कुछ
महीने पहले की ब्याही बहू अखबार में नजर गड़ाए शांति की खोज
में लगी पड़ी थी। मगर बड़ी देर से, बगल के कमरे से आती
सासू-माँ और नन्द-रानी की अनवरत आवाजें उसके कानों को
बार-बार छेड़े जा रही थीं, जो दुनिया भर के रिश्तेदारों के
गुण-अवगुणों का छिद्रान्वेषण करने में व्यस्त थीं।
तभी नन्दरानी जी तानों की दुनिया से तन की दुनिया की ओर
लौटीं, “मम्मी अब भूख लगी है."
सासू माँ भी प्रपंच की दुनिया से बाहर निकलकर पेट की
दुनिया पर लौटीं-
“बहू खाना तो लगाना।”
बहू ने खाना गरम करके, तवे को चूल्हे पर चढ़ाया और सासू-माँ
व नन्द-रानी आ बिराजीं।
बहू ने लोई तोड़ने के लिये हाथ बढ़ाया ही था, कि नन्द-रानी
टप्प से बोल पड़ीं-
“मम्मी, मैं इसके हाथ की रोटी नहीं खा सकती, मेरे गले से
नहीं उतरेगी।”
सासू-माँ प्रपंच करके शायद इतनी थक गईं थीं कि एक बार भी न
बोलीं कि लाओ मैं बना दूँ, उल्टे बोल पड़ीं, “अरे खा भी लो
गरम गरम में ठीक लगती हैं, नहीं तो खुद ही बना लो।”
नन्द-रानी रोटी बनाने को उठीं और उनके बढ़ते हाथों को देख,
भौजाई पीछे को सिमट गयी। वह अन्दर ही अन्दर जली-कुढ़ी जा
रही थी, किन्तु साथ में रोटी बनाने की प्रक्रिया पर अपनी
नजरों से निशाना भी साधे हुए थी। लोई टूटकर परथन में लिपटी
और चकले पर पहुँच गयी, बेलन के किनारों पर दोनों हथेलियों
के साथ सारी ऊँगलियाँ भी किसी मकड़ी की तरह फैलकर चारों ओर
रोटी के साथ ऐसे घूमने लगीं, मानों चकले पर भी अपने जाल का
वर्चस्व फैला रही थीं। अब रोटी तवे पर पहुँचकर सीझ चुकी
थी, बस आँच पर चढ़ने को तैयार थी। मगर ये क्या... चिमटा
उसे फुलाने के लिए उतावला सा उलटने-पुलटने में लगा था और
रोटी अपनी ढिटाई दिखाती पापड़ सी चिमटकर काली चित्ती के संग
नन्द-रानी को मुँह चिढ़ा रही थी।
रोटी को न फूलना था न फूली, मगर नंदरानी की बनाई उस चपटी
रोटी को देख भौजाई मन ही मन ख़ुशी से फूली न समाई।
१५ फरवरी २०१७ |