वेलकम
टु अमेरिका
(तीसरा भाग)
अटलांटा एअरपोर्ट पर
इमिग्रेशन से निपटने के बाद बाहर आकर देखा कि लोगों की
निगाहें अपने–अपने आगंतुकों को तलाश रही हैं। कुछ
टैक्सी वाले आने वाले लोगों के नाम की तख्ती लिए खड़े
थे। तभी मुझे अपने नए कंपनी डायरेक्टर की एक हफ्ते
पहले ई–मेल पर दी गई सलाह याद आई कि अपने कैब ड्राइवर
से मिलने के बाद ही बैगेज क्लेम से अपना सामान उठाना।
दो दिन लग गए थे यह पता करने में कि टैक्सी को कैब भी
कहते हैं। पर यहाँ तो अपना नाम किसी की तख्ती पर नहीं
है। अब? आज तो रविवार है। आफ़िस भी बंद होगा। किसी को
फोन करूँ या खुद टैक्सी करूँ। उधेड़बुन में सोचा चलो
पहले बैगेज क्लेम से अपना सामान ही उठाया जाय। वापस
आकर फिर देखा तो एक नए नज़ारे के दर्शन हुए। वेटिंग
लाऊँज तकरीबन खाली हो चुका था। आगंतुकों को लेने आए
मुलाकाती उनकी झप्पियाँ ले रहे थे। एकाध देशी लोग जो
महीनों से अपनी बीबियों से दूर थे, उनके आने पर
झप्पियों के साथ पप्पी लेने से नहीं चूके। मैं सोच रहा
था कि अगर प्लेन में अशोक सिंघल या प्रवीण तोगड़िया आए
होते तो अमेरिका में हिंदुस्तानियों के इस तरह
सार्वनजिक प्रेम प्रदर्शन पर उनकी क्या प्रतिक्रिया
होती?
मेरी नज़र एक दुबले पतले मोना सरदार जी पर पड़ी जो एक
फटीचर से कागज़ के पोस्टर जैसा कुछ लिए अपना शिकार तलाश
कर रहे थे। नज़दीक जाकर देखा तो उनके पोस्टर पर मुझ
नाचीज़ का ही नाम चस्पा था। उनसे दुआ सलाम हुई तो जान
में जान आई। सरदार जी मुझे लेकर टैक्सी की ओर चल दिए।
बीच में किसी दक्षिण भारतीय युवक को उन्होंने एक अदद
"हाई" उछाल दी। रास्ते में सरदार जी ने एअरपोर्ट पर
अपने देर से प्रकट होने का राज़ खोला। वे समय से पहले
पहुँचे थे, पर मेरा और मेरी कंपनी का नाम लिखी तख्ती
घर में भूल गए। कार से वेटिंग लाउँज आते–आते मेरी
कंपनी के नाम "प्रिमस सॉफ्टवेअर" में से 'प्रिमस' उनकी
याददाश्त से कहीं टपक गया और वे सिर्फ़ सॉफ्टवेअर को
अपने साथ वेटिंग लाउँज लेते आए। दक्षिण भारतीय युवक
इमिग्रेशन से निकलने वाला पहला हिंदुस्तानी था। सरदार
जी ने उससे सवाल दागा, "आर यू फ्रॉम सॉफ्टवेअर?" अब
भला वह युवक क्यों मना करता आख़िर वह भी यहाँ
कंप्यूटरों से कुश्ती लड़ने ही तो आया था। सरदार जी उस
भाई को अतुल अरोरा समझ, अपने साथ ले गए और लगे रस्ते
में पंजाबी झाड़ने। सरदार जी का माथा ठनका जब वह बंदा
अंग्रेजी से नीचे उतरने को राज़ी नहीं हुआ। सरदार जी को
दाल में काला नज़र आया कि अगर कोई बंदा न हिंदी समझता
है न पंजाबी तो वह अरोरा तो हो ही नहीं सकता। सरदार जी
ने जब उसका नाम पूछने की ज़हमत उठाई तो उन्हें इल्म हो
गया कि वह ग़लत आदमी को पकड़ लाए हैं और असली अरोरा
उन्हें एअरपोर्ट के वेटिंग लाउँज पर लानतें भेज रहा
होगा। बेचारे तुरंत यू टर्न लगा कर एअरपोर्ट वापस आए
जहाँ उस दक्षिण भारतीय युवक को लेने आया ड्राइवर हैरान
हो रहा था कि उसका मुसाफ़िर कहाँ तिड़ी हो गया। सरदार जी
ने, इससे पहले कि असली अरोरा कहीं गुम न हो जाए, कहीं
से एक कागज़ का जुगाड़ कर मेरा नाम उस पर लिखा और मेरा
इंतज़ार करने लगे
यह बर्तन रखने की अलमारी है
कंपनी के गेस्ट हाउस में दो जंतु मिले, एक हिंदी भाई
महेश एक चीनी भाई डाँग। डाँग को मेरे महेश से हिंदी
बोलने पर कोई एतराज़ नहीं था, होता भी तो बेचारा अकेला
चना कौन सा भाड़ फोड़ लेता। महेश भाई टीसीएस के भूतपूर्व
कर्मचारी थे और उन्हें अमेरिका प्रवास का एक वर्ष का
अनुभव था। शुरू में बड़ी खुशी हुई कि नए देश में अपनी
ज़बान बोलने वाला कोई अनुभवी मित्र मिल गया। पर यह
खुशफ़हमी ज़्यादा देर नहीं रही। महेश भाई का अनुभव खाने
पीने के मामले में बहुत कष्टकारी सिद्ध हुआ। बंदा
ग्रोसरी स्टोर में शापिंग कार्ट लेकर एक तरफ़ से दौड़
लगाता था और पेमेंट काउंटर पर पहुँचने से पहले उसकी
शापिंग कार्ट वाली ट्रेन के सिर्फ़ चार अदद स्टेशन आते
थे टमाटर, दूध, दही एवं फल। इन सबके अतिरिक्त बाकी सभी
चीजें किसी न किसी प्रकार उसकी नज़र में माँस युक्त थीं
अतः कुछ देखना उसके हिसाब से समय की बरबादी था। चार
दिन से भाई ने टमाटर, चावल व दही निगलने पर मजबूर किया
हुआ था। मैं हैरान था कि बाकी कनपुरिये मात्र
दही–चावल–टमाटर पर यहाँ कैसे अब तक जीवित हैं।
एक दिन अपने पुराने मित्र शुक्ला जी के घर फोन किया तो
उनकी धर्मपत्नी ने इंडियन ग्रोसरी जाने की सलाह दी। पर
महेश भाई को इंडियन ग्रोसरी ले जाने को तैयार करना
किसी कुत्ते को बाथटब में घुसेड़ने से कम मुश्किल नहीं
था। रोज़ वही दही–चावल–टमाटर का भोज फिर बर्तन धोना। एक
दिन महेश भाई चावल बनाने में व्यस्त थे और मैं
गप्पबाज़ी में कि अचानक किसी अलमारी जैसी चीज़ का हैंडल
मुझसे खुल गया। एक अजीब सी अलमारी जिसमें बर्तन लगाने
के रैक बने थे। मेरे प्रश्न का महेश भाई ने उत्तर
दिया, "यह बर्तन रखने की अलमारी है। मैंने कहा पर रैक
तो ऊपर काउंटर पर भी लग सकते थे, तो यह अलग से अलमारी
की क्या ज़रूरत?" महेश भाई ने शांत भाव से उत्तर दिया
ताकि बर्तनों का पानी इसी में गिर जाए, देखो अलमारी के
नीचे पानी निकलने का छेद भी बना है।
मैं अभी तक बिजली के उल्टे स्विच की महिमा ही समझ नहीं
पाया था, अब यह नया शगूफा। दरअसल जिस अपार्टमेंट में
हम रुके थे वहाँ तकरीबन हर महीने नए लोग आते रहते थे
एवं पुराने लोग जाते रहते थे। इस आवागमन की अवस्था को
बेंच पर आना या बेंच से बाहर जाना कहते हैं। बेंच का
तत्वज्ञान बड़ा सीधा सा है। हिंदुस्तान से कंप्यूटर
प्रोग्रामर्स को अमेरिकी कंपनियाँ (बॉडी शॉपर्स य हेड
हंटर्स) 'एच वन बी' वीसा पर बुलाती हैं अपना स्थायी
कर्मचारी दर्शा कर, जो निश्चित अवधि के प्रोजेक्टस पर
दूसरी कंपनियों में काम करते हैं। दो प्रोजेक्टस के
बीच की अवस्था, या फिर नए 'एच वन बी' रंगरूट को पहला
प्रोजेक्ट मिलने से पहले की अवधि बेंच पीरियड कहलाती
है। यह एक तरह से अघोषित बेरोज़गारी है जिसमें हर बॉडी
शॉपिंग कंपनी के कायदे कानून उसकी सुविधा के अनुसार
बने हैं। कोई कंपनी बिना कोई भत्ता दिए ६–७ लोगों को
एक ही अपार्टमेंट में ठूँसकर रखती है। हफ्ते भर का
राशन दे दिया जाता है और तब तक पूरी तनख्वाह नहीं
मिलती जब तक बेंच पीरियड ख़त्म न हो जाए। इस गोरखधंधे
का खुलासा आगे के अध्यायों में विस्तार से करूँगा,
यहाँ सिर्फ़ इतना ही जोड़ूँगा कि मैं इस कंपनी में पहले
से तसल्लीबख्श हो कर आया था। मुझे पता चल गया था कि
मेरे कुछ और मित्र भी इसी कंपनी के सौजन्य से अमेरिका
पधारे हैं या आने वाले हैं। बाद में कंपनी के काम के
तौर–तरीके देखने और कंपनी के मालिकों से मिलने के बाद
यह यकीन हो गया कि मेरा कंपनी पर भरोसा सही निकला। पर
गेस्ट हाउस में एक हफ्ते में ही महेश भाई के तथाकथित
अनुभव का पोस्टमार्टम हो गया। श्री सत्यनारायण उर्फ
सत्या पीट्सबर्ग से बेंच पर गेस्ट हाउस में पधारे। वे
अमेरिका प्रवास के मात्र चार माह के अनुभवी थे उस पर
से ड्राइविंग लाइंसेंसधारी भी नहीं थे अतः महेश भाई की
नज़र में तुच्छ प्राणी थे।
दही–चावल–टमाटर का भोज तो वे बिना शिकवा शिकायत के
उदरस्थ कर गए पर हमें बर्तन साफ़ करते देख कर खुद को
रोक नहीं पाए और जिज्ञासु होकर पूछ बैठे कि हमें डिश
वाशर से क्या एलर्जी है? मैंने पूछा कि यह डिश वाशर
किस चिड़िया का नाम है तो उन्होंने बर्तन रखने की
अलमारी के असली गुणों का परिचय करा कर हम अज्ञानियों
का उद्धार कर दिया।
परंतु अब महेश भाई हम लोगों के निशाने पर आ चुके थे।
जल्द पता चल गया कि महेश भाई के दही–चावल–टमाटर प्रेम
का राज़ शाकाहार नहीं बल्कि निरी कंजूसियत है। महेश भाई
वास्तव में टीसीएस (एक नामचीन भारतीय बॉडी शॉपिंग
फर्म) से फरारी काट रहे थे। वे खुद अटलांटा में थे पर
उनके प्राण उनकी खटारा कार जिसे वे केंटकी में छोड़ आए
थे, में अटके थे। हर शनिवार की सुबह उनका एक ही शगल
होता था, केंटकी फोन करके अपने दोस्तों से यह पूछना कि
उनके पुराने मैनेजरों में कोई उनको, उनके बिना बताए
भाग आने पर ढूँढ तो नहीं रहा, और अपने दोस्तों से
चिरौरी करना कि अटलांटा घूमने आ जाओ। वजह साफ़ थी, पाँच
सौ डालर की कार को बिना नौ सौ का भाड़ा खर्च किए
अटलांटा मँगाने का इससे सस्ता तरीका नहीं हो सकता था।
महेश भाई ने बचत के अनोखे तरीके ईजाद कर रखे थे। दो
महीने से पहले बाल कटवाने नहीं जाते थे। अपनी कृपण
मित्र मंडली के सौजन्य से हर बार ऐसी हेयर कटिंग सलून
का पता लगा लेते थे जहाँ नए कारीगरों को प्रशिक्षण के
लिए माडलों की ज़रूरत होती थी। महेश भाई हमेशा ऐसी जगह
सहर्ष माडल बनने को तैयार हो जाते थे, क्योंकि वहाँ
बाल काटने के चौथाई पैसे पड़ते थे। तभी वह हर बार नई से
नई हैरत अंगेज़ हेयर स्टाइल में नज़र आते थे, भले ही इसी
वजह से हमारे कंपनी मालिक नीरज साहब उन्हें उस हफ़्ते
कहीं व्यक्तिगत साक्षात्कार पर भेजने से पहले हज़ार बार
क्यों न सोचें।
हम काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं
महेश भाई को एक मित्र मोहन ने सप्ताहांत पर अपार्टमेंट
शेयर करने का प्रस्ताव दिया। हर अपार्टमेंट कांप्लेक्स
का स्विमिंग पूल देखने का आग्रह ज़रूर करते थे। मोहन को
उनका स्विमिंग पूल से अतिशय प्रेम हजम नहीं हो रहा था।
एक और बात थी कि अक्सर अपार्टमेंट पसंद आने के बाद
मोहन भाई स्विमिंग पूल देख कर ही अपार्टमेंट नापसंद कर
देते थे। झल्लाकर मोहन को पूछना पड़ा कि आखिर स्विमिंग
पूल से महेश को क्या शिकवा है? बात बड़ी दिलचस्प निकली।
दरअसल महेश भाई ध्यान दे रहे थे कि आसपास अश्वेतों की
आबादी कितनी है। चूँकि वर्णभेद दंडनीय अपराध है, अतः
प्रबंधतंत्र से सीधे नहीं पूछा जा सकता था कि वहाँ किस
तरह के लोग रहते हैं? इसलिए महेश भाई ने स्विमिंग पूल
के मुआयने के बहाने अश्वेतों की आबादी का अनुपात
निकालने की विशुद्ध देशी तरीका ईजाद किया था। यह पता
चलने पर मोहन ने महेश भाई को लंबा चौड़ा भाषण पिला
दिया, गाँधी जी तक को बहस में घसीट लिया गया। पर महेश
भाई टस से मस नहीं हो रहे थे। बहुत घिसने पर महेश भाई
ने बताया कि अश्वेतों से उन्हें कोई दुराग्रह नहीं है,
बल्कि पूर्व में उनके साथ हुई एक दुर्घटना इस एलर्जी
का कारण है। दरअसल जैसे लँगड़े को लँगड़ा कहना ग़लत है
वैसे ही काले को काला कहना। देशी बिरादरी अश्वेतों को
आपसी बातचीत में कल्लू कहकर बुलाती है। पर धीरे–धीरे
यहाँ के कल्लुओं को पता चल गया है कि कल्लू का मतलब
क्या होता है। बल्कि उन लोगों ने सभी प्रसिद्ध भाषाओं
में कल्लू का मतलब सीख रखा है। पर महेश भाई को कल्लुओं
के ज्ञान की सीमा का पता न्यूयार्क यात्रा में चला। वे
अपने बचपन के दोस्त के साथ घूम रहे थे, जिसका नाम
दुर्योग से कल्लू था। महेश भाई ने टाइम्स स्क्वेयर पर
दोस्त को जोर से पुकारा और पास खड़े चार अश्वेतों को
इतना बुरा लगा कि उन्होंने महेश भाई को खदेड़ दिया। वह
दिन है और आज का दिन है महेश भाई एक ही गाना गाते हैं-
"जिस गली में तेरा घर हो कलवा, उस गली से हमें तो
गुज़रना नहीं।"
श्री सत्यनारायण कथा
एक दो हफ्ते बाद प्रोजेक्ट मिल गया और मैं सत्या भाई
के साथ कुछ माह के लिए रूम पार्टनर बन गया। सत्यनारायण
जी ने बहुत से काम अपने अनुभव से आसान कर दिए। अब मैं
भी एक अदद क्रेडिटकार्ड धारी था। सत्या भाई शास्त्रीय
संगीत प्रेमी थे। मेरे पास कुछ गिनी चुनी ऑडियो सीडी
थीं और उनको कोई भी खास पसंद नहीं थी। एक दिन मैं
इंडियन ग्रोसरी से दलेर मेहँदी का तुनक तुनक उठा लाया।
वह उनको कुछ ज़्यादा ही भा गया। हालाँकि उस भलेमानुस को
लुंगी में कुछ तमिलियाना अंदाज़ में तुनक तुनक तुन गाते
देखना कम रोचक नहीं था। एक दिन सवेरे बाथरूम में नहाते
हुए सत्या भाई बाथटब में ढह गए। कारण था नहाते हुए
भाँगड़ा करने की बचकानी कोशिश।
मोनिका को गुस्सा क्यों आया?
यह घटना किसी चुटकुले से कम नहीं है। घटना की
संवेदनशीलता को मद्देनज़र रखते हुए मैंने इसके दो
पात्रों (तीसरी पात्रा से अब संपर्क नहीं है) से इसे
अपनी किताब में शामिल करने की पूर्वानुमति ले ली है।
बात मेरे पहली कार खरीद लेने के बाद की है पर हमारे
कंपनी गेस्ट हाऊस से जुड़े होने के कारण इसका ज़िक्र इस
अध्याय में ही उचित होगा। मेरे इंजीनियरिंग कॉलेज में
साथ पढ़े पाँच छः मित्र तीन महीनों के अंतराल पर हमारी
कंपनी में ही नियुक्त होकर अमेरिका आए। कंपनी के गेस्ट
हाउस का फोन नंबर, इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़े अमेरिका
में मौजूद तकरीबन सभी मित्रों को पता था। प्रायः सभी
मित्र नए आने वाले दोस्तों को फोन लगाकर उनके हालचाल
पूछ लेते थे और ज़रूरी सलाह मशविरा भी दे देते थे। मैं
चूँकि अटलांटा में प्रोजेक्ट पर कार्यरत था अतः गेस्ट
हाउस में आने वाले मित्रों से आसानी से मिल सकता था।
एक बार मेरे से एक साल वरिष्ठ सहपाठी श्रीमान सोती जी
गेस्ट हाऊस में पधारे। सोती जी बहुत ही विनम्र स्वभाव
के मित्र हैं। उस सप्ताहांत पर मैं गेस्ट हाऊस गया और
उन्हें लेकर अपनी कार से अटलांटा भ्रमण पर निकल गया।
उसी सप्ताह गेस्ट हाउस में दो और नए प्राणी आए थे, एक
बंदा जिसका मुझे नाम याद नहीं और एक बंदी मोनिका। उन
दोनों से हम लोगों ने जाते हुए पूछ लिया था कि उन्हें
इंडियन ग्रोसरी से कुछ मँगाना तो नहीं। शाम को मैंने
सोती जी को गेस्ट हाउस वापस छोड़ा और अपने अपार्टमेंट
को चल दिया। मेरे रूम पार्टनर सत्यनारायण स्वामी ने
बताया कि मेरे लिए किन्हीं गोस्वामी का फोन था।
गोस्वामी जी भी मेरे वरिष्ठ सहपाठी हैं और श्रीमान
सोती के बैचमेट हैं। गोस्वामी जी बहुत ही मिलनसार एवं
विनोदी स्वभाव के हैं। गोस्वामी जी से हुआ वार्तालाप
प्रस्तुत है–
मैं : गुरूजी, नमस्कार।
गोस्वामी जी : नमस्कार प्रभू, क्या गुरु खुद भी घूमते
रहते हो और हमारे सोती जी को भी आवारागर्दी की आदत
डलवा रहे हो।
मैं : अरे गोस्वामी जी सरकार, अब अपने मित्र भारत से
नए नए आते हैं, पास में कार तो होती नहीं, तो थोड़ी
सेवा ही सही। सोती जी को शापिंग कराने ले गया था।
गोस्वामी जी : अच्छा अच्छा। यार पर एक बात बता, गेस्ट
हाउस में भाभीजी भी साथ आई हैं क्या? और क्या भाभी
बहुत तेजतर्राट हैं या आज उनका सोती से सवेरे सवेरे
झगड़ा हुआ था?
मैं : भाभीजी? तेजतर्राट? अरे गुरूदेव, सोती साहब तो
अकेले आए हैं, भाभी बाद में आएँगी। आपको किसने कह दिया
कि उनका कोई झगड़ा हुआ है?
गोस्वामी जी : यार लगता है कुछ लोचा हो गया है। कुछ
समझ नहीं आ रहा। मैंने सवेरे गेस्ट हाउस सोती को फोन
लगाया था। सोती तो मिला नहीं, फोन पर किसी महिला की
आवाज़ आई। मैं समझा कि शायद सोती भारत से भाभीजी को साथ
लाया है। मैंने नमस्ते की और बताया कि गेस्ट हाउस का
नंबर मैंने तुझसे लिया है।
मैं : फिर?
गोस्वामी जी : मैंने उन मोहतरमा से पूछा कि "सोती किधर
है?" पर इतना पूछते ही वह भड़क गई, कहने लगी कि आपको
तमीज़ नहीं है। आप महिलाओं से ऊलजलूल सवाल पूछते हैं,
आपको शर्म आनी चाहिए। यह कहकर उन मोहतरमा ने फोन ही
पटक दिया। अब यार तू ही बता, मैंने कौन सा ऊलजलूल सवाल
पूछा?
मैं भी पशोपेश में पड़ गया कि गोस्वामी जी से ऐसी कौन
सी खता हो गई जो मोनिका जी क्रुद्ध हो गईं। चूँकि
मोनिका जी अगले ही दिन किसी दूसरे प्रांत चली गईं, अतः
उनसे संपर्क नहीं हो सका। हालाँकि बाद में जब यह
वृतांत अन्य मित्रों को बताया गया तो वह सब के सब
हँस–हँस के दोहरे हो गए। उनके जवाब "जाकी रही भावना
जैसी, प्रश्न का अर्थ समझे तिन तैसी" ने गुत्थी सुलझा
दी। अफ़सोस कि मोनिका जी को हम यह स्पष्टीकरण नहीं दे
सके। यदि आपको मोनिका जी कहीं मिले तो आप उन्हें बता
दीजिएगा कि गोस्वामी जी ने तो उनसे सिर्फ़ अपने मित्र
सोती जी का ठिकाना पूछा था।
९ मार्च
२००५ |