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						पिंगल'पिंगल' उस मनीषी छंदाचार्य का शुभ नाम है, जिसने संस्कृत 
						छंद–शास्त्र को सर्वप्रथम सुव्यवस्थित रूप दिया। यह छंद 
						शास्त्र का पहला ग्रंथ माना जाता है और इसे 'पिंगल छंद 
						शास्त्र' के नाम से जाना जाता है। इसमें प्रतिपादित 
						'छंद–सूत्र' आठ ग्रंथों में समाहित हैं। इसी के आधार पर 
						अग्निपुराण के 'आग्नेय छंद–शास्त्र' की रचना हुई। पिंगल का 
						नाम छंद–शास्त्र से कुछ इस घनिष्ठता से जुड़ा हुआ है कि वह 
						छंद–शास्त्र का पर्याय बनकर रह गया है, 'छंद–सूत्र' के 
						आधार पर ही बाद में संस्कृत के अन्य छंद–ग्रथों का सृजन 
						हुआ। संस्कृत छंद–ग्रंथों के अतिरिक्त, प्राकृत, अपभ्रंश 
						तथा हिंदी में भी बहुत से छंद–शास्त्र सृजित किए गए। हिंदी 
						छंदाचार्यों में सुखदेव, केशवदास, मतीराम, पद्माकर, गदाधर 
						भट्ट, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' आदि के नाम प्रमुख हैं।
 
                      
                      इतना ही नहीं, खलील का अरबी छंद–शास्त्र 'इल्मे अरूज़' भी 
						पिंगल के छंद–सूत्र ही से प्रेरित होकर अस्तित्व में आया 
						है, जो फ़ारसी में अनूदित होता हुआ, उर्दू में लिखा जाकर, 
						इल्म–अरूज़ के नाम से जाना गया। डॉ .कुंदन अरावली ने अपनी 
						खोजपूर्ण कृति–इहतिसाबुल–अरूज़– (प्रथम संस्करण १९९१) के 
						पृष्ठ ११ पर पिंगल की महानता को सिद्ध करते हुए लिखा है कि 
						"हज्रत ख़लील ने छंद–शास्त्र इल्मे–अरूज़ के अतिरिक्त, 
						ध्वनि सिद्धांत पर एक अबजद भी तैयार किया था जिस पर 
						संस्कृत का प्रभाव झलकता है, जिसके सृजन में उन्हें पिंगल 
						आदि छंद–ग्रंथों से भी पूर्ण सहायता मिली होगी। दोनों ही 
						शास्त्रों में मूल इकाइयों और बहुत–से छंदों में समानता से 
						यह तथ्य और भी तर्क संगत हो जाता है।"
                       
                      
                     	साधारणतया, ग़ज़लों में हिंदी तथा उर्दू, दोनों ही प्रकार 
						के, छंदों का प्रयोग किया जाता है, अतः उन पर साथ–साथ 
						विचार करना उचित प्रतीत होता है।                       
                      
                      इससे पहले कि 'छंद' शब्द पर विस्तार से विचार किया जाए, छंद 
						की व्युत्पति एवं परिभाषा से अवगत होना भी आवश्यक है। छंद 
						कब अस्तित्व में आया, यह केवल कल्पना का विषय है, किंतु इस 
						शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है । छंदबद्ध 
						वैदिक मंत्रों के लिए ऋग्वेद के अतिरिक्त, उपनिषद तथा 
						सामवेद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। छंद छः वेदांगों में 
						से एक हैं। अन्य वेदांग हैं – शिक्षा, व्याकरण, निरूक्त, 
						ज्योतिष तथा कल्प।
                      
                       
                      
                     	डॉ .जगदीश गुप्त के अनुसार –"छंद की व्युत्पति 'छद्' धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ 
						आवृत करने या रक्षित करने के साथ–साथ, प्रसन्न करना भी 
						होता है। प्रसन्न करने के ही अर्थ में निघंटु में छंद धातु 
						भी मिलती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसी से छंद 
						शब्द को संबद्ध मानना अधिक युक्ति संगत है।" – हिंदी 
						साहित्य कोश, भाग १
 
                      
                     
						वसु हिंदी विश्व कोश के अनुसार–"उपनिषत आदि में 'छंदस्' शब्द की नाना प्रकार की 
						व्युत्पतियों का उल्लेख मिलता है। जहाँ एक ओर छंद की 
						व्युत्पति 'छद्' से बताई गई है, वहीं दूसरी ओर पाणिनि ने 
						इस की व्युत्पति को 'छदि' धातु से संबद्ध किया है। व्याकरण 
						की व्युत्पति के अनुसार, जिसमें आह्लाद जन्मे, ऐसा 
						योगिकार्थ हो सकता है। कुछ विद्वानों ने छंद को पद्य का 
						नामांतर कहा है। साहित्य–दर्पण में 'छंदो विशिष्ट पद' अथवा 
						वाक्य को पद्य निरूपित किया है। इससे ज्ञात होता है कि 
						पद्य से छंद पृथक है। वास्तव में लघु–गुरू स्वर या मात्रा 
						की नियमित वर्ण–योजना का नाम 'छंद' है।"
 
                      
                      छंद की वह वर्ण योजनावाली परिभाषा ही अधिक उपयुक्त एवं 
						व्यावहारिक प्रतीत होती है। वस्तुतः छंद एक माप है जिसके 
						अंतर्गत पद्यात्मक रचना की सत्यता को मापा जाता है तथा 
						इसके अंतर्गत पद्य रचने से उसमें लालित्य एवं संगीतात्मकता 
						का संचार होता है, जो काव्य गुण विशेष है।                      
                       
                      
                     	छंद को उर्दू में 'बह्र' कहते हैं। बह्र से तात्पर्य शेर 
						के वजन से है। वजन, अर्थात 'बाट' जिस पर उसे नापा–तोला 
						जाता है। उर्दू में अलग–अलग नाम से प्रचलित, उन्नीस बह्रें 
						हैं। प्रत्येक बह्र से प्राप्त अनेकानेक वज़न भी उसी बह्र 
						के नाम से जाने जाते हैं। इसी कारण उर्दू को 'बह्रो–वजन' 
						भी कहा जाता है। बह्र का अक्षर 'ह्' तथा वज़न का अक्षर 
						'ज़' दोनों ही हलंत अक्षर हैं, बह्रो–वज़न उर्दू 
						शेरों–शायरी के अभिन्न अंग माने गए हैं।                      
                       
                      
                     	संस्कृत के छंद वैदिक और लौकिक दो प्रकार के हैं। वैदिक 
						काल में जिन छंदों का आविष्कार हुआ और जिनका उपयोग वेदों 
						में किया गया, उन्हें वैदिक तथा उनके आधार पर लौकिक भाषा 
						में जिन छंदों का आविर्भाव हुआ, उन्हें लौकिक छंद कहा जाता 
						है। वैदिक छंद सात हैं–१ . वैदिक गायत्री
 २ . उष्णिक
 ३ . अनुष्टुभ
 ४ . वृहती
 ५ . पंक्ति
 ६ . त्रिष्टुभ
 ७ . जगती
 ये केवल वेदों ही में उपलब्ध हैं।
 
                      
                      लौकिक छंदों के जनक आदि कवि वाल्मीकि को माना जाता है। निषाद 
						द्वारा वक्मिथुनों में से एक के वध से व्यथित होने पर 
						अनायास ही उनके मुख से यह पद्य निकल पड़ा था–
                      
                       
                      
                      मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाःयत् क्रौंच मिथुनादेकम बधीः काम मोहितम
 इस पद्य को श्लोक अथवा अनुष्टुभ छंद कहा जाता है। यह बतीस 
						(३२)मात्राओं का चतुष्पदी छंद है। इस प्रकार लौकिक छंदों 
						का शुभारंभ हुआ, ऐसी मान्यता है।
 
                     
						लौकिक छंद दो प्रकार के हैं –(१) मांत्रिक तथा (२) गणात्मक वर्णिक, जिन्हें वर्ण–वृत के 
						नाम से जाना जाता है।
 
                      
                      छंदाचारियों ने मात्रिक छंदों की ३२ जातियाँ सुनिश्चित की 
						हैं और प्रति चरण, मात्रा–संख्या (१ से लेकर ३२) तक के 
						आधार पर प्रत्येक जाति के मांत्रिक छंदों के अलग–अलग 
						अनेकानेक भेद निर्धारित किए हैं, जैसे –
                      
                       
                        
                          | प्रतिचरण मात्रा सं | जाति | भेद |  
                          | १२ | आदित्य | २३३ |  
                          | २८ | योगिक | ५१४२२९ |  
                          | ३२ | लाक्षणिक | ३५४२५७८ |  
                     	इस प्रकार वर्णों की संख्या (१ से लेकर २६ तक) के आधार पर 
						वर्ण–वृतों की २६ जातियाँ सुनिश्चित की है, जिनके भी 
						अलग–अलग अनेकानेक भेद हैं जैसे –
                       
                        
                          | प्रतिचरण मात्रा सं | जाति | भेद |  |  
                          | १२ | जगती | ४०९६ |  |  
                          | २२ | आकृति | ४१९४३०४ |  |  
                          | ३५ | उत्कृति | ६७१०८८६४ |  |  
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                            उर्दू के वर्ण–वृत भी इन्हीं की परिधि में आ जाते हैं।
                      
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							९ मई २००५ |  |