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ललित निबंध

ज्योतिपर्व की जय
-रमेश तिवारी 'विराम'

विजयी दीपशिखा का असीम उल्लास है- 'दीपावली', पराजित अमावस्या का उच्छवास है- दीपावली, निबिड़ अंधकार का पलायन है- दीपावली, आलोक-सुरसरि का धरती पर अवतरण है- दीपावली, आकाश के अनंत-नक्षत्र-मंडल से धरा की मूर्तिमान स्पर्धा है - दीपावली, मनुष्य की चिर-आलोक- पिपासा के लिए चहुँदिसि आलोक - वर्षा है - दीपावली, अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है - दीपावली।

अंधकार को मनुष्य ने सदा अपना शत्रु माना है। अंधकार भय उत्पन्न करता है, अंधकार अस्तित्व को विलीन करता है। इसीलिए मनुष्य अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए प्रकाश का मुखापेक्षी रहा है। प्रकृति में प्रकाश और अंधकार का विधाता ने संतुलन स्थापित किया है। अगर दिवस प्रकाश की यात्रा है तो रात्रि अंधकार का प्रसार है। 'प्रकाश तम पारव दुहुँ' के अनुसार प्रकृति ने रात्रि में भी प्रकाश और अंधकार का संतुलन स्थापित किया है। संपूर्ण प्रकृति द्वैत मय है - 'जड़-चेतन गुण-दोष मय विश्व कीन्ह करतार।' प्रकृति की इस द्वैतता को संसार के लगभग अन्य सभी प्राणियों ने स्वीकार कर लिया है - कुछ एक ने अपनी क्षमता भर प्रकृति की इस द्वैती प्रकृति को बदलने की चेष्टा भी की है, जैसे कि खद्योत गहन तिमिराच्छन्न रात्रि और भयावने जंगल में अपनी क्षमता भर प्रकाश उत्पन्न करते ही हैं, लेकिन मनुष्य ने अपनी बुद्धि और विवेक के बल पर संसार के प्रत्येक अंधकार को चुनौती दी और हर अंधेरे में उजाले की सृष्टि करने का प्रयास किया। वैदिक ऋषियों द्वारा उच्चरित मंत्र 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' को मनुष्य ने अपने जीवन का मूलमंत्र बनाया।

अंधकार एक आवरण है, एक भय है, आशंका है, स्वप्न है, इसलिए उसमें जड़ता है, अकर्मण्यता है, एकरूपता है, निद्रा है, अस्तित्व का विलय है। अत: तिमिर त्याज्य है, उपेक्षणीय है। प्रकाश में, आलोक में चेतना है, विविधता है, सक्रियता है, कर्मठता है, जागरण है एवं अस्तित्व की सुरक्षा है, इसी कारण आलोक वरेण्य है।

अंधकार में प्रकाश बिखेरने की मानवीय एषणा ने मानव सभ्यता के इतिहास में प्रगति के अनेकानेक सोपानों पर अपने चरणचिह्न अंकित किए हैं। पत्थरों को रगड़कर चिनगारी उत्पन्न करने के आदिम रूप से लेकर आज तक के अणुदीप तक मानव ने ज्योतिमुखी यात्रा की है।

दिन गौरांग है। रात्रि ही श्यामा है। रात्रि में भी चंद्रिका अपनी क्षमता भर, चेष्टा भर प्रकाश बिखेरती ही है, किंतु अमावस्या की रात्रि अंधकार - असुर की प्रिया है। अमावस्या अर्थात पूरी रात्रि अंधकार को समर्पित महानिशा यानी तमोगुण की साकार विवृत्ति। वामपंथी साधना की आधारभूमि अमावस्या।

प्रकाश-प्रेमी मनुष्य ने इसी तिमिर-प्रिया अमावस्या की रात्रि को दीपोत्सव में परिवर्तित कर अंधकार की जड़ता पर अपनी चेतना के स्वर्णिम हस्ताक्षर अंकित किए हैं।

इतिहास साक्षी है कि इस त्योहार का आरंभ ऋतु उत्सव के रूप में हुआ था। शीत आनंद की ऋतु है, स्वच्छता की ऋतु है, संधि ऋतु है। यह शारदीय उत्सव आदिम कला के रंग में रंगकर मनाया जाता था। आर्य एवं आर्येतर जातियाँ सामूहिक शरदोत्सव मनाती थीं। रात भर अग्निशिखाओं के प्रकाश में नृत्य-गीत की कलाएं थिरकती थीं। आज भी बुंदेलखंड में दीपावली पर सामूहिक 'कहरवा' गाया जाता है।

परवर्ती युग में यह ऋतु उत्सव कृषि उत्सव बन गया, क्यों कि कृषि के विकास के साथ-ही-साथ ग्रामीण स्वतंत्रता भी विकसित हुई है। फसल पकी, धान, कोदों, सामा, ज्वार, मक्का और बाजरा की फ़सलें कटकर घर आई, कृषकों के त्योहार मनाने का क्षण आया। सबसे अधिक प्रमुखता मिली धान को, क्यों कि यह आदिम अन्न है। धान की खील बनी।

खील अपने आप में प्रकाश की प्रतीक है। 'खील' की निर्माण प्रक्रिया देखें। काली-कलूटी धानी अग्नि के संपर्क में आकर अग्नि के ताप का संस्पर्श पाकर खिल गई। श्वेत-शुभ्र खील। कार्तिक की प्रमुख काली उपज धानी के गर्भ से जनमी श्वेताभा यानी तप के प्रभाव से तमोगुण में से सतोगुण जनमा हो तम के भीतर से 'सत' खिला हो जैसे - इसीलिए इसे 'खिली' कहा गया होगा, जो कालांतर में 'खील' बन गया।

दीपावली - आलोक-उत्सव ही नहीं, अन्नोत्सव भी है। अन्न ब्रह्म है। आदि युग में मनुष्य भी पशु की भांति अपक्वाहार ग्रहण करता था। अग्नि से परिचय हुआ तो पाक-शास्त्र का आरंभिक अध्याय लिखा गया, अर्थात 'भून कर खाना।' 'खील' शाकाहारी पाक-शास्त्र की आदिम ऋचा है।

दीपावली की रात में गणेश-लक्ष्मी की 'खील' बिखेरकर पूजा की गई। भौतिक अंधकार में प्रकाश बिखेरने का दायित्व नन्हें दीपकों ने संभाला और उदर के क्षुधाजन्य अंधकार में तृप्ति का आलोक बिखेरा नन्हीं-नन्हीं खीलों ने। परवर्ती युग में खील के साथ बताशा भी जुड़ गया - यह किसी बालक की मधुर सूझ रही होगी, या संभव है, किसी ब्राह्मण की माधुर्य लिप्सा का सुपरिणाम हो- 'ब्राह्मण मधुरं प्रियम।'

ग्रामीण सभ्यता के विकास के साथ-साथ धीरे-धीरे धर्म भी जीवन का मुख्य अंग बना। धर्म के विविध रूप विकसित हुए। पुराण युग ने दीपावली की धार्मिक व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं। भक्तों ने इसे नरकासुर के वध से और वैष्णवों ने राम के राज्याभिषेक से जोड़ दिया। बौद्धों ने इसे बुद्ध के बोध-प्राप्ति के क्षण से अनुबंधित किया तो जैनों ने महावीर स्वामी के निर्वाण से इसका संबंध सूत्र बांधा। 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना', पर सत्य यह है कि प्रकाश की सब कामना करते हैं, इसीलिए ऋतु स्वागत में जनमा यह उत्सव कृषि को अपने में समाहित करता हुआ धार्मिक व्याख्याओं का वाहक बन गया।

मध्य अर्वाचीन युग सुख-समृद्धि का युग था। अत: इस समृद्धि में इसके साथ ही लक्ष्मी-पूजन की परंपरा विकसित हुई। लक्ष्मी की अभीप्सा आगे चलकर द्यूत-क्रीड़ा बनकर इससे जुड़ गई। धीरे-धीरे यह लक्ष्मी-पुत्रों का त्योहार कहा जाने लगा। भवनों से उसने आतिशबाजी सीखी और औद्योगिकीकरण की उंगली पकड़कर इसे 'दीपों' के स्थान पर 'बल्बों' से अपना श्रृंगार करना आ गया, परंतु पूजन की वेदिका पर दीप का अस्तित्व आज भी सुरक्षित है।

उत्तर अर्वाचीन युग में सुधारवादी जीवन-दृष्टि में लक्ष्मी के साथ गणेश के भी पूजन की परंपरा का विकास किया गया। गणेश विवेक के देवता हैं। विवेकहीन लक्ष्मी विलासोमुख होगी। अकेली लक्ष्मी से जनमा रजोगुण विकृतियों को जन्म देगा। अत: गणेश साथ रहें, जो सत के प्रतीक हैं। एक और अर्थ - जहां लक्ष्मी के साथ विवेक रूप गणेश न होंगे, लक्ष्मी का अपव्यय होगा। लक्ष्मी स्थायी न रहेगी। व्यक्ति और समाज का कल्याण इसी में है कि लक्ष्मी के साथ गणेश सदा विराजमान रहें। उपार्जन में ही नहीं, व्यय में भी साथ रहें। आधुनिक युग में जो 'बजट' की परंपरा है वह लक्ष्मी व्यय में बुद्धि के उपयोग का नवीनतम संस्करण है।

दीपावली पर ज्योति शिशु नन्हे-नन्हे दीपकों की पंक्तियाँ तो सजाई ही जाती हैं - ऊँचाइयों पर 'कंदील' भी टाँगी जाती है। रंग-बिरंगी क़ंदीलों की यह मनभावन परंपरा समुद्र तटीय क्षेत्रों के 'आकाशदीप' का अनुकरण है, जो भटके हुए जलयानों को मार्ग दिखाते थे। क़ंदीलों की परंपरा मनोहारी होने के कारण चारों ओर प्रसारित हो गई।

'कंदील' अंधियारी रात में उगा इंद्रधनुष है। श्वेत प्रकाश को सप्तवर्णी बना देती है कंदील। रंग-प्रेमी मानव की कलाप्रियता की परिचायक है - कंदील।

जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार कर लेना मानव की प्रकृति के प्रतिकूल है। प्रकृति को उसने पशु की भांति यथावत स्वीकार नहीं किया है, वह अपने ढंग से प्रकृति में परिवर्तन करता रहा है, प्रकृति को अपने रंग में रंगता रहा है। कृत्रिम ही सही, पर अपनेपन का बोध हो। ऐसा लगे कि यह मेरा है, मेरा कृतित्व है यह। इसी कृतित्व-सुख के लिए वह प्रकृति को अपनी प्रयोगशालाओं में ले गया। 'श्वेत प्रकाश' को रंगीन परदे से देखकर उसने कंदील बनाया। अपनी रंगीन प्रकाश-सृष्टि को ऊंचा, खूब ऊंचा टांगकर उसने सबको दिखाया। मनुष्य के मन में निहित इसी कौतुकप्रिय शिशु भाव ने अन्वेषण के नये-नये आयाम उद्घाटित किए हैं।

दीपावली - अर्थात दीपों की पंक्ति मुँडेरों, मेहराबों और छतों, छज्जोंवाली दीपावली अभी भी दिखाई देती है, पर एक और दीपावली थी, जो शनै: शनै: लुप्त होती जा रही है। जलधारा पर तैरती हुई दीपों की अविरल, भाव-विह्वल दीपमाला।

आस्था-संपन्न भारतीय नारी सश्रद्ध दृष्टि और कांपते हाथों से धारा में दीपमाला प्रवाहित करती है। परदेश गए प्रेमी, पति या पुत्र के मंगालार्थ महिलाओं द्वारा 'दीपदान' की परंपरा अब क्षीण होती जा रही है। कभी-कभी ही दिखाई देता है यह मर्मस्पर्शी दृश्य - आशा और आशंका की लहरों पर उठता-गिरता, झलमल, झलमल धारा पर दूर तक, तैरकर आंखों से ओझल होता दीप मन की गुह्य कामना का प्रत्यय सिद्ध होता है। अद्भुत प्रतीकार्थ है, इसमें कि सतत प्रवाहिनी धारा, अर्थात समय का निरंतर अजस्त्र प्रवाह और उसपर तैरता नन्हा दीप, मानव स्वयं। कौन कितनी दूर तक बहता है - यही तो है जीवन। जिजीविषा की परिणति धारा और दीप। समय और मनुष्य। सबकुछ विपरीत है वहां- जल का वेग, लहरें, खुली हवा के झोंके और उनसे जूझता है नन्हा दीप। जीवन की आलोकमयी व्याख्या है यह, जो किसी रोम-रोम प्रेम-पगी आस्थामयी नारी के मन से जनमी होगी। कैसा अनूठा विश्वास -

यह दीप धारा पर विजयी हो, तो 'वे' जो मेरे जीवन-दीप हैं - अवश्य ही जीवन धारा की असंख्य बाधाओं को पार कर लौट आएँगे। यह नन्हा आलोक उस 'मेरे महत आलोक' को सुरक्षित लौटा लाएगा। प्रणम्य है यह आस्था। दुर्लभ है यह दृश्य।

जायसी की नागमती कौंधती है मेरे मानस-पटल पर। गूँजती है कस्र्णार्द्र अर्द्धाली - 'परब दिवारी होय संसारा।' दीपावली के इतिहास पर चर्चा चली थी। चिंतना के पंख होते हैं- इतिहास की डाल से उड़कर साहित्य सरोवर तक आ गई। दीपावली ने युग के अनुरूप नये-नये अर्थ स्वीकार किए हैं। समयसापेक्ष ज्योति की वाहिका रही है दीपावली। स्वाधीनता से पूर्व पराधीनता के अंधकार में इसने साहित्यिक, सामाजिक जागृति का संदेश दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे समाज ऋषियों ने इसे सामाजिक पुनरुत्थान के नये अर्थों में गतिशील बनाया - स्वच्छता बढ़े, सदाचार बढ़े, द्यूत-क्रीड़ा बंद हो।

दीपावली अर्थात आलोक का विस्तार। एक नन्हा-सा दीप असंख्य दीपों को शिखा सौंप सकता है। प्रकाश ज्ञान का, शिक्षा का प्रतीक है। अशिक्षा के अंधकार में एक ज्ञान दीप ही अनेक अशिक्षितों को शिक्षित बनाए। ज्योति से ज्योति जले। अज्ञान तिमिर की कालिमा ढले। दीपावली ज्ञान की संदेश-वाहिका बने - कहा था स्वामी विवेकानंद ने।

अतीत के आकाश में चिंतन के पंख लगाकर उड़ने से राष्ट्र की वे कई गुमनाम दीवालियाँ भी याद आती हैं जो स्वयं इतिहास बना गई हैं, या इतिहास का अंग बन गईं सन 1947 की दीपावली - स्वाधीनता के बाद के पहले उस दीपोत्सव में स्वातंत्र्य शिखा का उल्लास भी समाहित था। शताब्दियों की पराधीनता का अंधकार पराजित हुआ था - स्वाधीनता के सुखद-शुभ्रालोक से मंडित थी वह दीपावली, परंतु दीपों के नीचे एक अंधकार वृत्त दर्द के रूप में चुपचाप सिसक रहा था - विभाजन का दर्द। राष्ट्र स्वाधीन भी हुआ था, और खंडित भी।

एक और दीपावली उभरती है - मन के क्षितिज पर काली-स्याह दीपावली। सन 1962 की दीपावली - चीन के आक्रमण से उत्पन्न भय और निराशा की दीपावली - राष्ट्रनीति पर पुनर्विचार की प्रेरणा दी थी इस दीपावली ने। इसी दीपावली ने हमें यह पाठ पढ़ाया था कि राष्ट्र लक्ष्मी की रक्षा अकेले गणपति से न होगी, कार्तिकेय को भी साथ रखना होगा। कार्तिकेय, जो शौर्य के देवता हैं, राष्ट्र लक्ष्मी के एक ओर विवेक रूप में गणेश रहें तो दूसरी ओर शौर्य पराक्रमी कार्तिकेय, तभी उसकी रक्षा हो सकती है। इसी दीपावली ने सिखाया था कि तलवारों पर चमक कायम रहे, अन्यथा दीपों की ज्योति भी मलिन पड़ जाएगी। देश ने इस दीपावली से समुचित शिक्षा भी ली थी। बुद्धि के साथ शक्ति का भी संतुलित विकास हो, यह प्रेरणा मिली थी हमें और फिर '65 और '71 में हमने अपना शौर्य और विवेक सिद्ध भी किया। विजय ज्योति से संपन्न दीपोत्सव मनाए हमने।

बंगलादेश की मुक्ति ने उस वर्ष के दीपोत्सव को नया आलोक अर्थ दे दिया था। विदेशी पूँजी आ रही है, अत: इस वर्ष की दीपावली एक सर्वथा नये संदेश को अंजलि में लिए राष्ट्र के सम्मुख खड़ी है।

स्वाधीन भारत में राष्ट्र लक्ष्मी का प्रकाश कुछ गिनी-चुनी मुँडेरों पर केंद्रित हो गया है। राष्ट्र लक्ष्मी सीमित तिजोरियों में कैद हो गई। लक्ष्मी के शुभ्र प्रकाश को सचमुच उलूक पर बिठा दिया गया। तस्करों के कुचक्र में फँसकर लक्ष्मी अंधकारोन्मुख हो गई। अंधेरी लक्ष्मी (काला धन) का विनाश हो। शुभ्र सतोगुणी सर्व मंगला लक्ष्मी का उदय हो।

ज्योति पर्व प्रहरी की भांति घूम-घूमकर बता रहा है कि कहां-कहां कैद है राष्ट्र लक्ष्मी! संकेत कर रहा है - उधर देखो! उन मुँडेरों पर सिमट गए हैं असंख्य दीप और इधर न जाने कितनी झोपड़ियों में घनघोर अंधेरा है, प्रकाश-शून्य झोपड़ियों। सीमित मुँडेरों पर कैद दीपावली को उतारकर एक-एक कुटिया तक ले जाना अभी बाकी है। सावधान! हमारी लक्ष्मी विदेश न चली जाए। आज तक कहते रहे - 'तमसो मा ज्योतिर्गमय', पर इस बार दीपोत्सव यह कर रहा है कि ज्योति को ही अंधकार की ओर ले चलें। राष्ट्र लक्ष्मी कुटियों में और अधिक आलोक बिखेरे। ज्योति से ज्योति जले, दीपोत्सव की आभा असंख्य आलोक पुष्पों में खिले।

16 अक्तूबर 2006

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