मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


रचना प्रसंग– ग़ज़ल लिखते समय–२

काफ़ियों के दोष व उनका निराकरण
रामप्रसाद शर्मा महर्षि

 
पिछले अंक में हमने "ज़मीने शेर" पर चर्चा की थी। आइए, अब हम काफ़ियों के दोष और उनके निराकरण पर चर्चा करें।

हरेक शख्स परीशां है ज़िंदगी के लिए
कि जैसे राम भटकते हैं जानकी के लिए

पहली बात तो यह कि ज्ञान प्रकाश विवेक की उपर्युक्त पंक्तियों में जो काफ़िये–ज़िंदगी तथा जानकी–प्रयुक्त हैं, उनमें भी स्वर–साम्य है, 'ग' और 'क' व्यंजनों की एकता नहीं, जो आवश्यक भी नहीं है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात इन काफ़ियों से संबंधित यह है कि ज़िंदगी के साथ जानकी काफ़िया लाने से उर्दू काफ़िया–शास्त्र के अनुसार ग़ज़ल का यह मतला ईता के दोष से सर्वथा मुक्त हैं, क्योंकि ये दोनों ही शब्द, विशुद्ध मूल शब्द हैं। तुक बनाने के लिए इनमें कोई अंश बढ़ाया नहीं गया है। बढ़ाए गए अंशवाले काफ़ियों को यहाँ योजित काफ़िये कहा गया है। दोस्ती–दुश्मनी दोनों ही योजित काफ़िये हैं, जो दोस्त और दुश्मन में दीर्घ मात्रा 'ई' लगाकर बनाए गए हैं। वस्तुतः दोस्त–दुश्मन समान काफ़िये नहीं हैं। अतः योजित काफ़िये दोस्ती–दुश्मनी भी समान काफ़िये नहीं कहे जा सकते। यदि इन दोनों योजित काफ़ियों को मतले में प्रयुक्त किया जाता है, तो वह मतला दोषपूर्ण हो जाता है। परंतु यदि मतले में दोस्ती अथवा दुश्मनी के साथ दूसरा विशुद्ध काफ़िया 'ज़िंदगी' लाया जाए, तो उक्त दोष का निराकरण हो जाता है। कहने का मतलब यह है कि–

(१) मतले में या तो दोनों ही काफ़िये विशुद्ध मूल शब्द हों, अथवा
(२) एक विशुद्ध और दूसरा योजित, अथवा
(३) दोनों ही योजित शब्दों से बढ़ाए हुए अंश निकाल देने पर विशुद्ध मूल शब्दों वाले समान काफ़िये ही शेष रहें, अथवा
४) दोनों योजित काफ़ियो में व्याकरण भेद हो।

उदाहरणार्थ–

(क)
हर हक़ीकत को बअंदाजे़ तमाशा देखा
खूब देखा, तिरे जल्वों को मगर क्या देखा

तमाशा और क्या दोनों ही विशुद्ध मूल शब्दों वाले काफ़िये हैं, जैसा कि उपर्युक्त क्रम सं .(१) में कहा गया है। अतः ये सही काफ़िये हैं।
(ख)
जब से उसकी निगाह बदली है
सारी दुनिया नयी–नयी–सी है

योजित काफ़िये 'बदली' के साथ 'सी' विशुद्ध मूल शब्दवाला काफ़िया उपर्युक्त क्रम सं .(२) में कही गई बात के अनुसार लाया गया है। अतः ये सही काफ़िये हैं।

(ग)
हो गई है पीर पर्वत–सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए – दुष्यंत कुमार

पिघलनी/निकलनी दोनों ही योजित काफ़िये हैं। इनमें से बढ़ाए हुए अंश "नी" को निकालने पर विशुद्ध मूल शब्दों वाले समान काफ़िये– पिघल–निकल शेष रहते हैं, जैसा कि उपर्युक्त क्रम सं (३) में कहा गया है। अतः ये सही काफ़िये हैं।

(घ)
देख मुझको न यूं दुश्मनी से
इतनी नफ़रत न कर आदमी से

दुश्मनी–आदमी दोनों ही योजित काफ़िये हैं, परंतु दुश्मनी भाव वाचक संज्ञा है और आदमी जातिवाचक संज्ञा जैसा कि उपर्युक्त क्रम सं .(४) में कहा गया है। अतः ये सही काफ़िये हैं।

इसके अतिरिक्त, यदि मतले में नाम–बदनाम, जैसे काफ़िये लाए जाते हैं, तो उन दोनों के अर्थ में अंतर होने से, उन्हें भी सही काफ़िये माना गया है।

यदि मतले में ख़फ़ा, वफ़ा जैसे काफ़िये लाए जाते हैं, तो यह आवश्यक नहीं कि उस ग़ज़ल के अन्य शेरों में आनेवाले काफ़ियों में भी व्यंजन 'फ' की एकता बरक़रार रखी जाए, अन्य शेरों में खुदा, सबा जैसे काफ़िये भी लाए जा सकते हैं।

यदि दिल–विसमिल जैसे काफ़िये मतले में लाए जाते हैं, तो साहिल–क़ातिल जैसे काफ़िये भी उस ग़ज़ल के अन्य शेरों में लाए जा सकते हैं। 'ल' से पूर्व आनेवाले व्यंजनों की एकता आवश्यक नहीं है।

कभी–कभी मतदान–श्रमदान, गुनाहगार–कारागार जैसे योजित शब्दों को समान काफ़िया समझकर लाने पर मतला दोषपूर्ण हो जाता है, क्योंकि इनमें से बढ़ाए हुए अंश क्रमशः दान तथा गार निकाल देने पर असमान काफ़िये क्रमशः मत–श्रम तथा गुनाह–कारा शेष रहते हैं। ऐसे दोषपूर्ण काफ़ियों से बचने के लिए यदि मतदान के साथ अनुमान तथा गुनाहगार के साथ खतावार लाएँ तो मतलों को दोषपूर्ण होने से बचाया जा सकता है।

तन हो गुनाहगार, ये कब मुमकिन है
मन हो ख़तावार, ये कब मुमकिन है – गोपाल दास 'नीरज'

इसी प्रकार खुश्तर–बेहतर भी समान काफ़िये नहीं हैं क्योंकि दोनों में से 'तर' निकाल देने पर असमान काफ़िये खुश तथा बेह शेष रहते हैं। बेहतर–अवसर समान काफ़िये हो सकते हैं। इस तरह हम मतले को दोषपूर्ण होने से बचा सकते हैं।

गुलाब–शादाब अथवा गुलाब–शराब भी दोषपूर्ण काफ़िये हैं क्योंकि योजित अंश 'आब' निकाल देने पर क्रमशः गुल–शाद और गुल–शर असमान काफ़िये शेष रहते हैं। गुलाब के साथ ख्वाब अथवा ऐसा ही कोई विशुद्ध मूल शब्द लाकर ईता–दोष से बचा जा सकता है। ऐसा करने से मतला दोषपूर्ण नहीं रहता।

वो काफ़िये भी दोषपूर्ण होते हैं जिनके अंत में ऐसे अक्षरों की तुक बनाई जाती हैं, जो उच्चारण में समीपवर्ती होने के कारण समान होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं, जैसे गरूण का काफ़िया विमूढ़ को बनाना, हालांकि 'ड़–ढ़' में व्यंजनों की एकता नहीं होती, अतः ऐसे काफ़ियों को मतले में प्रयुक्त करने से मतला दोषपूर्ण हो जाता है। मतले के इस दोष को उर्दू में 'इक्फ़ा' कहते हैं। उर्दू के निम्नलिखित उर्दू–काफ़ियों में यह दोष विद्यमान है।

ऐतराज–लिहाज, बात–सुकरात, राम–ख़ाम, सियाह–सबाह, कसक–सबक, आग–दाग आदि, क्योंकि इन सभी शब्दों के अंतिम अक्षर उच्चारण में केवल समीपवर्ती हैं, उनमें व्यंजनों की एकता नहीं। यह अलग बात है कि हिंदी में ऐसे काफ़ियों को सही काफ़िये माना जाता है। उर्दू जाननेवाले ही इस भेद को बेहतर जानते हैं, केवल हिंदी जाननेवाले महानुभावों से ऐसी अपेक्षा की भी नहीं जा सकती।

गरूण–उजड़, फागुन–साजन, दूर–देर, बनो–बनी, राग–रोग, ऊपर–आख़िर आदि भी समान काफ़िये नहीं हैं। इनमें 'सिनाद' का दोष है। यह दोष शब्दों के अंतिम अक्षर से पूर्व आनेवाले अक्षरों तथा उन पर लगी मात्राओं में विभिन्नता होने के कारण उत्पन्न होता है, जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों गरूण, उजड़ आदि में देखा जा सकता है।

फिजा को फिजां बनाकर आसमां का समान काफ़िया बनाना भी ग़लत है। सही शब्द फिजा है न कि फिजां। सबा–खिज़ां भी ग़लत काफ़िये हैं।

काफ़ियों के अंत में आनेवाले अक्षर से पहले समान रूप से अनुस्वार न होने पर भी यह दोष पैदा होता है, जैसे – भाव–गांव, रूठ–ठूंठ, बात–दांत को क्रमशः समान काफ़िये बनाना ग़लत है। इसके अतिरिक्त, वक्त, सख्त, अगस्त आदि जैसे शब्दों को एक दूसरे के समान काफ़िया बनाना ग़लत है। उसी प्रकार रास्त, साख्त, काश्त जैसे शब्दों को एक दूसरे का समान काफ़िया नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि इनके अंतिम अक्षर 'त' से पूर्व व्यंजनों की एकता नहीं है।

ध्यान रहे कि ये सभी दोष केवल मतले से संबंधित हैं, ग़ज़ल के अन्य शेरों से नहीं। हाँ, अन्य शेरों के काफ़िये मतले में प्रयुक्त निर्दोष काफ़ियों के अनुरूप होना आवश्यक है।

२४ अप्रैल २००५

अगले अंक में हम– ग़ज़ल के मिज़ाज़ पर "अंदाज़े बयाँ" शीर्षक के अंतर्गत चर्चा करेंगे।

पृष्ठ : .........१०.११.१२.१३.१४.१५.१६.१७.१८

आगे—

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।