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					यह बात पुरानी और घिसी–पिटी हो चुकी है कि 'ग़ज़ल' का अर्थ 
					प्रेयसी से बातें करना है, कि उसका मिज़ाज रोमानी है, कि उसकी 
					बातें प्रेमवार्तामूलक होती हैं, कि वह प्रेम एवं सौंदर्य, 
					हिज्र(वियोग)एवं विसाल(मिलन) के ईद–गिर्द ही घूमती है, कि वो 
					अरबी क़सीदे 'तश्बीब' का एक प्रतिरूपमात्र है, कि वो एक सामंती 
					युग की देन है, वगै़रह वग़ैरह। इस धारणा के विपरीत, जैसा कि हम 
					सभी जानते हैं, अब ग़ज़ल का साहित्य में, एक विधा के रूप में, 
					गरिमामय एवं विशिष्ट स्थान है। उसकी लोकप्रियता ईर्ष्या करने 
					योग्य है। वस्तुतः आज की ग़ज़ल अभिव्यक्ति के एक सशक्त माध्यम 
					के रूप में जानी जाती है। यह संजीदा से संजीदा, गहरी से गहरी 
					अर्थपूर्ण बातों को कुछ ही शब्दों में बहुत ही प्रभावी ढंग से 
					कहने में सक्षम है। सत्यम–शिवं–सुंदरम को उद्घाटित करना कविता 
					का एक नैसर्गिक धर्म है। ग़ज़ल का भी अब यही सिद्धांत है। 
					दुनिया के सुख से सुखी और उसके दुख–दर्द से दुखी एवं द्रवित 
					होना ग़ज़ल का स्वभाव बन गया है। ग़ज़ल के कुछ शे'र तो कहावतें 
					बनकर लोगों की ज़बान पर चढ़ जाते हैं और वे अपने मंतव्य को 
					स्पष्ट करने के लिए उन्हें उदाहरण–स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। 
					ग़ज़लों में सामयिक विषयों का होना उनकी सार्थकता का प्रमाण 
					है। 
                       
                      ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र की संरचना, हिंदी मुक्तक 'दोहों' की 
						तरह दो पंक्तियों पर आधारित है। हिंदी में ऐसी प्रत्येक 
						पंक्ति को चरण तथा उर्दू में मिसरा कहते हैं। वस्तुतः 
						ग़ज़ल की तुलना भी मुक्तक काव्य से की जा सकती है। डॉ . 
						शिवनाथ पांडेय के अनुसार–"मुक्तक काव्य ऐसे पद्य अथवा श्लोकों का समूह होता है, 
						जिसमें प्रत्येक पद्य पूर्वा पर संबंध से मुक्त होते हैं 
						अर्थात् सभी अपने आप में स्वतंत्र होते हैं, इनमें कथा का 
						कोई क्रम नहीं होता" (भारतीय काव्य सिद्धांत, पृष्ठ 
						२५)
 
                     	यह उक्ति ग़ज़ल पर भी पूर्णतया चरितार्थ होती है। ग़ज़ल का 
						प्रत्येक शे'र भी अपने आप में संपूर्ण और स्वतंत्र होता 
						है। उसका दूसरे शे'र के साथ समविषयक होना आवश्यक नहीं।                       
                      प्रस्तुत विषय ज़मीने–शे'र की ओर इशारा करता हुआ अख्तर 
						शाहजहाँपुरी का निम्नलिखित शेर द्रष्टव्य है–अब आसमान की जानिब हूँ माइले–पर्वाज़
 ज़मीने–शे'र पे सदियों से है इजारा मिरा
 
                      वस्तुतः ज़मीने–शे'र ग़ज़ल की वह सुदृढ़ बुनियाद है, जो 
						छंद–काफ़िया–रदीफ़ के समग्र रूप से निर्मित धरातल पर आधारित 
						है। इसे ज़मीने–ग़ज़ल भी कहते हैं। इसका तथा मतलों–मक्तों 
						का ग़ज़ल के बाहरी स्वरूप की संरचना में महत्वपूर्ण योगदान 
						है। ग़ज़ल के इन सभी अवयवों से परिचित होने के लिए 
						निम्नलिखित ग़ज़ल, उदाहरण–स्वरूप, प्रस्तुत है–जो ज़ालिम झूठ पल–पल बोलता है
 हर इक सच्चे को पागल बोलता है
 मैं शाइर हूँ सजीले पर्वतों का
 मिरे फन में हिमाचल बोलता है
 अमल करता नहीं भाषण पर अपने
 वो घंटों तक मुसलसल बोलता है
 'शबाब' इतना भी खुल कर सच न बोलो
 सुनो क्या बात मक्तल बोलता है . . .
 डॉ .शबाब ललित, शिमला
 
                      (१) छंद : बहरे–हज़ज(रूपांतरितः माधुरी छंद)(२) काफिये : (तुकांत शब्द, अत्यानुप्रास) पलपल, पागल, 
						हिमाचल, मुसलसल, मक्तल
 (३) रदीफ : अपरिवर्तित शब्द अथवा वाक्य, जो काफ़ियों के 
						पश्चात आता है। प्रस्तुत ग़ज़ल में उपर्युक्त काफ़ियों के 
						बाद, अपरिवर्तित वाक्य– "बोलता है", आया है।
 
                      ग़ज़ल की रदीफ में किसी भी प्रकार का परिवर्तन अमान्य है। 
						रदीफ के साथ आनेवाले काफ़िये को, हिंदी में, लाटिया तुक 
						कहते हैं।
                       
                      (४) मतला : ग़ज़ल की प्रारंभिक दो पंक्तियों को 'मतला' कहते 
						हैं, जो दोनों ही काफ़ियायुक्त होती हैं। प्रस्तुत ग़ज़ल की 
						प्रारंभिक दो पंक्तियों में काफ़िये–पल–पल–पागल प्रयुक्त 
						हुए हैं। अतः ये पंक्तियाँ मतला के अंतर्गत आती हैं।                       
                      (५) मक्ता : ग़ज़ल की अंतिम दो पंक्तियों को जिसमें शायर 
						अपना उपनाम लाता है। अतः 'शबाब' उपनामवाली अंतिम दो 
						पंक्तियाँ उक्त ग़ज़ल का 'मक्ता' है। उपनाम मतले में भी 
						लाया जा सकता है। ग़ज़ल मक्ता विहीन भी होती है।                       
                     	टिप्पणीः(१) ग़ज़ल में दो मतले भी हो सकते हैं। दूसरे मतले को 
						'हुस्ने–मतला' कहते हैं। ग़ज़ल संपूर्णतया मतलों पर भी 
						आधारित हो सकती है। ग़ज़ल बिना मतलेवाली भी हो सकती है,
 (२) ग़ज़ल बिना रदीफवाली भी हो सकती है, जैसे–
 हमने लिया न जब किसी रहवर का सहारा
 हर गाम पे 'राही' हमें मंज़िल ने पुकारा
 काफ़िये सहारा–पुकारा। कोई रदीफ नहीं।
 (३) एक शब्दवाली रदीफ–कोई इंसान जब परेशां हो
 फिर गुलिस्तां हो या बयाबां हो
 काफियों–परेशां–बयाबां के बाद
 एक शब्दवाली रदीफ 'हो' आई है।
 
                      (४) दो काफियों के बीच में आनेवाली रदीफ–असरार के चेहरे से उठाता हूँ नकाब
 पैमानए–वहदत से पिलाता हूँ शराब
 
                      पहली पंक्ति में दो काफियों – उठाता तथा नकाब के बीच में 
						'हूँ' रदीफ है।दूसरी पंक्ति में दो काफियों – पिलाना तथा शराब के बीच में 
						'हूँ' रदीफ है। .
 
                      (५) काफिये ही में रदीफ की उपस्थिति–जब से फूलों की आरजू की है
 बागबां क्यों ये बदसलूकी है
 –दिवाकर 'राही'
 
                     	पहली पंक्ति में रदीफ 'की' क्रिया है, किंतु दूसरी पंक्ति 
						में रदीफ 'की' "बदसलूकी" का अंश। इसे रदीफ तहलीलो कहते 
						हैं।विशेष : स्वर साम्यवाले काफिये– डा .जगदीश गुप्त के अनुसार – 
						"तुक में स्वर और व्यंजन दोनों की समानता और आंशिक एकता 
						रहती है। उर्दू और फारसी काव्य में केवल स्वर–साम्य से भी 
						तुक बन जाती है, जैसे अलिफ का काफिया, 'देखा' और 'भला' में 
						हो सकता है। हिंदी में प्रायः इस तरह के तुक ग्राह्य नहीं 
						माने जाते। उनमें व्यंजनों की एकता ही आवश्यक रहती है। 
						जैसे देखा–लेखा, भला–गला।
 (हिंदी साहित्य कोश भाग–१, पारिभाषिक शब्दावली से उद्धृत)
 
                      कहने का अभिप्राय यह है कि काफियों – देखा और भला – के अंत 
						में केवल दीर्घ मात्रा "आ" के स्वर–साम्य' ही से तुक बन 
						जाती है, जो हिंदी में ग्राह्य नहीं। हिंदी काफियों में 
						व्यंजनों की एकता आवश्यक है, जैसे– देखा–लेखा, भला–गला में 
						स्वर–साम्य के अतिरिक्त, क्रमशः 'ख' तथा 'ल' व्यंजनों की 
						एकता भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।                       
                      परंतु अब हिंदी ग़ज़लों में भी स्वर–साम्यवाले उर्दू काफियों 
						को सहर्ष अपना लिया गया है, जैसे–आप कहते हैं, तो अपनी भी सुना देता हूँ मैं
 दिल के अंदर जो छिपा है, वो दिखा देता हूँ मैं
 –त्रिलोचन
 
                      इन पंक्तियों में प्रयुक्त काफियों, सुना–दिखा– में 
						स्वर–साम्य है, 'न' और 'ख' व्यंजनों की एकता नहीं।इस प्रकार हिंदी काफियों के भंडार में एक प्रकार से बढ़ोतरी 
						ही हुई है।
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