पहले की ग़ज़लों में देखें तो किसी बात को बयान करने के लिए
गुल, बुलबुल, गुलचीं, सैयाद, कफ़स, सहरा, शीरीं–फरहाद,
कैसो–लैला, जामो–मीना, शमा–परवाना आदि जैसे प्रतिमानों का
ही सहारा लिया जाता रहा, परंतु आधुनिक ग़ज़लों में नए–नए
शब्दों की जैसे बाढ़ ही आ गई है, ज़रा बतौर–नमूना निम्न
लिखित शब्दों को देखें कि पारंपारिक एवं सीमित शब्दावली को
छोड़कर, अब ग़ज़लों में किस प्रकार की नई शब्दावली
प्रयुक्त होने लगी है, जैसे–
होम, हवन, अंगीठी, रथ, अलाव, संसद, संविधान, प्रतिपक्ष,
हरसिंगार, गुलमोहर, कचनार, कुंकुम, खेत, गांव, शहर, बाजरे
की फस्ल, कपूर की टिकिया, चीड़वन, झुनझुने, गरूड़,
ऋतुंबरा, कफ़्र्यू, कैक्टस, नागफनी, रात रानी, एटम,
कंप्यूटर, कैलकुलेटर, रोबोट, इंजन, बल्ब, मोटर, होटल, लान,
सड़क, फुटपाथ, हैंगर, डिस्को, राशन, शंकर–पार्वती,
हीर–रांझा आदि–आदि।
जो विषय पहले नज़्म के हुआ करते थे, उन्हीं को अब ग़ज़लों
में भी अपना लिया गया है, परंतु इस प्रकार कि वो ग़ज़ल के
रंग में रच–बस गए हैं।
ग़ज़ल में प्रयुक्त पुराने शब्दों को नए–नए अर्थ देकर तथा
नए शब्दों के प्रयोग से ग़ज़लों के प्रस्तुतीकरण में नए
आयाम जुड़ गए हैं, और उनमें नवीनता आ गई है।
बकौल एम .जे .अकबर (नवभारत टाइम्स, मुंबई १४–०३–८९)
"शब्द अनुभवों की ही अभिव्यक्ति करते हैं। भाषा ठोस हो जाए
इसके लिए हमारी संस्कृति को भी बांझ होना पड़ेगा, और सवाल
सिर्फ़ नए शब्द जुड़ते चले जाने का ही नहीं होता, मौजूदा
शब्दों को ही नए अर्थ देना कई बार ज्यादा आसान होता है।
ऐसे शब्द कहीं पड़े–पड़े अपने ऊपर कैंचुल–सी ओढ़ लेते हैं,
और जब वो कैंचुल धीरे–धीरे उतर जाती है, तो उनका नया
अर्थावतार मानो हो जाता है।"
नरेश मेहता के अनुसार सर्जनात्मक दृष्टि का नयापन, प्राचीन
बिंबों प्रतीकों को भी नयेपन से भर सकता है। उपकरण बासी
नहीं होते, बासी दृष्टि होती है। बकौल डॉ .'हकीर' आस्तानीः
पुराने हैं अगर तो क्या कवाफ़ी भी रदीफ़ें भी इन्हें फिर से
ग़ज़ल के गेसुओं में चुन दिया जाए।
ग़ज़लों में अब समसामयिक विषयों के समावेश से, उसका दायरा
व्यापक हो गया है। उनमें ग़ालिब जैसी 'तंगनाए–ग़ज़ल' वाली
संकीर्णता अब नहीं रही है।
भारतीय काव्य से संबंधित जो सिद्धांत निरूपित किए गए हैं,
उनमें से एक 'रीति' सिद्धांत भी है। 'रीति' अर्थात शैली,
प्रस्तुतीकरण, उसलूब, अंदाज़े–बयाँ, स्टाइल (मोड ऑफ
एक्स्प्रेशन)। काव्य भाषा के इस बाह्य तत्व को आचार्यों ने
भाषा का प्रौढ़, मधुर, परूष तथा ललित स्वभाव कहा है। डॉ
.विश्वनाथ पांडेय के अनुसार–
"किसी लेखक या कवि के विशिष्ट प्रकार के पदों अथवा वाक्यों
के लिए 'रीति' का प्रयोग किया जाता है। अपने मनोगत भावों
की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न कवि विभिन्न मार्गों का
ग्रहण करते हैं। एक विशिष्ट 'रीति' का प्रयोग ही सच्चे कवि
की कसौटी है। सच्चा कवि अथवा लेखक वही है जो अपने भावों को
प्रकट करने के लिए अपनी निजी शैली का प्रयोग करे। कवि जब
अपने कथ्य को उपस्थित करता है तो किसी–न–किसी भंगिमा का
आश्रय लेकर ही 'रीति' कवि या लेखक के व्यक्तित्व का
प्रतिनिधित्व करती है।"
(भारतीय काव्य सिद्धांत पृष्ठ ९०–९१)
मिर्ज़ा
गालिब ने अपनी इसी विशिष्ट निजी भंगिमा को "अंदाज़े–बयाँ
और" निरूपित किया है।
ग़ज़लों
में ग़ज़लीयत अथवा रंगे–तगज़्जुल (सही उच्चारण 'तग़ज्ज़ल')
लाने के लिए–
-
शे'र
का प्रस्तुतीकरण कुछ इस प्रकार हो कि उसकी पहली पंक्ति
को सुनते ही, सुननेवाला दूसरी पंक्ति सुनने के लिए
लालायित हो उठे और दूसरी पंक्ति को सुनते ही अभिभूत हो
उठे।
-
) हृदय
गत भावनाओं, संवेदनाओं, विचारों, कल्पनाओं एवं भोगे
हुए यथार्थ का शब्दों में सरस अनुवाद।
-
छोटी–से–छोटी अथवा बड़ी–से–बड़ी बात को इस तरह कहा जाए
कि वो दिल को गुदगुदाने के साथ ही दिल की गहराइयों तक
उतरती चली जाए।
-
शे'र
अपने आप में भरपूर एवं संपूर्ण हो, जैसे कठौती में
गंगा, उसमें शिल्प एवं कथ्य का समुचित सामंजस्य हो।
-
बात
चाहे कितनी ही साधारण क्यों न हो, उसमें ऐसा तेवर हो
कि काफ़िया मुंह से बोल उठे।
-
हमारी
बात श्रोताओं अथवा पाठकों तक उसी रूप में संप्रेषित हो
जिस तरह हमने उसको सोचा–समझा है।
-
जैसा
बिंब ग़ज़लकार के मन–मस्तिष्क पर किसी ख्याल को लेकर
बने, ठीक वैसा ही सुननेवाले के हृदय–पटल पर अंकित हो।
-
व्यंग्य–बुझे नश्तर कुछ इस तरह चुभोए जाएँ कि आहत भी
अभिभूत हो उठे।
-
सोज़ो–गुदाज़ ऐसा हो जो सुननेवाले को द्रवित कर दे।
-
बात
नपे–तुले शब्दों में कही जाए।
-
लहजा
नम्र और भाषा सरल, सुगम, सुबोध तथा संयत हो।
-
शब्द
कोमल, कर्ण–प्रिय एवं सरस हों। याद रहे कि तग़ज्जुल,
तरन्नुम बिना अधूरा है।
-
शे'र
में प्रयुक्त बुरा शब्द भी बुरा न मालूम हो, तिलोक चंद
'महरूम' का यह शे'र –
'महरूम' क्यों तिरे दिले–हिरमां–नसीब को
ये वहम हो गया है कि 'इक़बाल' मर गया।
यहाँ 'मर' जैसा मनहूस शब्द भी कितना सटीक हो गया।
-
अंदाज़े–बयाँ दिलकश हो। शैली सांकेतिक एवं प्रतीकात्मक
हो। प्रतीक ऐसे व्यक्तिगत अथवा दुरूह न हों कि बात
वर्ग पहेली बनकर रह जाए।
-
बात
लछमन–सी चटपटी और रघुवीर–सी गंभीर हो।
इन सभी
बातों के अतिरिक्त, यह ज़रूरी है कि शे'र हर प्रकार से
त्रुटिविहीन हो । उसकी दोनों पंक्तियाँ एक दूसरी से
संबंद्ध हों। वाक्य व्याकरण में सम्मत हों। शिष्ट जन
द्वारा अस्वीकृत शब्दों का प्रयोग न किया गया हो। उसमें
काल दोष, लिंग दोष, वचन दोष, कारक दोष, संधि दोष आदि न
हों। किसी एक व्यक्ति को एक ही शे'र में तू–तुम–आप से
संबोधित न किया जाए। शे'र में ऐसे शब्द न लाए जाएँ जिनके
कारण उसकी गति में अवरोध उत्पन्न हो तथा उसके पढ़ने में
ज़बान लड़खड़ाए। उसमें फालतू शब्द न हों, और सबसे बड़ी और
महत्वपूर्ण बात यह कि ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र सही छंदोबद्ध
हो ताकि उसकी गेयता (जो उसका विशेष गुण है)बनी रहे। छंद
चाहे पिंगल के हों अथवा उर्दू के, आवश्यकता इस बात की है
कि हम उनसे संबंधित नियमों और उनके व्यावहारिक पक्ष से
पूर्णतया अवगत हों।
किसी भी
अच्छे शे'र की रचना में शब्दों का रख–रखाव कुछ ऐसा होता है
कि उससे सुंदर रख–रखाव की कल्पना ही नहीं की जा सकती। पलंग
पर चादर बिछाते समय जैसे उसकी एक–एक शिकन को निकाल दिया
जाता है, उसी प्रकार शे'र में विद्यमान एक–एक दोष को निकाल
देना होता है। शे'र रचने के पश्चात उस पर बार–बार नज़र
डालनी चाहिए और जहाँ तक हो सके उसे शुद्ध एवं परिष्कृत
करना चाहिए, एक बार कह कर ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए।
शैली के लिए केवल भंगिमा अथवा तेवर ही ज़रूरी नहीं, रचना
को प्रभावी बनाने के लिए उसका हर प्रकार से निर्दोष होना
भी उतना ही आवश्यक है। |