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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यूएई से बेजी जयसन की कहानी- 'कभी लौटेगा वसंत'


अचानक से नींद खुली थी। कोई सपना देखा था शायद। मिसिस आर्य के होंठ सूखे थे। चेहरा भी फीका पड़ा था। खिड़की पर पर्दे के साये झूल रहे थे। कमरे में अँधेरा था। पंखा हल्की टिडिकटिक चाल चल रहा था। हल्की रोशनी, लंगड़ी खेलते हुए एक पाँव कमरे में तो एक बरामदे में रख रही थी।

मिसिस आर्य ने पानी का जग उठाया। क्या देख कर जगी थी यह तो याद नहीं था। पर मन विचलित था। गिलास में पानी ड़ालते समय सोच रही थी काश घर में और कोई भी होता। खिड़की के बाहर नज़र गई थी। रात बेसुध होकर सो रही थी। हाँ चाँद जरूर सेंध लगाकर बैठा था। शायद सोती आँखों में कोई सपना डालकर जाना चाहता था।

तकिये पर सिर रखा। माथा भन्ना रहा था। नींद का कहीं अता पता नहीं था। करवट बदली पर सोच कहीं अटकी खड़ी थी। चार बच्चे और सब उसकी दुनिया से दूर थे। छोटी की याद सताने लगी थी। उसके साथ झगड़ते मनते और कुछ नहीं सूझता था। थक के चूर बिस्तर तक आते-आते ही नींद घेर लेती।

उठ कर अलमारी से गोली निकाली थी। सरदर्द आसानी से कम नहीं होने वाला।

पिछली बार अस्पताल गई थी तो डॉक्टर ने कहा था प्रेशर ज्यादा है। “सब बच्चों को पढ़ा लिखा कर अब क्या टेंशन? बराबर सोया करो।”
हाँ अकेलापन कोई बीमारी तो नहीं।
डाक्टर शायद भाँप गये थे। “आजकल बाहर कम दिखती हो। निकला करो, किसी ना किसी काम में मन लगा कर रखो।”

मन ही लगाने के लिये वौलन्टरी वर्क में नाम दिया था। आदिवासी बच्चों को साक्षर बनाने की योजना थी। काम के बाद शाम का एक घंटा। मिसिस आर्य को काम अच्छा लगा था।

वहीं मिसिस भट्ट ने मिस्टर त्रिवेदी से मिलवाया था। प्रमुख संचालन उनके ही जिम्मे था। काले आदिवासी बच्चों के बीच उनका उजला रूप एकदम निखर रहा था। चेहरे पर रुकी मुस्कराहट, आँखों के किनारे हँसते हुए, माथे पर दो लकीरें और आधे बाल पके हुए।
“मिस्टर त्रिवेदी...इसी वर्ष तबादला होकर आये हैं। वैसे तो अगले साल रिटायर हो जायेंगे पर इतने हँसमुख है कि शायद मैनेजमेन्ट इसीलिये इन्हें रोक ले।”

“नमस्ते!” कहते हुए मिस्टर त्रिवेदी ने कहा था, “इनका परिचय नहीं करायेंगी?”
“यह मिसिस आर्य हैं। बहुत ही काबिल और नेक। चार बच्चे हैं। सभी अलग अलग जगह नौकरी कर रहे हैं। मिस्टर आर्य के जाने के बाद बड़ी हिम्मत से इन्होंने सभी जिम्मेदारियाँ सँभाली।”

“ओह! आप से मिल कर खुशी हुई।”

मिसिस भट्ट परिचय करवा कर चली गई थी। मिस्टर त्रिवेदी की निगाह मिसिस आर्य के उपर टिकी थी। वात्सल्य की अजीब सी अनुभूति हुई थी।

“मेरा नाम पराग है....पराग त्रिवेदी। तुम्हारा?”

नाम...ना जाने कब किसी ने नाम से बुलाया था। माँ अब रही नहीं। पिताजी बचपन में ही गुजर गये थे। मिस्टर आर्य भी “सुनती हो” ही कहा करते थे। उनके जाने के बाद मिसिस आर्य ही बन कर रह गई थी। इसके अलावा कोई नाम भी था यह याद नहीं था।

थोड़ा हिचकिचा कर कहा था.. “कुसुमिता...कुसुमिता आर्य।”

मिसिस आर्य का चेहरा लाल हो गया था। लाली का प्रतिबिम्ब मिस्टर त्रिवेदी की आँखों में देखा था। एकदम से सहम गई थी। कब से जज्बात पर बाँधी गाँठ अनायास ही ढीली पड़ी थी।
कुछ दूसरे काम के बहाने से मिस्टर त्रिवेदी से दूर गई थी। दूर से मुड़कर एक नज़र चुराकर देखा था। वो फिर से उन बच्चों में मग्न थे। सब मिलकर कोई गीत गा रहे थे। मिस्टर त्रिवेदी की गहरी आवाज़ में मिसिस आर्य सहज ही उतर गई थी।

बाहर कोई गाड़ी आकर रुकी थी शायद। आवाज़ से अचानक मिसिस आर्य की सोच टूटी थी।
सारा शरीर टूट रहा था। शायद बुखार चढ़ने वाला था। थोड़ी नींद ही आ जाती।
गुसलखाने में जाकर लौटते समय आइने पर नज़र पड़ी। थका सा चेहरा, खाली आँखें और आँखों के आसपास अँधेरे।
आइने में कुसुम का कहीं अता पता नहीं था। गोरी, हँसमुख कमसिन कुसुम शायद मुरझा चुकी थी।

मिस्टर आर्य एक दुर्घटना में गुजरे थे। छोटी को महीना भी पूरा नहीं हुआ था। शादी अठारह होते ही हो गई। पच्चीस बरस की उम्र में ही कुसुम विधवा हो गई थी। उन दिनों कुसुम वाकई सुन्दर थी। कॉलेज में ऐड एजंसीस भी पूछ कर जाती थीं। विधवा होने पर कई रिश्ते आये। एक दो तो सभी बच्चों को भी स्वीकारने को तैयार थे। पर कुसुम को कभी ना जरूरत महसूस हुई, ना ऐसे रिश्तों में कोई आकर्षण ही दिखाई दिया। अगर कुसुम को कुछ याद था तो वह था उसका माँ होना। हर हाल में वो बच्चों को हर खुशी देना चाहती थी। समय भी रफ्तार से गुजर गया। माँ और बाप बनने में कुसुम कहीं पीछे छूट गई।
कुसुम की झलक मिस्टर त्रिवेदी की आँखों में ही देखी थी।

उस दिन काम से निकलते वक्त मिसिस भट्ट मिली। “अरे तुम मिस्टर त्रिवेदी को मिलोगी ना। यह डोनेशन के पैसे हैं और रसीद बुक है। ध्यान से आज ही दे देना।”
हामी भरते हुए मिसिस भट्ट के हाथों से पैसे और बुक लिये थे। वहाँ पहुँची तो देखा कि मिस्टर त्रिवेदी नहीं आये। काम खत्म होने पर मिसिस आर्य सोच में पड़ गई। उनके घर जाकर दूँ या यह पैसे घर ले जाऊँ।
मिस्टर त्रिवेदी कल भी दुखी लग रहे थे। शायद बीमार हों। मिसिस आर्य ने सोचा पैसे देते देते उनका हाल भी पूछ लेंगी। घर का पता तो मालूम था। मिसिस भट्ट ने ही बताया था।

दरवाजे पर खटखटाया। अंदर से आवाज़ आई, “दूध अंदर रख कर जाओ रामू।”
एक बार को हुआ कि जिस पैर आई लौट जाये। पर मिस्टर त्रिवेदी की आवाज़ कुछ लड़खड़ाई सी थी।
हल्के से एक और बार दस्तक दी।
दरवाज़ा खुला ही था।
घर एकदम व्यवस्थित था। मिसिस आर्य ने नज़र दौड़ाई। टीवी के पास एक फैमिली फोटो था। मिस्टर और मिसिस त्रिवेदी और उनके दो जवान लड़के। मिसिस आर्य असहज महसूस कर रही थी।

“कौन है?”
मिस्टर त्रिवेदी बाहर के कमरे में आये। सफेद पायजामा कुर्ता, हाथ में एक रुमाल था शायद। चेहरे पर नज़र गई तो हटा नहीं सकी। आँखें लाल थी। पलकों में अभी भी कुछ आँसू अटके हुए थे।
“अरे कुसुम तुम।”, आवाज़ भर्राई सी थी।

“मिसिस भट्ट ने यह पैसे और रसीद दिये थे। आज ही देने को कहा था तो सोचा देती हुई चलूँ।”

“अच्छा किया। बैठो कुसुम।”

“नहीं। चलूँगी।”

“ठीक है।”
मिसिस आर्य मुड़ी थी। सामने ही मिसिस त्रिवेदी की बड़ी सी एक तस्वीर थी। आँखे हँस रही थीं, इस उमर में भी इतनी सुंदर।
फिर मुड़ कर देखा था,...फोटो पर माला चढ़ी थी। मिसिस आर्य जड़ हो गई थी।

“मेरी मधुरिमा है यह। आज बरसी है उसकी, इसीलिये नहीं आया था।”

मिस्टर त्रिवेदी की आँखों से बहते आँसू ने ही जैसे हिलाया था। सोचकर तो नहीं पर हाथ बढ़ा था कुसुम का...और पराग स्पर्श से ही पिघल कर बच्चों की तरह भभक कर रोने लगा था।
पराग का दुख इस तरह छुआ था कि कुसुम का मातृत्व जागा था। किन्तु पराग के छूते ही कुसुम का स्वयं पर नियंत्रण मुश्किल था। इतने बरसों में ऐसा जज़्बा कुसुम ने कभी महसूस नहीं किया था।

पराग खुद ही सँभला था। “चलो कुसुम जाओ। कल मिलेंगे।”

यांत्रिक गति थी कुसुम की। मुट्टी कसी हुई, नपे हुए से कदम, चेहरे पर कोई भाव नहीं। कुसुम ड़र रही थी कि कहीं ढील दी तो गाँठ ही खुल जायेगी।
घर आते ही कुसुम बिस्तर पर गिर कर फूट फूट कर रोने लगी।
बरसों बाद रोई थी कुसुम। पता नहीं यह आँसू किस लिये थे। पराग का दुख? या खुद पर नियंत्रण खोने का डर? अपने बीते सालों का दुख?

या इतने सालों बाद कुसुम को फिर पाने की खुशी?

अगले दिन मिली थी पराग से। पराग फिर से हँसमुख था। और कुसुम भी काम के साथ गुनगुनाती थी। जैसे किसी ने थोड़ी जान लाकर डाल दी हो। कुसुम हँसने लगी थी। आइने में देखती तो महसूस होता कि आज भी कितनी सुंदर है।
मुर्गे की बाँग की आवाज़...पूरी रात आँखों में ही काट दी। सुबह भी हो गई। मिसिस आर्य का सर दर्द से फट रहा था। हल्का बदन भी तप रहा था। अच्छा होता अगर जिन्दगी यहीं तक होती। अकेले अब और कितना चलना होगा।
गये महीने काम के बाद पराग ने पूछा था , “साथ चलोगी कुसुम?”
“कहाँ?”, भोलेपन से पूछा था कुसुम ने।

“मधु के बाद बहुत अकेला पड़ गया हूँ, साथ दोगी आगे?”
कुसुम को ऐसे सवाल की अपेक्षा नहीं थी। कुछ कह पाती इससे पहले मिसिस भट्ट नज़र आई।

“साथ घर चलें?”

“हाँ”, कुसुम ने कहा।
ढे़रों ख्याल दिमाग में घूम रहे थे। कदम कुछ हल्के थे। थोड़ी खुशी, थोड़ी अल्हड़ता...अजीब सी चंचलता थी बदन में।
घर पहुँची तो दरवाजे पर छोटी थी।

“कहाँ थीं माँ? मैं आने वाली हूँ बताया तो था।”

कुसुम सच में ही भूल गई थी। मन ही मन मुस्करा कर कुसुम ने दरवाजा खोला।
छोटी बड़बड़ा रही थी कुछ। “पता नहीं कहाँ खोई रहती हो माँ!”
अचानक से दस्तक हुई दरवाजे पर।

“अब कौन है?”
छोटी बड़बड़ाते हुए ही बाहर आई थी।
“आप?!”

“कुसुम यहीं रहती है ना …मेरा मतलब मिसिस आर्य?”
“हाँ”
छोटी ऊपर से नीचे तक पराग का निरीक्षण कर रही थी।
कुसुम बाहर आई। “जी आप?”
“कल आप आयेंगी ना?”
कुसुम किसी बच्चे की तरह खड़ी थी जिसकी चोरी पकड़ी गई हो।
पराग लौट गया था।
“माँ यह आदमी कौन था? क्यों आया था? ऐसे लोगों को घर मत बुलाया करो।”
छोटी की बात सुन कुसुम को खुद से ही घुटन महसूस होने लगी।
फिर पराग से नहीं मिली। कभी आदिवासी बच्चों के पास नहीं गई। पराग के एक भी फोन का जवाब नहीं दिया।
छोटी दो दिन बाद वापस चली गई थी।

पर कुसुम का बसंत फिर नहीं लौटा।
बेल बजी तो मिसिस आर्य उठी थी।
मिसिस भट्ट सामने खड़ी थी। “अरे मिसिस आर्य!! तबियत ठीक नहीं है क्या? कल आप मिस्टर त्रिवेदी के विदाई समारोह में भी नहीं दिखी। आज दूधवाले के लिये भी दरवाज़ा नहीं खोला। चिंता हुई तो देखने चली आई।”

ट्रक की आवाज़ सुनी तो कुसुम के कान खड़े हुए थे।
मिसिस भट्ट ने जैसे सवाल सुन लिया हो, “मिस्टर त्रिवेदी का सामान है। वो भी आज ही गाँव जा रहे हैं। दोनों बच्चे भी आये हैं। तुम नहीं मिली? बड़े होनहार हैं।”
मिसिस भट्ट हाल पूछ कर चली गई।
खिड़की से बाहर देखा। ट्रक के साथ कार में पराग भी था।
और साथ था कुसुम का बसंत।

अलमारी से दो तीन नींद की गोलियाँ निकाली और पानी के साथ लीं।
बसंत ना सही...नींद ही आ जाती।

 

१ फरवरी २०१७

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