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उस दिन मेरा मन कुछ और ही हो रहा था, इसीलिए उन्हें 'गुड मार्निंग' न कह कर ''जय रामजी की'' कह बैठा।
वे बिगड़ उठे, ''तुम्हें कुछ पता भी है कि मुझे राम जी के कारण अपनी पढ़ी लिखी पत्नी और उसकी सहेलियों से कितनी डाँट सुननी पड़ी।''
मैं 'पढ़ी लिखी' विशेषण पर विचार कर ही रहा था कि उन्होंने गोला दागा, ''बताओ राम जी ने सीता जी की अग्निपरीक्षा क्यों ली? हम तुम तो ऐसा काम नहीं करते।'' उन्होंने अपनी पत्नी के शब्द दुहरा दिए, ''अपनी पत्नी के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए क्या?''
मेरे पास इस प्रश्न का कोई मौलिक समाधान नहीं था। विनोद में कहना होता तो कह देता कि सहस्रों पत्नियाँ प्रतिदिन अपने पतियों की अग्निपरीक्षा लेती रहती हैं। कभी एक पति ने ऐसी परीक्षा ले ली तो कौन-सा आकाश फट पड़ा। किंतु यह समय विनोद का नहीं था। और यह प्रश्न तो अब फैशन बन चुका है। कोई भी राह चलता अनपढ़ व्यक्ति, जो स्वयं को पढ़ा लिखा मानता है, ऐसी फबती कस देता है। राम जी के चरित्र में दोष निकाल कर स्वयं को महान सिद्ध करने में देर ही कितनी लगती है। एक बार लखनऊ विश्वविद्यालय की बी.ए. की एक छात्रा ने अपने पत्रा में मुझे लिख भेजा था कि सीता त्याग के लिए वह राम जी को कभी क्षमा नहीं करेगी। राम जी के चरित्र की महानता से पूर्णत: अनभिज्ञ उस छात्रा का अहंकार मुझ से सहा नहीं गया और मैंने उसे लिख भेजा, ''राम जी जब तुमसे क्षमा माँगने आएँ तो क्षमा मत करना।''
पर आज बात पत्र की नहीं थी। वे मेरे सामने खड़े मुझ से उत्तर माँग रहे थे। शायद घर लौटते ही उन्हें अपनी पत्नी को उत्तर देना था। वैसे भी राम जैसे चरित्र के साथ हँसी ठट्ठा करना उचित नहीं था। बात गंभीर थी।

एक बार यही प्रश्न किसी ने स्वामी विवेकानंद से पूछा था। तो स्वामी जी ने कहा था, ''राम जी भगवान थे। वे सीता माता को अग्नि में भी बिना किसी कष्ट के जीवित रख सकते थे, इसीलिए उन्होंने संसार के सामने सीता माता की पवित्रता प्रमाणित करने के लिए अग्नि परीक्षा ली।''
उस प्रश्नकर्ता को यह उत्तर स्वीकार नहीं था। उसे लगा कि स्वामी जी उसे टाल रहे हैं। उसने कहा, ''हम इस बात को नहीं मानते। राम जी मनुष्य के रूप में आए थे तो उन्हें मनुष्य की क्षमता के भीतर ही रखना होगा।''
स्वामी जी ने कहा था, ''आप ठीक कह रहे हैं। मनुष्य की क्षमता के भीतर रख कर सोचिए। यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को आग में झोंक कर उसकी परीक्षा ले सकता है और दूसरा व्यक्ति जलती आग में से बिना झुलसे सकुशल बाहर आ सकता है, तो राम जी ने सीता माता की परीक्षा ली।''
''यही तो बात है।'' प्रश्नकर्ता ने कहा, ''मनुष्य आग में से जीवित बच कर नहीं निकल सकता।''
''ठीक है।'' स्वामी जी ने कहा, ''आपके तर्क से चलते हैं। इसीलिए न राम जी ने परीक्षा ली, न सीता माता ने परीक्षा दी। यह तो एक कवि का काव्य कौशल भर है।''
''यह कैसे हो सकता है।'' वे भड़क उठे, ''जब रामायण में लिखा है कि राम जी ने अग्निपरीक्षा ली तो हम कैसे मान लें कि वह कवि का कौशल भर है।''
''अरे एक ओर हो जाओ न भाई।'' मैंने पूरे आत्मबल के साथ कहा, ''या तो राम जी को भगवान मानो या मत मानो। वे भगवान थे तो उनमें अपनी पत्नी क्या, किसी को भी अग्नि में जीवित रखने का सामर्थ्य था और यदि वे भगवान नहीं थे, मनुष्य थे - तो न मनुष्य ऐसी परीक्षा ले सकता है और न कोई मनुष्य ऐसी परीक्षा दे सकता है।''

वे चुप हो गए। सहमत हुए या नहीं हुए - मैं नहीं जानता। पर मैं तब से सोच रहा हूँ कि हमें ऐसे और भी बहुत सारे प्रश्नों पर विचार करना चाहिए। किसी की भी परीक्षा वैसी ही होती है, जैसे उस युग में प्रचलित परीक्षाएँ होती हैं। क्या रामकथा के समय में सत्य और झूठ का निर्णय करने के लिए अग्निपरीक्षा का प्रचलन था? क्या किसी और स्त्री या पुरुष ने भी ऐसी कोई परीक्षा दी थी? या सचमुच यह कवि का चमत्कार ही था? काव्य-रूढ़ि भी हो सकती है, कवि का चमत्कार भी हो सकता है और कवि की राम के ईश्वरत्व में दृढ़ आस्था भी हो सकती है। तब इंद्र, वरुण, कुबेर, अग्नि, वायु, सूर्य और धरती साकार - सशरीर प्रकट भी होते थे। उस युग की चिंतन पद्धति अथवा घटना पद्धति कुछ और ही थी। तो हम अपनी अक्षमताओं को उन पर थोप कर स्वयं परेशान क्यों होते हैं और साथ ही उन महान चरित्रों के प्रति अपनी अश्रद्धा प्रकट क्यों करते हैं?

1 नवंबर 2007

 
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