वरिष्ठ रचनाकारों की चर्चित
कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में प्रस्तुत है रमेश उपाध्याय-की-कहानी-
गलत गलत
इस बार फरवरी अट्ठाईस की
है। स्टिक में आठ पाइंट के छोटे-छोटे टाइप रखते हुए सात तारीख
को मिलने वाले साठ रुपयों के बारे में सोचकर खुश हो आता हूँ।
कुछ तो फ़ायदा है ही। तीस-इकत्तीस दिन काम करने पर भी साठ और
अट्ठाईस दिन करने पर भी। साल के अधिकांश महीनों में इकत्तीस
दिन होने की बात बुरी लगती है, किंतु आज मैं गुस्से और दुःख से
अलग हटकर कोई बात सोचना चाहता हूँ। मन ही मन अनुमान लगाता हूँ
कि ओवरटाइम के लगभग तीस रुपए और हो जाएँगे। साठ और तीस-नब्बे।
चालीस एडवांस के निकाल दो-पचास। बस?
मन कसैला-सा हो आता है। रुपयों की बात सोचकर अच्छा नहीं किया।
कोई और अच्छी बात सोचनी चाहिए। जैसे पुल पर खड़े होकर नीचे बहते
हुए पानी को देखने के बारे में कोई बात। अगहन की अँकुराई खेती
पर जमी हुई ओस-बूँदों की बात। चाँदनी रात में रातरानी की
गँधाती कलियों और डेविड के वायलिन की बात। स्टिक में जमी हुई
लाइनें उतारकर गेली में रखने और कापी पर दृष्टि जमाकर...आगे-
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