|
नारायण दत्त एक जाने माने
शिक्षाविद थे। विद्यालयों में उनका किसी न किसी रूप में जाना
होता रहता था। जहाँ जाते लोग उनको हाथों-हाथ उठा कर रखते। इस
बार वह एक छोटे से महाविद्यालय की अनुदान स्वीकृत के लिए गए।
उनको यह जान कर थोड़ा रोष हुआ कि उनकी सुख सुविधा के लिए केवल
एक विद्यार्थी को भार सौंपा गया था। वह प्रोफ़ेसरों और
विद्यार्थियों को आगे पीछे देखने के आदी थे। दूसरे दिन उगते ही
उषा की लाली की ही भाँति एक कृषकाया ने अपना परिचय दिया,
''सर मैं शची हूँ, आपको कॉलेज ले चलूँगी।''
इसके बाद उसने जिस सहजता और कुशलता से उनके खानपान ठहरने से ले
कर कॉलेज के कार्यक्रम को सँभाला उससे उनका सारा रोष जाता रहा।
तीन दिनों में ही जब तक नारायण दत्त वहाँ रहे, एक तरह से उस पर
आधारित हो गए। दीनहीन परिवार की वह लड़की रूप, गुण, आचरण से
संपन्न थी। दिन पर दिन प्रबल होती आशा के वशीभूत नारायण दत्त
में शची को अपने बेटे चंदन की बहू बनाने की लालसा पनप उठी।
लेकिन बात उनके सोचने जितनी आसान नहीं थी। चर्चा करते ही पत्नी
नारायणी ने विरोध जताया, "नहीं मैं अपने बेटे का विवाह ऐसी
वैसी जगह नहीं करूँगी। घरबार, मान मर्यादा हमारे बराबर तो हो।
मेरे विचार में तो मेरी सहेली सुनीता की बेटी प्रतिमा ही चंदन
के लायक है।"
|