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निबंध

दीया दिवाली का
-सरदार अहमद अलीग
 


उर्दू साहित्य में सांप्रदायिक एकता, सद्भावना, सभी धर्मों का सम्मान, मेल-जोल और मानव प्रेम की भावनाएँ उसी तरह रची-बची हैं, जैसे सूर्य में प्रकाश और गुलाब में खुशबू। उर्दू भाषा एवं साहित्य का स्वरूप इन्हीं तत्वों से मिलकर बना है और आज भी इसकी यही विशिष्टता है। इस भाषा के हिंदू शायरों ने अगर एक ओर मुसलमानों के त्योहारों पर नज़्में लिखी हैं, तो दूसरी और उर्दू के मुसलमान शायरों ने भी अपने हृदय की गहराइयों से अपने हिंदू भाइयों के त्योहारों के रंग और आहंग की झलकियाँ अपनी रचनाओं में प्रस्तुत की हैं।

यह सिलसिला उर्दू काव्य के आरंभ से अब तक चला आ रहा है। इसके सबूत में बहुत पहले के शायरों, जैसे मनसवी 'कदम राव पदम राव' के शायर 'निजामी', हिंदुस्तान के आशिक अमीर खुसरो, दक्षिण भारत के राजा कवि मुहम्मद अली कुतुब, 'इंद्रसभा' के कवि 'अमानत', उत्तर भारत के फाईज देहलवी, 'विकट कहानी' के शायर अफ़जल, गज़लों के इमाम मीर तकी मीर और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक 'नज़ीर अकबराबादी' के नाम आसानी से गिनाए जा सकते हैं। इस परंपरा को आगे बढ़ाने में आज के उर्दू शायर पूरा सहयोग दे रहे हैं। मैं संक्षेप में इसकी कुछ झलकियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। शुरुआत नजीर अकबराबादी की नज़्म के दो छंद से कर रहा हूँ।

हर एक मकां में जला फिर दीया दिवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिल में समां भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा खुश लगा दिवाली का
अजब बहार का दिन है बना दिवाली का
मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते हैं कि लाला दिवाली है आई
बताशे ले कोई, बर्फी किसी ने तुलवाई
खिलौनेवालों की उनसे ज़्यादा बन आई
गोया उन्हीं के वां राज आ गया दिवाली का।

आधुनिक युग में उर्दू के सुप्रसिद्ध आलोचक एवं शायर आल अहमद सुरूर ने दिवाली पर एक नज़्म में कहा है कि इंसान दुख-दर्द की लपेट में होते हुए भी रोशनी के इस त्योहार में बुराइयों का अँधेरा मिटाने और अच्छाइयों का प्रकाश फैलाने के पवित्र कार्य में लगा हुआ है।

यह बामोदर', यह चिरागां
यह कुमकुमों की कतार
सिपाहे-नूर सियाही से बरसरे पैकार।'
यह जर्द चेहरों पर सुर्खी फसुदा नज़रों में रंग
बुझे-बुझे-से दिलों को उजालती-सी उमंग।
यह इंबिसात का गाजा परी जमालों पर
सुनहरे ख्वाबों का साया हँसी ख़यालों पर।
यह लहर-लहर, यह रौनक,
यह हमहमा यह हयात
जगाए जैसे चमन को नसीमे-सुबह की बात।
गजब है लैलीए-शब का सिंगार आज की रात
निखर रही है उरुसे-बहार आज की रात।
हज़ारों साल के दुख-दर्द में नहाए हुए
हज़ारों आर्जुओं की चिता जलाए हुए।
खिज़ाँ नसीब बहारों के नाज उठाए हुए
शिकस्तों फतह के कितने फरेब खाए हुए।
इन आँधियों में बशर मुस्करा तो सकते हैं
सियाह रात में शम्मे जला तो सकते हैं।

ग़ज़ल का रंग-ओ-ढंग लिए हुए उमर अंसारी ने दिवाली पर एक लंबी नज़्म लिखी है, जिसके एक अंश का लुत्फ़ उठाइए -

रात आई है यों दिवाली की
जाग उट्ठी हो ज़िंदगी जैसे।
जगमगाता हुआ हर एक आँगन
मुस्कराती हुई कली जैसे।
यह दुकानें यह कूच-ओ-बाज़ार
दुलहनों-सी बनी-सजीं जैसे।
मन-ही-मन में यह मन की हर आशा
अपने मंदिर में मूर्ति जैसे।

उर्दू के एक विख्यात शायर नाजिश प्रतापगढ़ी अपनी नज़्म 'दीपावली' में कहते हैं कि प्रकाश के इस त्योहार के अवसर पर हम अँधेरे से निकलने के लिए ईश्वर से विनती करते हैं, परंतु दिवाली की रात के बाद हम अपनी इस विनती को भूल जाते हैं। नाजिश का अंदाज़ देखिए -

बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
कदम-कदम पर हज़ारों दीये जलाते हैं।
हमारे उजड़े दरोबाम जगमगाते हैं
हमारे देश के इंसान जाग जाते हैं।
बरस-बरस पे सफीराने नूर आते हैं
बरस-बरस पे हम अपना सुराग पाते हैं।
बरस-बरस पे दुआ माँगते हैं तमसो मा
बरस-बरस पे उभरती है साजे-जीस्त की लय।
बस एक रोज़ ही कहते हैं ज्योतिर्गमय
बस एक रात हर एक सिम्त नूर रहता है।
सहर हुई तो हर इक बात भूल जाते हैं
फिर इसके बाद अँधेरों में झूल जाते हैं।

एक जश्न के अवसर पर एक नया उर्दू शायर महबूब राही इन शब्दों में अपनी प्रसन्नता का इज़हार कर रहा है -

दिवाली लिए आई उजालों की बहारें
हर सिम्त है पुरनूर चिरागों की कतारें।
सच्चाई हुई झूठ से जब बरसरे पैकार
अब जुल्म की गर्दन पे पड़ी अदल की तलवार।
नेकी की हुई जीत बुराई की हुई हार
उस जीत का यह जश्न है उस फतह का त्योहार।
हर कूचा व बाज़ार चिराग़ों से निखारे
दिवाली लिए आई उजालों की बहारें।

अंत में इस हसीन और रोशनी से जगमगाते त्योहार पर मैं अपनी एक नज़्म के कुछ शेर प्रस्तुत करते हुए यह लेख समाप्त करता हूँ -

फिर आ गई दिवाली की हँसती हुई यह शाम
रोशन हुए चिराग खुशी का लिए पयाम।
यह फैलती निखरती हुई रोशनी की धार
उम्मीद के चमन पे यह छायी हुई बहार।
यह ज़िंदगी के रुख पे मचलती हुई फबन
घूँघट में जैसे कोई लजायी हुई दुल्हन।
शायर के इक तखय्युले-रंगी का है समां
उतरी है कहकशां कहीं, होता है यह गुमां।

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