन अपन भैया हे
बैठू हे बहिनी एहो शीतल छहिया हे
पनिया लेले दौड़ल अबथीन कनिया भौजी हे
पीव हे ननदी एहो शीतल पनिया हे।
कनिया भौजी के केसिया चौर डोलू हे
वही रे केसे गूंथवो चमेली फूल हे।
कार्तिक मास है, दीपों का उत्सव। इसलिए इस माह
में मनाए जानेवाले सभी त्योहार गीतों में दीप
जलाने और उससे संबंधित गीत गाने की परिपाटी है
-
कथी केरा दीयरा कथिए सूत-बाती
माई कथी केरा तेलवा जलाएव सारी राती
माई माटी केरा दीयरा पटंबर सूत-बाती
माई सरसों के जलवा जलएबो सारी राती
जले लागल दीयरा हुलसे लागल बाती
खेले लगलन भैया के बहिनी हुलसे भैया की छाती
खेलिय खुलीए गे बहिनी देहू न आशीष
जुगे जीयथ सब भैया लाख हे बरीषे
भाई-बहन के परस्पर प्रेम को दर्शाता यह
त्योहार। 'भाई दूज' त्योहार के दूसरे दिन से
षष्ठी व्रत (छठ पूजा), जो सूर्य-पूजा है, की
तैयारी शुरू हो जाती है। इस पूजा में सूर्य
देवता से धन-धान्य, पुत्र-पुत्री, नौकर-चाकर -
सबकुछ माँगती हैं ललनाएँ। वे गीतों के माध्यम
से अपनी आकांक्षा प्रकट करती हैं -
सारी-सारी रात हम जल कष्ट सेवल
सेवल छठी गोरथारी, हे हरि छठी माई
सेवा मैं करबो तोहार हे हरि छठी माई
छठी मां - 'मांगू-मांगू तिरिया जे किछु मांगव
जे किछु हृदय में समाय'
व्रती महिला - 'अगला हल दूनू बरदा मांगीला
पिछला हल हलवाह
गोर धोवन लागी चेरी मांगीले,
दूध पीवन धेनू गाय।
सभा बैठन ला बेटा मांगीले, नूपुर शब्द पुतोह
बैना बंटिला बेटी मांगीले, पढ़ल पंडित दामाद।'
छठी मां - 'एहो तिरिया सब गुण आगर
सब कुछ मांगे समतुल हे।
षष्ठी पूजा के पश्चात् गोपाष्टमी में गौ की
पूजा, अक्षय नवमी में आंवला के पेड़ की पूजा,
देवउठान एकादशी और माह की अंतिम तिथि पूर्णिमा
कार्तिक पूर्णिमा है। कार्तिक पूर्णिमा को
गंगास्नान का विधान है। इसके बाद आएगा अगहन
मास - मार्गशीर्ष। वर्ष का पहला महीना।
अगहन हे सखि अग्र महीना
चहुँ दिस उपजले धान हे,
चकवा-चकैया राम केल करत हैं
ऐहो देखी जीया हुलसाय हे।
और इस तरह जीवन-चक्र चलता रहता है। ग्यारह माह
फिर आएँगे-जाएँगे। परंतु लोक-जीवन में
लोक-व्यवहार और लोकगीतों में कार्तिक मास का
अपना महत्व रहा है और रहेगा। प्रत्येक दिन एक
व्रत, एक त्योहार का दिन है। परंतु दीपों की
महिमा है। ये दीप केवल दीपावली के दिन नहीं,
सब दिन जलते हैं। चाहे वह यम द्वितीया, भाई
दूज, षष्ठी-पूजन, आँवला-पूजन या गंगास्नान हो।
यह मास पुण्य माह जो हैं।
१३ अक्तूबर २०१४ १
अक्तूबर २०१९ |