मैंने
निश्चय किया था कि मैं ऐसा 'रामकथात्मक उपन्यास' लिखूँगा
जो 'वाल्मीकि-रामायण' के महामानव राम के उदात्त चरित पर
आधारित हो, जो जनजीवन से जुड़ा हो। जिसे पढ़कर पाठक को लगे
कि वह राम के युग में पहुँच गया है। यह उपन्यास 'रामगाथा'
प्रकाशित होने पर पर्याप्त चर्चित हुआ। कई पाठकों के मन
में जिज्ञासा और कुतूहल जाग्रत हुए। मुझसे कई प्रश्न पूछे
गए। एक प्रश्न था कि मैंने 'रामकालीन दंडकारण्य' का चित्रण
कैसे किया? मैं 'दंडकारण्य' में कितने दिनों तक रहा?
गोस्वामी
तुलसीदास अपने आराध्य राम के अनंत शील-शक्ति-सौंदर्य पर
रीझ-रीझकर लिखते रहे। उनका ध्यान प्रकृति के बाह्य परिवेश
पर नहीं गया। वाल्मीकि के समस्त ग्रंथ में ही प्राकृतिक
सौंदर्य भरा पड़ा है, किंतु 'दंडकारण्य' का विस्तृत वर्णन
उन्होंने भी नहीं किया। 'वाल्मीकि रामायण' में राम
सुतीक्ष्ण-आश्रम जाते हैं और दस वर्षों तक 'दंडकारण्य'
घूमकर पुन: सुतीक्ष्ण आश्रम आ जाते हैं। इन दस वर्षों तक
'दंडकारण्य' में राम की स्थिति क्या रही, इस विषय पर आदि
कवि मौन है।
'दंडकारण्य' का भौगोलिक वर्णन
मैंने 'दंडकारण्य' के
भौगोलिक वर्णन के साथ ही वहाँ की विभिन्न वन्यजातियों के मध्य राम की
स्थिति दर्शाई है। बी.ए. की कक्षा तक मैंने भूगोल के साथ मानव-भूगोल
भी पढ़ा है। इसके अंतर्गत वन्यजातियों का भी वर्णन आता है। वन्य
जातियों की सांस्कृतिक विशेषताओं, मान्यताओं, जीवन-यापन की पद्धतियों
आदि का अध्ययन करने के लिए मैंने कई ग्रंथों और पत्रिकाओं में
प्रकाशित लेखों से सहायता ली है। श्री राजेंद्र अवस्थी की आँचलिक
कथा-कृतियों से भी मुझे सामग्री मिली है।
शताब्दियों तक मध्य
भारत के जंगलों की एक समान स्थिति रही है। यमुना के बायें तट पर
स्थित मेरा गाँव क्योंटरा जंगल से घिरा हुआ है। इसके दो ओर चंबल
नदी-जैसे खार हैं। ऊँचे-ऊँचे टीले और उनके मध्य छोटी-छोटी घाटियाँ-सी
हैं। जहाँ समतल भूमि है वहाँ ज्वार-बाजरा अथवा जौ-चने की खेती होती
है। आज भी हमारे जंगल में करील, छयोंकर, झरबेरी, बेरी, बबूल, बेल,
नीम, पीपल आदि के पेड़ हैं। चरवाहों की बकरियाँ कई पेड़ों को बढ़ने
नहीं देतीं। गाँव के लोग इंधन के लिए भी पेड़ काटते रहते हैं। मैं
जंगल में घूमा हूँ। मैंने बेर तोड़े हैं, झाड़ियों पर फैलीं बेलों से
बनकरेला और कुंदरू प्राप्त किए हैं। अचार के लिए करील के फल टेंटियों
का भी संग्रह किया है।
जंगल
के वन्य जीव और वनस्पति
'रामगाथा' उपन्यास में
सीता बेर तोड़ती हैं, टेंटी का चूर्ण बनाती हैं। छयोंकर की फलियाँ
खाने से बकरी के दूध में उसकी गंध आ जाती है, सीता को यह ज्ञात है।
पीपल की सूखी टहनियों में लाख चिपटी होती हैं। मेरे गाँव के लड़के
इनका संग्रह बनिये को दे आते थे और बदले में मुरमुरे या रेवड़ियाँ ले
आते थे। 'दंडकारण्य' के वनवासी भी लाख का संग्रह करते आए हैं।
गाँव के जंगल में
सियार, खरगोश आदि जंतु प्रचुर संख्या में हैं। सियारों को जब खाने को
कुछ नहीं मिलता तो वे झरबेरी के बेर खाकर उन्हें लसदार विष्टा के रूप
में ज्यों का त्यों निकाल देते हैं। कभी-कभी सियार पीपल के गिरे हुए
फल पिपलियाँ(नन्हे-नन्हे गूलर) खाया करते हैं। इन्हें देखकर कभी-कभी
भेड़िया होने का भ्रम हो जाता है। यह जानकारी चैती नामक वन कन्या
सीता को देती है। वर्षा ऋतु में वह सीता को यह भी बताती है कि जामुन
के पेड़ पर बंदर बैठा हो और उसे पत्थर दिखाया जाए तो वह डाल को
लकलकाकर पके जामुनों की वर्षा कर देता है। मैंने क्योंटरा गाँव के
कस्बे औरैया की ओर जानेवाली सड़क के किनारे जामुन के पेड़ों पर
उछलकूद मचानेवाले बंदरों को ऐसा करते हुए देखा है।
सहयोग
: काव्य ग्रंथों से
किसी समय जंगल में
कुलाँचे भरते हिरण तथा घोड़ों-जैसी चुस्त और सांड-जैसी विशालकाय
नीलगाएँ विचरण किया करती थीं। मैंने पुस्तकों में पढ़ा है कि
'दंडकारण्य' में आज भी ये पशु उपलब्ध हैं। गाँव के जंगल में
'पटीलों-पटीलों' बोलते तीतर भी दिखाई पड़ जाते हैं। मैंने यहाँ
मयूरों को पंखों का छत्र तानकर नृत्य करते हुए देखा है। बाघ, सिंह,
हाथी, अजगर आदि जीव-जंतुओं के चित्रण में मुझे संस्कृत काव्य ग्रंथों
और शिकार-कथाओं से सहायता मिली है।
मेरी छोटी बहन बिट्टी सावन के महीने में झूला झूलती हुई गाया करती
थी-
साउंन आओ साउंन आओ,
भौजी को भैया लियाउंन आओ।
किरात-कन्या सोन
चिरैया भी सीता को यही गीत सुनाती है। बालिका बिट्टी और उसकी सखियाँ
गरमी में नीम के बौरों की लड़ियों से गहने बनाकर पहना करती थीं।
'रामगाथा' में वर कन्या चैती भी ऐसे गहनें स्वयं धारण करती है और
सीता को भी पहनने के लिए देती है।
यात्रा में सत्तू
हमारे गाँव में गेहूँ
की खेती नहीं होती, अत: गेहूँ का भूसा हमें जंगल पार कर पड़ोसी
गाँवों से लाना पड़ता है। मैंने कई बार अपने पिता या दद्दा के साथ
'भूसा-संग्रह' के लिए बैलगाड़ी की यात्रा की है। जेठ मास की हहर-हहर
चलनेवाली लू के माहोल में ऐसी यात्रा कष्टदायक हुआ करती थी। दोपहर के
समय किसी कुएँ के समीप बैलगाड़ी रोक दी जाती थी। स्नान कर हम लोग
सत्तू खाया करते थे। तब तक मैं भी स्वयंपाकी और शुद्धता-वादी
ब्राह्मण था। अब्राह्मण के हाथ का भोजन नहीं करता था। चौके के बाहर
नहीं खाता था। उस समय कच्चा भोजन साथ लाना वर्जित था।
गरमी में पूड़ियाँ अच्छी नहीं लगती थीं। सौंधी गंध छोड़ता सत्तू
ब्राह्मण-यात्री के लिए सभी तरह से उपयुक्त था। यदि साथ में कोई बरतन
न हो तो सत्तू सानने की एक विशेष पद्धति होती थी, जिसका अवलंबन
निर्धन लोग अधिक करते थे। गमछे का एक छोर बायें पैर के अँगुली और
अँगुली में दबाकर दूसरा छोर बायें हाथ में लेकर उसे झूला-सा बनाते
थे। उसमें सत्तू और नमक डालकर पानी से सानते थे। फिर हथेली में
दबा-दबाकर उसके पिंड बना लिए जाते थे। पास में कहीं आम का पेड़ हुआ
तो क्या कहना। कच्ची अंबिया के साथ सत्तू खाने का स्वाद ही कुछ और
है, विशेषत: उस समय जबकि चारों ओर गरम-गरम लू चल रही हो। रामगाथा का
एक ब्राह्मण इसी पद्धति से सत्तू खाता है। वैसे सत्तू ब्राह्मणों की
बपौती नहीं है, गाँव के अन्य लोगों के लिए भी यात्रा के समय सत्तू
साथ रखना सुविधाजनक है। भारतीय संस्कृति का एक आधार 'व्रत' और 'पर्व'
भी हैं। गाँव के लोग व्रत-पर्वों के माध्यम से धरती से जुड़े हैं।
इनके लोकगीतों का संबंध भी धरती के ही आकाश-बातास से है। मैंने माँ
को रामकथा-विषयक अनेक गीत गाते हुए सुना है-
राम ने सीता निकारीं तो गरुए गरभ सें।
अथवा
कौन विरछ तर भींजत हुइ हैं राम-लखन दोउ भाई।।
पुस्तक में इनका उपयोग
मैंने किया है। मेरी भौजाई कभी-कभी मुझे लेकर, यमुना-स्नान करने जाती
थीं। जब वे जलक्रीड़ा करती हुई स्नान करती थीं, मैं उनकी ओर पीठ कर
तटवर्ती शिला पर बैठा रहता था। रामगाथा में सरगुजा-क्षेत्र के
झरना-कुंड में स्नान करती सीता की ओर पीठ देकर लक्ष्मण बैठ जाते हैं।
स्नान कर लौटते समय भौजाई बालिका के समान आग्रह करती थीं, "लला, बेल
का फल तोड़ दो।" अथवा, "यह जंगली फल या फूल ला दो।" अपने ग्राम्य
घर-परिवार की अपनी माँ, भौजाई, बहन और भतीजी आदि को लेकर मैंने सीता
की मूर्ति गढ़ी है। बाद में, मैंने पत्नी और वात्सल्य-भाजन शिष्याओं
के चरित्र भी समाविष्ट कर दिए हैं।
विस्तृत 'दंडकारण्य'
'दंडकारण्य' अपने में
अनंत वन-कांतर समेटे अत्यंत विशाल और विस्तीर्ण है। मेरे ग्राम
क्योंटरा का जंगल तो नगण्य है, फिर भी वर्णन की आधार-भूमि तो देता
है। मैंने चित्रकूट का जंगल-परिवेश कई बार देखा है। 'अत्रि-आश्रम' से
'दंडकारण्य' आरंभ हो जाता है। चित्रकूट से मार्कुंडी
(मार्कंडेय-आश्रम) की यात्रा मैंने गुरुवर डॉ. भगीरथ मिश्र के साथ
'जीप' से की थी। इस यात्रा के आधार का वर्णन रामगाथा के 78-80
पृष्ठों पर है।
चित्रकूट की मंदाकिनी, गुप्त गोदावरी, छोटी पहाड़ियाँ, कंदराएँ, नटखट
बंदर, मंदाकिनी की काली मछलियाँ भी मेरी पुस्तक में स्थान पा सकी
हैं। 'अत्रि-आश्रम' से राम वन (सतना) तक की 'लोकयात्रा' हमने
म.प्र.तुलसी अकादमी (भोपाल)की 'जीप' से संस्था के तत्कालीन सचिव
डॉ. सिद्धनाथ शर्मा और अपने शिष्यों डॉ. लालसिंह चौधरी, डॉ. रुक्मिणी और
डॉ. नयनबाला के साथ की थी। मार्ग में विराध, शगभंग और सुतीक्ष्ण से
संबंधित स्थान है। हम सतना से आगे नहीं जा सके। राम वहाँ से आधुनिक
जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा
क्षेत्र है। यहाँ एक पर्वत का नाम 'रामगढ़' है। तीस फीट की ऊँचाई से
एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे 'सीता कुंड' कहा जाता है। यहाँ
वशिष्ठ गुफ़ा है। दो गुफ़ाओं के नाम 'लक्ष्मण बोंगरा' और 'सीमा
बोंगरा' हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास
छत्तीसगढ़ है, इसका पुराना नाम दक्षिण कोसल है। कौशल्या यहीं की
राजकुमारी थीं। यहाँ से दक्षिण की ओर बस्तर क्षेत्र हैं। यहाँ भी
रामकथा के स्मृति-चिह्न हैं। संपूर्ण 'दंडकारण्य' में अधिकांशत:
महुआ, कटहल, ताल, साल, तमाल, खजूर, सल्लकी, चिरोंजी, पारिजात,
द्रोणपुष्पी, पर्णास आदि के वृक्ष हैं। आज भी यहाँ अनेक जंगली जंतु
रहते हैं। प्रमुख जनजातियों के नाम हैं - कोल, किरात, माड़िया,
गोंड़, उरांव, बिहोंर, बैगा, कोरबा, भुइंहार, संथाल आदि। मेरी
'रामगाथा' में 'दंडकारण्य' के गिरि-कानन-निर्झर, वनस्पतियाँ,
जीव-जंतु और वन्य जातियों का समावेश है। मैंने वन्य जातियों की
जीवन-पद्धति और उसमें व्याप्त रामकथाओं का थोड़ा-सा वर्णन किया है।
|