जिसे देखिए वही दीपक जलाने पर उतारू दिखाई
देता है। दीपावली पर तो दियों की शामत ही आ जाती है, जब उन्हें पंक्तिबद्ध
प्रज्वलित किया जाता है। कोई सुराती अर्थात सोलह दिये, कोई पच्चीस, कोई पचास, कोई
सौ, तो कोई क़तारों की क़तारें जलाता है। जहाँ देखिए, वहाँ दीपक ही दीपक और दीपों की
लड़ियाँ।
ठीक भी है, बेचारा ग़रीब और मिट्टी का छोटा–सा
दिया जो ठहरा, इसलिए जलता ही है। कोई किसी हौज या बड़ी टंकी या मिट्टी की नांद को
क्यों नहीं जलाता? अपने वहाँ तो जो सीधा–साधा हो और पकड़ में आ जाए, वही हमेशा पकड़ा
जाता है। दीपक तो बेचारा अनादिकाल से जलता आ रहा है। कई धार्मिक स्थानों पर तो
अखंड ज्योति के रूप में अखंड रूप से जलता रहता है। दिये की नियति ही है जलना और
दिन–रात जलना। कभी किसी ने बेचारे दिये से पूछा – कि हाय रे दिये। कैसे सदा जलते
रहते हो? वह तो माटी का छोटा सा दिया है, सो आ गया हमारी पकड़ में और फिर हम जलाते
आ रहे हैं उसे अनंतकाल से।
अपना तो थोड़ी देर के लिए भी दिल जलता है, तो आफ़त-सी आ जाती है।
ग़ुस्से में शरीर
जलता है, तो हम बेफ़ाम हो जाते हैं। बुखार में जब हमारा तन जलता है, तो हम बकबक करने
लगते हैं। किसी का घर जलता है, तो दूसरा घर बन जाता है। ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति का घर
या माल असबाब जलता है, तो सरकार भी क्षतिपूर्ति कर देती है। बहुएँ जलती हैं, तो
दूसरी आ जाती हैं, बहुओं की कमी नहीं पड़ती है। दीपक तो जलता ही रहता है, सदियों से
जलता चला आ रहा है। किसी ने सोचा ही नहीं कि उसे छोड़ और किसी को जलाएँ।
आजकल बिजली के लट्टू हैं, फिर भी दिये का संग
नहीं छूटता है। बिजली की आँख मिचौनी में दिया ही हमारा संग देता है। पूजा में भले
ही लाख बल्बों की मालाएँ हों, लेकिन दिये बिना पूजा नहीं होती है। अब ये कौन–सी बात
हुई कि पूजा किसी और की होती है और तन जलता है किसी और का। दूसरे को जलाकर कौन-सी
पूजा? आस्था और विश्वास का भी क्या कहें? दीपक से ही पूजा होती है और दीपक से ही
आरती।
दीपक अपना तन जलाकर प्रकाश देता है, लेकिन हम बदनामी भी उसी की करते हैं। कभी दीपक
से अनायास कुछ हो गया, तो हम झट से कह उठते हैं कि 'घर में ही आग लग गई घर के
चिराग से।' अब असावधानी आप करें और दोषारोपण करें दिये पर, यह भी कोई बात हुई? कुल
दीपक अपनी गृहलक्ष्मी को साक्षात और सरे आम जला रहे हैं, तो कोई बात नहीं और उधर
दीपक से कुछ हो गया, तो उसकी कहावत गढ़ ली।
दीपक के पीछे सबसे अधिक पंडित और महिलाएँ पड़ी
रहती हैं। पंडितगण तो हर अच्छे और हर बुरे काम में दीपक जला बैठते हैं। भगवान के
सम्मुख भी दीपक जलाया जाता है और मैयत पर भी वह जलता है। दीपक बेचारा समभाव से जलता
है। महिलाएँ भी दीपों को सर्वाधिक
परेशान करती हैं। घर में, बाहर, तुलसी चौरे पर, मंदिर में, सब जगह दीप जलाती हैं।
दीपक जलाकर मन्नतें माँगती हैं। दीपक जलाने तक तो ठीक, दीपक दान किया जाता है।
दीपदान कर दीपों को नदी में बहाया जाता है। बताइए भला कि किसी की जान पर खेलना
क्या ठीक कहा जा सकता है? नन्हें दीपक की जान क्या जान नहीं हैं?
बिरहिणी नायिकाएँ तो दीपक को अपनी छाती से छुआकर जलाने की कोशिश करती हैं, लेकिन
दीपक की शालीनता देखिए कि वह कुछ करता या कहता नहीं है। दीपक इतना तो बेहया है
नहीं कि किसी के वक्ष से लगने को तैयार हो जाए, लेकिन रीतिकालीन कवि तो पीछे ही
पड़े हैं और कहते हैं कि – छाती सों छुआ दिया बाती आन जारि ले। उधर एक नवयुवती
जलते दीपक को हवा से बचाते हुए, अपने आँचल में छिपाकर ले जा रही हैं। यद्यपि हमेशा
दीपक पर ही पतंगे दीवाने होते आए हैं, दिये ने कभी कुछ नहीं किया, लेकिन रीतिकालीन
कवि बिहारी ने इस महिला के आँचल प्रसंग में कल्पना गढ़कर दीपक के चरित्र पर ही लांछन
लगा दिया है, देखिए यों –
दीपक हिये छिपाय नवलवधू घर तैं चलीं
कर विहीन पछिताय कुछ लखि निज सीसहिं धुने।
अर्थात दीपक, युवती के आँचल के अंदर उसके उरोज़ों को देखकर पछतावा कर रहा है कि हाय
उसके भी हाथ होते, तो वह भी मन की मुराद पूरी कर लेता। अब भले ही कवि ने मजाक में
कल्पना की उड़ान भरी है, लेकिन दीपक के प्रति तो ग़लत धारणा पैदा कर दी। यदि दीपक भी
मनुष्य होता, तो बिहारी जी पर चरित्र हनन का मुकदमा ठोक देता।
दीपक का कभी कोई ध्यान नहीं रखता है, जब चाहे उसे जला बैठता है, दिन में, रात में,
सुबह, शाम, कभी भी। दीपक का काम ही जलना है और लोगों का काम है – जलाना। अब यह भी
देखिए कि बेचारे दीपक का लिंग ही बदल दिया है। उर्दू शायर उसे शमा कहते हैं। अच्छे
भले दिये या दीपक को शमा कहना कौन-सी अच्छाई या मजबूरी है, यह मेरी समझ में नहीं
आता है। शायरों की शमा देखिए –
ठंडी हुई जो शमाए–मुहब्बत इक बार।
वो फिर न जली, फिर न जली, फिर न जली।
एक शायर अपनी अहसास की शमा को कुछ अपने ढंग से जलाए रखने को कहते हैं –
अहसास की शम्मा को, इस तरह जला रखना
शायद कोई आ जाए, दरवाज़ा खुला रखना।
दीपक जलता है और जलता ही रहता है – सब सोते हैं और दीपक या शम्मा रातभर जलती है।
'शम्मा जलती रही हर हाल में सहर होने तक'। उधर हमारी अहसान-फ़रामोशी की भी इंतिहा
हो गई। दीपक जलता है और कहने वाले अपने ढंग से कुछ और ही कहते हैं। कहने वालों का
भी कहाँ तक मुँह बंद किया जाए? ये कहते हैं कि तेल और बाती जलती है और दीपक का
मुफ़्त में ही नाम होता है। इस बारे में एक दृष्टांत ही बना दिया –
तेल जले बाती जले, नाम दिया को होय।
लड़के खेले यार के, नाम पिया को होय।
अब लिखने वालों से या कहने वालों से ही पूछा जाय कि वे स्वयं दिये होते और उनमें
तेल भरकर बत्ती लगा दी जाती, तब उन पर क्या बीतती? तब फिर उचकते और बताते कि दूसरों
की हँसी उड़ाने में और असलियत में क्या फ़र्क है?
दीपक तले अँधेरा कहकर दीपक की हँसी उड़ाई जाती है। अब दीपक तले अँधेरा है, तो किसी
के पिता श्री का क्या लिए है? आपके नीचे अँधेरा हो, तो किसी को क्या गरज पड़ी है कि
आपके नीचे टॉर्च की रोशनी फेंकता फिरे? दीपक दूसरों को प्रकाश देता है और अगर उसके
नीचे अँधेरा है, तो दूसरों को क्या दिक्कत है? लेकिन ऐसा नहीं है, लोगों को तो सदा
दूसरों के फटे में पाँव फँसाने की आदत जो बन गई है।
जलने के लिए दिल चाहिए और दिल केवल दिये के पास ही होता है। कुम्हार उसे बनाता
है, आग में तपाता है और फिर बेचारा दिया सारे जीवन जलता हुआ प्रकाश बाँटता है। दीपक
जलता है और आँधी तूफ़ानों से टक्कर भी लेता है। दिल के साज़ का दामन जल जाए, तो
बेचारे दिये की क्या ग़लती? लेकिन नहीं, दिये को ही दोष देना है सो हम उसे ही दोष
देते हैं। आँधियों से अगर हमने दिये को बचाया है, तो अपने ही स्वार्थ के लिए। फिर
उसकी लौ से कोई जल जाए, तो दीपक क्या करे? दोष देने वाले तो दीपक को ही दोष देते
हैं –
मैंने जिसको दूर रक्खा आँधियों के वार से
उस दिये की लौ से दिल के साज का दामन जला।
शमा जलती है और रात भर महफ़िल को प्रकाशित करती रहती है। अब अगर परवाना उसकी लौ की
तरफ़ आकृष्ट होकर जल मरे, तो शमा का क्या कसूर? शमा किसी को न्यौता देने तो जाती
नहीं, परवाना स्वयं मरता है, तो शमा पर दफ़ा तीन सौ दो का मुक़द्दमा तो चलने से रहा?
जल बुझा वो शमा पर, मैं मर मिटा इस रक्क पर
मौत परवाने की थी, या मौत का परवाना था।
शमा कोई जंगल की आग तो है नहीं या कोई भूतप्रेत, लेकिन शायर भी कैसे–कैसे डर पैदा
करके शमा को दोष देते हैं – शमा से बच के रहना, तन मन को जला देगी।
अगर आदमी को फ़ायदा ही फ़ायदा हो गया, तो कहा
जाता है कि उसके पास तो अलादीन का चिराग़ है। यदि कुछ काम न हुआ, तो दोष दिया जाता
है कि क्या इसके पास अलादीन का चिराग़ है? अब क्या बताया जाए, बेचारे दीपक, चिराग
या शमा की किस्मत ही ऐसी है कि प्रकाश भी बाँटे और लांछन भी सुने –
क्या बताएँ हम तुम्हें शम्मा की किस्मत
जलने के सिवा उसे रक्खा ही क्या है?
लेकिन ऊपरवाला मेहरबान तो नीचे का गधा भी पहलवान होता है, अत: –
वो शमा क्या बुझे, हिफ़ाज़त जिसकी खुदा करे।
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