मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


र्व-परिचय

 

दीपोत्सव के प्रारंभ का इतिहास
—चिरंतन


 हिरण्यकशिपु वध


दीपावली भारत के उस आदि स्वातंत्र्योत्सव का प्रतीक पर्व हे जब पहली बार विदेशियों के पदाक्रांत से आहत होने के बाद देश ने अपने पारतंत्र्य से मुक्ति पाई थी और हिरण्याक्ष से लेकर बलि तक की दैत्य परंपरा का अंत हुआ था। भारत को सर्वप्रथम

आक्रांत करने वाली विदेशी जाति दैत्य जाति थी और वह वायव्य दिशा से आई थी। इसके नेता का नाम हिरण्याक्ष था। कदाचित भारत की संपत्ति - अर्थात हिरण्य - पर दृष्टि (अक्ष) रखने के कारण ही उसका नाम हिरण्याक्ष पड़ा होगा। यह घटना उस अंधकारमय काल की है जब आर्यावर्त की सीमाओं को पार कर आर्य जाति ने दक्षिणापथ की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था तथा क्रमश: उत्तर तथा दक्षिण का सम्मिलन होकर भारत देश, भारत राष्ट्र और भारतीय संस्कृति के निर्माणकार्य का प्रारंभ हो गया था। हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद, विरोचन तथा बलि की कथाएँ भारतीय पुराणों की एक मुख्य भाग हैं, और उनमे भारत के पारतंत्र्य तथा उसे नष्ट कर पुन: स्थापित किए जाने वाले स्वातंत्र्य की गौरव-गाथा छिपी है।

यह सभी आक्रमणकर्ता दैत्य वंश के थे तथा बाहर से आए थे। भारत में इनकी जड़ जमाने वाला पहला व्यक्ति हिरण्याक्ष ही था। उसने वर्तमान ख़ैबर के दर्रों के रास्ते अपनी सेना सहित भारत में प्रवेश किया था तथा पंजाब और कश्मीर तक अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। इससे आगे बढ़ने में वह कदाचित सफल नहीं हो सका था। परंतु जितने भी भूभाग में वह अपना वर्चस्व स्थापित करने में समर्थ हुआ उस अंचल में उसने ऐसा भयंकर उत्पात मचाया कि देश के मनीषीजनों को लगने लगा जैसे पृथ्वी सहसा ही डूब कर रसातल को चली जाएगी। पुराणों में ऐसा ही रूपात्मक वर्णन हमें प्राप्त होता है। जैसा कि नाम से ही प्रकट है, हिरण्याक्ष मुख्यत: एक लुटेरा था। लेकिन लूटमार के लिए अत्याचार, रक्तपात, अग्निकांड आदि की भी आवश्यकता होती है, और वह सब उसने इतने व्यापक पैमाने पर किया कि समस्त देश में त्राहि-त्राहि मच गई।

हिरण्याक्ष के अत्याचारों से देश को मुक्त कराने का बीड़ा उठाकर जो व्यक्ति सर्वप्रथम खड़ा हुआ उसका नाम वराह था। वराह एक प्रतीक नाम है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह मनुष्य न होकर सूअर था और सूअर के नेतृत्व में हिरण्याक्ष के वध का आंदोलन संपन्न किया गया। वास्तविक बात यह रही होगी कि इस व्यक्ति ने हिरण्याक्ष को नष्ट करने के लिए जिस प्रकार के लोगों तथा जिस पद्धति से उनका संगठन किया वह वराह के गुणों से मिलती-जुलती होगी। वराह में बुद्धि नहीं होती, वह शक्तिशाली होते हैं, झपट कर हमला करते हैं लेकिन स्वच्छता और संयम से कोसों दूर रहते हैं।

वराह तथा उसकी सेना के लोग भी ऐसे ही रहे होंगे, उनमें स्पष्ट ही नीति, न्याय और निष्ठा आदि बातों का अभाव रहा होगा। लेकिन इन सब दोषों के बावजूद अपनी उस सेना को लेकर वराह ने हिरण्याक्ष पर हमला किया। दोनों के बीच युद्ध हुआ और अंत में हिरण्याक्ष की सेना को नष्ट कर वराह ने हिरण्याक्ष को भी मार डाला। जिस स्थान पर यह घटनाएँ हुईं उसका नाम वराहमूलम पड़ा, और आज तक वह स्थान कश्मीर में बारामूला के नाम से प्रसिद्ध है। संभव है कि यह हिरण्याक्ष की राजधानी रही हो, वराह ने वहीं पर हमला करके उसे नष्ट किया हो तथा इस महान घटना की स्मृति में ही वराह के नाम पर उसका नामकरण कर दिया गया हो।

हिरण्याक्ष के भाई का नाम हिरण्यकशिपु था। अपने भाई के राज्य को हस्तगत कर उस काल के मूलस्थान और आज के मुलतान में उसने अपनी राजधानी स्थापित की। किसी समय मुलतान का नाम प्रह्लादपुरी था तथा वहाँ प्रह्लाद का मंदिर अभी तक है। दैत्य वंश की इस परंपरा में हिरण्यकशिपु ही ऐसा था जिसने विधिपूर्वक किसी नगर को अपनी राजधानी बनाया, राज्य व्यवस्था स्थापित की तथा शासन का कारोबार चलाया। हिरण्याक्ष तो मुख्यत: लुटेरा ही था जो स्थान-स्थान पर अपने केंद्र बना कर आसपास के राज्यों पर आक्रमण करता था। हिरण्यकशिपु ने कुशलतापूर्वक अपने साम्राज्य को सुदृढ़ बनाया। रात में या दिन में, घर में या बाहर, मानव या पशु कोई भी उसे मारने में समर्थ नहीं था, अस्त्र-शस्त्र उसे घायल नहीं कर सकते थे। यह हिरण्यकशिपु के शासन तथा सैन्य व्यवस्था की ही सुदृढ़ता तथा दक्षता थी जिसमें किसी भी प्रकार से उसका नाश करना असंभव था। उसे इतनी सुरक्षा वस्तुत: इसलिए रखनी पड़ती थी कि वह एक विदेशी शासक था और सेना के बल पर ही शासन करने में उसे सफलता प्राप्त हो सकती थी।

प्रह्लाद हिरण्यकशिपु का बेटा था। यह बात आश्चर्य की तो प्रतीत होती है परंतु सत्य है कि बेटे ने ही अपने पिता के अत्याचार को समाप्त करने का प्रयत्न किया। इसका कारण यह था कि प्रह्लाद भारतीय संस्कृति से प्रेम करने लगा था और उसे यह पसंद नहीं था कि उसका पिता उसे नष्ट कर उसके स्थान पर भौतिकवादी ईश्वरविहीन संस्कृति की स्थापना करे। परंतु तब भी प्रह्लाद विदेशी शासन से भारत को मुक्ति दिलाना नहीं चाहता था, क्यों कि वह स्वयं भी उसी वंश तथा रक्त का था। मात्र भारतीय धर्म-संस्कृति की सुरक्षा के लिए वह प्रयत्नशील था और बचपन से ही उसने अपने अंतर की यह भावना अत्यंत तीव्ररूप से व्यक्त करनी आरंभ कर दी थी। हिरण्यकशिपु ने पहले तो समझा-बुझा कर पुत्र को अपने रास्ते पर लाने की चेष्टा की, परंतु अपने उस मंतव्य में जब वह विफल हुआ तब उसने प्रह्लाद के प्रति क्रूरता का व्यवहार आरंभ कर दिया। उसे आग में जलाया, पहाड़ से गिराया, परंतु तब भी प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहीं हो पाया। इन सब रूपक-कथाओं से उन कष्टकर यंत्रणाओं की झलक मिलती है जो प्रह्लाद को दी गईं। प्रह्लाद को आग में जलाने से संबंधित घटना तो होली के साथ अभिन्नरूप से जुड़ी हुई है। इसी कारण राज्य के सभी मूल वासी प्रह्लाद से बहुत प्यार करने लगे थे।। एक दिन हिरण्यकशिपु ने क्रोधित होकर अपने प्रासाद के एक खंभे की ओर इशारा करते हुए प्रह्लाद से पूछा था - 'क्या तेरा ईश्वर इस खंभे में भी है?' प्रह्लाद ने अपने पिता के इस प्रश्न का जब स्वीकारात्मक उत्तर दिया तो हिरण्यकशिपु ने उस खंभे पर भीषण प्रहार किया, और पुराण कहता है कि उसमें से नृसिंह-रूपधारी भगवान ने बाहर निकल कर हिरण्यकशिपु का वध कर डाला।

वराह की ही तरह नृसिंह भी एक प्रतीक नाम है। इसका तात्पर्य यह कि नर सिंह का रूप धारण कर प्रकट हुआ। वास्तविकता यह रही होगी कि राज्य के लोग प्रह्लाद से प्रेम करने के कारण हिरण्यकशिपु के घोर विरोधी हो गए होंगे, तथा उन्होंने क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु को मार डाला होगा। जनता का यह रोष सिंह की भाँति प्रकट हुआ। बग़ैर किसी पूर्व संगठन अथवा आयोजन यह घटना सर्वथा आकस्मिक रूप से घटी तथा क्षणमात्र में उत्पन्न क्रोध से उबल कर जनता ने हिरण्यकशिपु का वध कर डाला। इसी कारण सिंह से उसकी उपमा भी दी गई है।

हिरण्यकशिपु के बाद प्रह्लाद ने शासनभार सँभाला। प्रह्लाद के राज्य में यद्यपि धर्म और संस्कृति की स्वतंत्रता हमें प्राप्त हो गई, परंतु देश विदेशी-बंधन से मुक्त नहीं हो पाया। जैसा हम देख चुके हैं, नृसिंहावतार में कोई संगठन अथवा योजना नहीं थी तथा नृसिंह कदाचित किसी व्यक्तिविशेष का नाम भी नहीं था। इस कारण नृसिंहावतार के बाद भी भारत विदेशियों के ही अधीनस्थ रहा। प्रह्लाद अत्यंत बुद्धिमान तथा नीतिज्ञ शासक था। यदि पश्चवर्ती इतिहास में उसकी तुलना का कोई शासक ढूँढ़ना हो तो कनिष्क प्रह्लाद के समान था, यह कहा जा सकता है। कनिष्क विदेशी होते हुए भी भारतीय धर्म को मानने वाला था तथा उसकी परंपरा के सभी राजाओं ने भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग प्रकट किया था। इसी तरह प्रह्लाद की नीतिकुशलता की किसी परवर्ती राजा से तुलना करनी हो तो कुछ अंशों में अकबर से की जा सकती है। अपनी उदार शासन व्यवस्था द्वारा उसने भारतीयों के हृदयों को जीतने का सफल प्रयत्न किया। कहते हैं, न्याय तथा निष्पक्षता की रक्षा के लिए उसने अपने बेटे तक के विरुद्ध एक बार निर्णय दिया था।

प्रह्लाद का पुत्र था विरोचन और विरोचन का पुत्र हुआ बलि। विरोचन अपनी पिता की नीतियों से प्रसन्न नहीं था, इसलिए वह उसके जीवनकाल में ही राज्य छोड़कर अन्यत्र चला गया था। वस्तुत: विरोचन प्रह्लाद की ईश्वरभक्ति का विरोधी था और उसने नास्तिकवाद का प्रचार किया। भारतीय वाङमय में वह नास्तिकतावाद के एक प्रमुख आचार्य के रूप में गिना जाता है।

विरोचन के पुत्र बलि ने पुन: दैत्य वंश की परंपरा स्थापित की और साम्राज्य को सुदृढ़ बनाया। उसने न हिरण्यकशिपु की रीति-नीति अपनाई और न ही प्रह्लाद के आदर्शों को स्वीकार किया। उसने उन दोनों के मध्य का रास्ता अपनाया और भारतीयजनों का विश्वासभाजन बन कर उन्हें अपने शासन में बनाये रखने का काम शुरू किया। उसने बड़े बड़े यज्ञ किये, जिससे लोगों ने उसे भारतीय संस्कृति का प्रेमी समझना शुरू कर दिया। उसने ऐसी शासन-व्यवस्था स्थापित की जिसमें जनसामान्य को किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव न हो। अत्याचार करना तो उसने मूलरूप से ही बंद कर दिया। लोग उसे अपना सच्चा हितैषी समझने लगे।

लेकिन देश के मनीषीजनों ने इस परिस्थिति को भलीभाँति समझ कर विदेशी साम्राज्य को अंतिम रूप से समाप्त करने के प्रयत्न आरंभ कर दिए। पौराणिक कथाओं से ज्ञात होता है कि देवमाता अदिति ने इस उद्देश्य को पूर्ण करने के निमित्त तपस्या प्रारंभ कर दी। उन्होंने भगवान से एक श्रेष्ठ पुत्र का वरदान माँगा, तथा इस वरदान के फलस्वरूप वामन का जन्म हुआ। कहते हैं कि स्वत: श्री भगवान ही वामन के रूप में अवतरित हुए थे। वराह तथा नृसिंह की भाँति ही वामन भी एक प्रतीकात्मक नाम है। छोटे शरीर के लोग फुरतीले होते हैं, उनकी बुद्धि पैनी होती है तथा उनकी अपेक्षाएँ-आवश्यकताएँ भी न्यूनतम हाती हैं। अदिति के पुत्र में यह सब गुण थे, इसलिए उसे वामन कहा गया। वामन शैशव से ही अत्यंत साहसी था। कथा है कि हिमालय से सुरंग बना कर उसने स्वर्गलोक से मृत्युलोक तक गंगा नदी को लाने का प्रयत्न किया लेकिन उसकी वह चेष्टा निष्फल रही। इससे पता चलता है कि उस समय तक गंगा भूतल पर नहीं आई थी और वामन भगीरथ से पहले पैदा हुए थे।

वामन ने बलि के शासन से देश को मुक्त कर दिया। इस कथा में कहा गया ह कि वामन ने बलि से केवल तीन पग ज़मीन की याचना की थी, परंतु अपने दो पगों में ही उन्होंने तीनों लोकों को नाप लिया और जब आख़िरी पैर रखने के लिए भूमि शेष नहीं रही तो उन्होंने बलि के सिर पर अपना पैर रख दिया। तीन पग भूमि वाली बात का अर्थ विद्वान लोग विभिन्न तरीक़ों से लगाते हैं। एक अर्थ यह किया जाता है कि बलि ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को उनके अपने कामों से मुक्त कर दिया था। शिक्षा, सेना तथा व्यापार, तीनों शक्तिशाली संगठनों पर असुर लोगों का पूरा अधिकार स्थापित हो गया था। वामन ने जो आंदोलन किया उसका मुख्य पाया यह था कि तीनों वर्णों को उनका धर्मविहित भाग कार्य करने के लिये सौंप दिया जाए। वामन जानते थे कि ऐसा होने से प्रशासन और सामाजिक व्यवस्था के समस्त सूत्र भारतीयों के हाथ में आ जाएँगे। बलि धर्म-राज्य का समर्थक था, अत: प्रत्यक्षत: ऐसा करने से इनकार भी नहीं कर सकता था। वामन के आंदोलन ने इतना ज़ोर पकड़ा कि बलि को उनके साथ समझौता करने के लिए विवश हो जाना पड़ा। लेकिन उसके गुरु, शुक्राचार्य इस तरह के किसी भी समझौते के पूर्णत: विरुद्ध थे। वह सैन्य बल से वामन के आंदोलन को दबाने के पक्षधर थे। लेकिन बलि ने उनका परामर्श नहीं स्वीकार किया, इसलिए बलि को शाप देकर वह अन्यत्र चले गए।

समझौता-वार्ता में वामन ने बलि के समक्ष अपनी तीन माँगें रक्खीं, और उनकी व्याप्ति के फलस्वरूप समग्र शासन पर अपना अधिकार कर लिया। पुराणों से पता चलता है कि इस प्रक्रिया में थोड़ा बहुत बलप्रयोग भी करना पड़ा था। जो हो, शासन सत्ता पर अधिकार करने के बाद वामन ने बलि के सुतल में रहने की व्यवस्था कर दी। सुतल दक्षिण भारत के समुद्रतट पर स्थित कोई प्रदेश रहा होगा, ऐसा विद्वानों का अनुमान है। सुतल में बलि को आदरपूर्वक रक्खा गया तथा स्वयं वामनदेव उसकी सुरक्षा में तत्पर रहे। आज की भाषा में कहा जाए तो बलि को सूदूर दक्षिण प्रदेश में, जहाँ रह कर वह किसी संकट का कारण नहीं बन सकता था, राजकीय बंदी के रूप में नज़रबंद कर दिया गया था।

इसी महान घटना का प्रतिनिधि दीपावली का पर्व है। इस दिन पाँच राजाओं की दैत्यवंशीय परंपरा को अंतिम रूप से समाप्त किया गया था और उसी की प्रसन्नता में समस्त भारतवासियों ने इतने दीप जलाए कि नगर-नगर, ग्राम-ग्राम और घर-घर उसकी प्रभा से जगमग हो उठे। बलि भले ही विदेशी शासक रहा हो लेकिन उसकी शासन-व्यवस्था में निश्चित ही कतिपय गुण थे और उन गुणों की स्मृतिस्वरूप ही दीपावली के दूसरे दिन बलि-प्रतिपदा का समारोह आयोजित करने की भी परंपरा बन गई।

१ नवंबर २००७

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।