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'मार उडारी नि चिड़िए, तू मार उड़ारी'
हॉल के कोने-कोने से गूँजती मधुर धुन और सामने भारत की
भिन्न-भिन्न वेश-भूषा में सजे ब्रेक डान्स और भांगड़ा की लय
बीच भाव-भंगिमा बदलते नर्तक-नर्तकियाँ। सामने स्टेज पर भारी
रेशमी परदे और उनपर आते जाते लोगों की लंबी-लंबी थिरकती
साँप-सी बलखाती आदमकद परछाइयाँ ऱंग-बिरंगी बीम्स पर चढ़ी उनसे
भी ज़्यादा तेज़ नाचती हुई। माहौल में पूरी तरह से डूबी पैरिस
की आँखे कोने-कोने का जायज़ा लेने लगीं, कहीं मेंहदी, चूड़ी,
और बिंदी की डिज़ाइनों का ढेर तो कहीं हँस-हँस सब कुछ छाँटती
ख़रीदती किशोरियाँ। कहीं भारत की हस्तकला में डूबे तरुण तो
कहीं मंत्रमुग्ध अपनी हस्त रेखाओं में भविष्य ढूँढ़ता
विद्यार्थियों का जत्था।
एक जोशीला और रंगीन माहौल था
विद्यालय के उस प्रांगण में मानो नन्हा भारत बादलों के पंख चढ़
उतर आया हो वहाँ अपना सारा उल्लास और समन्वय समेटे हुए। गोरे
काले सभी देश और भूषा के बच्चे माथे पर टीका लगाए, माला पहने
घूम रहे थे। हाथ की बनी रंग-बिरंगी और आकर्षक तैरती हुई
मोमबत्तियाँ, किताबें, खिलौने, कपड़े सभी कुछ तो था वहाँ पर और
माहौल को परवान चढ़ा रही थी महकती चंदन चमेली की मोमबत्तियों
के धुएँ में गडमड बगल के रसोईघर से उठती ज़ायकेदार छोले,
पकौड़ियों और गुलाबजामुनों की सोंधी-सोंधी महक, हँसी कहकहों और
प्यार के रस में पगी-रची।
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