| वर्ण–वृत तथा मात्रिक छंद 
                      मात्रा–गणना पर आधारित छंद 'मात्रिक छंद' कहे जाते हैं। 
						इनमें गुरू–लघु वर्णों की संख्या एवं क्रम असमान होते हुए 
						भी, मात्राओं का कुल योग, प्रतिचरण, समान होता है, जैसे 
						दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ –                      
                       
                      एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है                      ऽ।।।ऽऽ।ऽ।।।।।ऽऽऽ।ऽ = २६ मात्राएँ
 आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है
 ऽ।ऽ।।ऽ।ऽऽऽ।।।ऽऽ।ऽ = २६ मात्राएँ
 इसके विपरीत, वर्ण–वृत संस्कृत गणों पर आधारित होते हैं और 
						इस प्रकार उनका गठन क्रमबद्ध, सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित 
						होता है। संस्कृत गण तीन–तीन वर्णों के आठ स्वतंत्र समूहों 
						में, संस्कृत सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' पर आधारित हैं, जो 
						इस प्रकार हैं।
 १ .यमाता(।ऽऽ), २ .मातारा(ऽऽऽ), ३ .ताराज (ऽऽ।), ४ 
						.राजभा(ऽ।ऽ), ५ .जभान(।ऽ।), ६ .भानस(ऽ।।), ७ .नसल(।।।), ८ 
						.सलगा(।।ऽ)। इनके पहले अक्षर से गणों के नाम रखे गए हैं, 
						जो इस प्रकार हैं,
 
                        नाम     गण      
						समान शब्द१ .यगण   ।ऽऽ     सहारा, 
						परिंदे, अजंता
 २ .मगण   ऽऽऽ     जामाता, 
						चिंगारी, आईना
 ३ .तगण    ऽऽ।    संसार, 
						आरोह, अंजाम
 ४ .रगण   ऽ।ऽ    रोशनी, चेतना, 
						सामना
 ५ .जगण   ।ऽ।     प्रकाश, 
						पुकार, कमंद
 ६ .भगण   ऽ।।    शंकर, श्रीफल, 
						निर्मल
 ७ .नगण   ।।।    कमल, ग़ज़ल, निकट
 ८ .सगण   ।।ऽ    जनता, कथनी, कमला
 
 
                      इन संस्कृत गणों से अवगत होने के बाद, वर्ण–वृतों की 
						सुव्यवस्थित गण–योजना को भली भांति समझा जा सकता है, 
						उदाहरणार्थ मंद्राक्रांता वर्ण–वृत।गण–योजना : ऽऽऽ–ऽ।।–।।।–ऽऽ।–ऽऽ।†ऽऽ
 गणों के नाम : मगण–भगण–नगण–तगण–तगण†दो गुरू
 
                      
                      इस वर्ण–वृत में १७ वर्ण, प्रति चरण ४: ६: ७ के विश्राम से 
						आए हैं, वर्ण–गणना में केवल वर्णों की गिनती की जाती है, 
						लघु–गुरू में भेद नहीं किया जाता। 'चरण' से अभिप्राय 
						पंक्ति अथवा मिस्रा है। यह वह वर्ण–वृत है, जिसका प्रयोग 
						कवि कालिदास ने अपनी महान कृति "मेघदूत" में किया था। यह 
						सत्रह–अक्षरीय छंद 'अतियष्टि' जाति का एक भेद है। इस जाति 
						के वर्ण–वृतों के १,३१,०७२ भेद हैं।                      
                       
                      इस वर्ण–वृत में मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित पंक्तियाँ 
						उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत हैं–
                       
                      दो वंशों में प्रकट करके 
						पावनी लोक लीला                      सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियाँ पूत शीला
 त्यागी भी हैं शरण जिनके¸ जो अनासक्त गेही
 राजा योगी  जय जनक¸ वे पुण्य देही, विदेही – साकेत, 
						नवमसर्ग
 
                      
                      रेखांकित शब्दांश – कट, कर, धिक, जिन, रण, जिन, नक – उर्दू 
						में दो–अक्षरीय गुरू वर्ण माने जाते हैं, जबकि हिंदी में 
						इनके प्रत्येक अक्षर की एक मात्रा गिनी जाती है।                      
                       
                      
                      दो–अक्षरीय गुरू वर्ण, उर्दू वर्ण–वृतों(बहरो–वज़न) के दायरे 
						को व्यापकता प्रदान करते हैं संस्कृत वर्ण–वृतों के सीमित 
						दायरे के कारण और उनकी तुलना में, मात्रिक छंदों के अधिक 
						मुक्त होने से, हिंदी में मात्रिक छंदों का ही व्यापक 
						प्रयोग हुआ है। डा .जगदीश गुप्त के अनुसार–"संस्कृत साहित्य में, विशेष रूप से वर्ण–वृतों का सर्वाधिक 
						प्रयोग हुआ है। मात्रिक छंदों की प्रवृति वर्ण–वृतों की 
						तुलना में अधिक मुक्त तथा सरल रही है, लोक प्रचलित आधुनिक 
						भाषा रूपों में तथा प्राचीन प्राकृत और अपभ्रंश में इन्हीं 
						छंदों का व्यापक प्रयोग मिलता है। गेयता के भी अधिक अनुरूप 
						सिद्ध होते हैं। हिंदी साहित्य में मात्रिक छंदों का विशेष 
						प्रभुत्व रहा है।" (हिंदी साहित्य कोश भाग–१)
 किंतु मात्रिक छंदों द्वारा प्रदत स्वतंत्रता से रचना की लय 
						बाधित न हो, इसका ध्यान रखना आवश्यक है, विशेषकर, ग़ज़लों 
						की लयबद्धता का। रचना की सभी पंक्तियों की मात्राओं का 
						समान होना, सही लय का परिचायक नहीं है। प्रति चरन बारह 
						मात्राओं वाले मात्रिक छंदों को ही लें। उनके २३३ भेद हैं, 
						जिन में लय का अंतर होना स्वाभाविक है। अतः रचना की सही 
						छंदोबद्धता के लिए मात्राओं के समान योग पर भरोसा नहीं 
						किया जा सकता। हर रचना की विशिष्ट लय को ही लेकर चलना 
						पड़ेगा, जिसका निर्धारण करना होगा। यह दुविधा उर्दू के 
						सर्वसमावेशी वर्ण–वृतों में नहीं है, क्योंकि उनकी लय, 
						गणों के सुनिश्चित क्रम में ही निहित होती है। यही कारण है 
						कि अधिकतर ग़ज़लकार उर्दू वर्ण–वृतों में ही ग़ज़ल कहना 
						पसंद करते हैं।
 
                      उर्दू अरकान(घटक)(क) अरकान सामिल(पूर्णाक्षरी)     समान 
						शब्द
 १. फ–ऊ–लुन(।ऽऽ)           
						कहानी, सरलतम  २. फा–इ–लुन(ऽ।ऽ)           
						ज़िंदगी, आचमन  ३. मफा–ई–लुन (।ऽऽऽ)        
						वफादारी, सफल  ४. मुस–तफ–इ–लुन(ऽऽ।ऽ) 
						मुज्मूई    स्वीकारना, सुंदर
						 ५. फा–इ–ला–तुन(ऽ।ऽऽ) 
						मुज्मूई     खूबसूरत, ज़िंदगानी  ६. मु–त–फा–इ–लुन(।।ऽ।ऽ)      
						कभि–आ–भि–जा
                           ७. मफा–इ–ल–तुन(।ऽ।।ऽ)       
						ब–हा–र–चमन
                           ८. मफ–ऊ–ला–तु(ऽऽऽ।)        
						दिल–की–चाह  
                      
                      क्रमांक ६–७ पर लयात्मक स्वरापात का नियम लागू होता है।
                      
                       
                      टिप्पणी– क्र .सं .(४)तथा(५)मफ़रूक़ी भी हैं। इनमें केवल 
						उर्दू लिखाई का अंतर है।(ख) मुज़ाहिफ(अपूर्णाक्षरी)अरकान
 (१)फ–इ–लुन(।।ऽ), (२)मफा–इ–लुन(।ऽ।ऽ), (३)फ–इ–ला–लुन(।।ऽऽ), 
						(४)म–फा–ई–लु(।ऽऽ।), (५)मुफ–त–इ–लुन(ऽ।।ऽ), 
						(६)फ–ऊ–लु(।ऽ।), (७)मफ–ऊ–लु(ऽऽ।), (८)मफ–ऊ–लुन(ऽऽऽ), 
						(९)फै–लुन(ऽऽ), (१०) फा(ऽ), (११)फ–अल्(।ऽ), 
						(१२)फ–उ–ल्(।ऽ।)
 (१३)फा अ,(१४)फा इ लुन, (१५)फ ऊ लुन
 ऽ ।      ऽ । ऽ     
						। ऽ ऽ
 (क्रम सं .१४ तथा १५ यहाँ अपूर्णाक्षरी हैं, ऐसे पूर्णाक्षरी 
						घटक भी हैं)
 
                      
                     	यहाँ इन अपूर्णाक्षरी घटकों का वर्णन संक्षिप्त रूप में ही 
						किया गया है। प्रत्येक पूर्णाक्षरी घटक के अपने–अपने 
						अनेकानेक रूप हैं। पंक्तियों के शुरू, मध्य तथा चरणांत में 
						इनके स्थान सुनिश्चित हैं, पूर्णाक्षरी तथा अपूर्णाक्षरी 
						घटकों के सम्मिलन से वर्ण–वृत(बहरो–वज़न)निर्मित होते हैं।                      २४ मई २००५
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