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इधर एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया। बंदरों
के भद्दे चेहरे लगाए, आधी टाँगों का पाजामा और काले रंग का ऊँचा कुर्ता पहने
आदमियों को दौड़ते, हू-हू करते देखकर अब हँसी आती है, मज़ा नहीं आता। काशी की लीला
जगद्विख्यात है। सुना है, लोग दूर-दूर से देखने आते हैं। मैं भी बड़े शौक से गया,
पर मुझे तो वहाँ की लीला और किसी वज्र देहात की लीला में कोई अंतर न दिखाई दिया।
हाँ, रामनगर की लीला में कुछ साज-सामान अच्छे हैं। राक्षसों और बंदरों के चेहरे
पीतल के हैं, गदाएँ भी पीतल की हैं, कदाचित बनवासी भ्राताओं के मुकुट सच्चे काम के
हों; लेकिन साज-सामान के सिवा वहाँ भी वही हू-हू के सिवाय कुछ नहीं। फिर भी लाखों
आदमियों की भीड़ लगी रहती।
लेकिन एक ज़माना वह था, जब मुझे भी रामलीला में
आनंद आता था। आनंद तो बहुत हलका-सा शब्द है। वह आनंद उन्माद से कम न था। संयोगवश उन
दिनों मेरे घर से बहुत थोड़ी दूर पर रामलीला का मैदान था, और जिस घर में
लीला-पात्रों का रूप-रंग भरा जाता था, वह तो मेरे घर से बिलकुल मिला हुआ था।
दो बजे दिन से पात्रों की सजावट होने लगती थी। मैं
दोपहर ही से वहाँ जा बैठता, और जिस उत्साह से दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम करता, उस
उत्साह से तो आज अपनी पेंशन लेने भी नहीं जाता।
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