सुबह सबेरे, गजरदम- भोर का
समय। सूरज निकल आया होगा। चिड़ियाँ बोल रही होंगी। कौवे भी
लग लिये होंगे। मोर भी कहाँ पीछे रहने वाले हैं ऐसे में।
नाच रहे होंगे वे भी। ठुमक रहे होंगे। नाचने की बात सुनकर
मोर बिदक न जायें इसलिये संशोधित कर दिया जाये। आप इसे
दुबारा पढ़ लें। न! न! पीछे न जायें। आपके लिये आगे लिखेंगे
हुजूर। पाठक फ़्रेंडली हैं जी। तो आप पढ़ें कि मयूर नृत्यरत
हैं। करेंगे वे वही जो कर रहे हैं लेकिन नाम कायदे का
चाहिये। लेकिन आप ज्यादा पचड़े में न पड़ें। यही समझ लें कि
नाच की जगह नृत्य करने से वही फ़रक पड़ता है जो सेवक के लिये
भृत्य कहने से पड़ता है।
बहरहाल, हियाँ की बातें हियनै छ्वाड़ौ औ आगे का सुनौ हवाल।
भौंरे कलियों के ऊपर मंडराते हुए कुछ-कुछ कहते हुये से लग
रहे हैं। न जाने क्या-क्या, क्यों-क्यों कह रहे हैं। शायद
यही कह रहे हों कि आज मौसम बड़ा खराब है, या फिर यह कि देखो
पटक के मारा, धूलि-धूसरित कर दिया कंगारुओं को। लेकिन
दुनिया यही कहेगी कि वे कलियों से इलू-इलू कह रहे हैं।
शायद गाते हुए बता रहे हों- हम तुम पर इतना डाइंग, जितना
सी में पानी लाइंग, भौंरा बगियन में गाइंग! लोगों का क्या
कहें, हमीं कह रहे हैं जी। आप भी वही सुन रहे होंगे। है न!
भौंरे कलियों के आगे लेफ़्ट-राइट कर रहे हैं। ढीली बेल्ट
टाइट कर रहे हैं। भौंरे थके जा रहे हैं। लेकिन लगे हैं।
भौंरे अपने रकीबों को धकिया रहे हैं। गरिया रहे हैं।
धमकिया रहे हैं। ‘सद्य यौवना’ कलियाँ अपनी बाग-मोहिनी
मुस्कराहट से उनका उत्साह वर्धन कर रही हैं। उकसा सा रही
हैं।
अच्छा जी, ये जो ‘सद्य यौवना’ लिखा कलियों के लिये वह कुछ
ज्यादा तो नहीं हो गया? इससे ऐसा तो नहीं लगता कि जैसे वे
एकदम बड़ी हो गयीं। ‘तड़ से जवान’ हो गयीं। या कि यह लगता है
कि जो कलियाँ कई दिनों से खिली हैं वे भी अपने को ‘सद्य
यौवना’ कहने के लिये प्रयास रत हो जायेंगी। लफ़ड़ा है इसमें।
लोचा है। अच्छा इसे बदल के देखें। ‘सद्य यौवना' की जगह
‘सद्य प्रस्फ़ुटित' लिखा जाये तो कैसा रहेगा? ‘प्रस्फ़ुटित’
माने भागने वाली फूटी नहीं भाई। खिली हुई। देखियेगा और
बताइयेगा।
बगीचे में कलियों-फ़ूलों के ऊपर भौंरे मड़रा रहे हैं। रात को
भुनभुन कर जी हलकान करने वाले मच्छर फ़ूलों के नीचे की छाया
में एड़िया रहे हैं। उबासी ले रहे हैं। भुनभुना रहे हैं। जो
भौंरे पुष्प-परिक्रमा करते हुये थकान से चूर हो गये वे
इधर-उधर निगाह फ़ेरते हुये मौका मुआयना कर रहे हैं। मच्छरों
को देखते ही उनका खून वैसे ही खौल उठा जैसे वेलेंटाइन दिवस
के समय युवा जोड़ों देखकर कट्टर देशभक्तों का खौल उठता है।
वे मच्छरों को हड़काते हुये बोलते भये- आमची बगीची से
तुरन्त बाहर चले जाओ। यहाँ शरीफ़ कलियों को छेड़ते हो। फ़ूलों
पर निगाह डालते हो। पत्तियों पर अवैध कब्जे करते हो? आमची
बगीची का सारा माहौल खराब कर दिया। तुरन्त चले जाओ यहाँ
से।
मच्छर चुप हैं। चुप नहीं हैं। असल में वे इत्ते धीरे-धीरे
बोल रहे हैं कि उनको भी साफ़ नहीं सुनाई दे रहा है। एक
मच्छर भुनभुना रहा है- ससुरे, लंपट, लफ़ंगे
फ़ूल-कली-पत्तियों पर सबेरे से मंडरा रहे हैं। सूरज ढलते ही
सबको चूस के चले जायेंगे। रात भर अँधेरे में हम साथ देते
हैं इनका। अब ये आये हैं हमसे कहने वाले-निकल जाओ यहाँ से।
बड़े आये कहीं से।
युवा मच्छर तो इसका मुँह तोड़ जवाब देने के लिये तत्पर थे।
एक बोला -कहो तो काट के आयें अभी। मलेरिया हो जायेगा।
काँपते -काँपते निपट जायेगा। दूसरा बोला-अरे हम फ़ाइलेरिया
कर दें अभी ससुरे को! कहो तो। भौंरा है पुल्लिंग प्रजाति
का लेकिन एक बार काट लिया तो जिन्दगी भर के लिये पाँव भारी
रहेगा।
भगवान भुवन भास्कर भी बड़े रागिया हैं। रसिया हैं। सच कहें
तो रसिया च रागिया हैं। प्रकाश किरणें घास पर सब्सिडी सम
बिखरा रहे हैं। पूरा का पूरा रोशनी का थान खोल के बिछा
दिया है लान में। लापरवाही से। कौनो उनको पैसा तो पड़ता
नहीं है। सब फ़्री-फ़ंड में उपलब्ध है। बहुतायत में। वे घास
पर तो प्रकाश किरणों को बाल्टी से पानी की तरह उलीच से रहे
हैं। वहीं कलियों और फूलों पर वे बड़े सलीके और बड़े
मुलायमियत से स्वर्ण रश्मियाँ सजा रहे हैं। सजगता में भी
वे फगुनौटी शरारत करने से बाज नहीं आ रहे हैं। नजर बचाकर
कलियों को हल्के से सहला सा दे रहे हैं। कलियाँ सब समझती
हैं। आजकल हर कली समझदार पैदा होती है। वे सूरज की शरारतों
को उनके वात्सल्य के रूप में ग्रहण करके खिलखिला रही हैं।
ठिलठिला रही हैं। किरणों के मन में भी सुगंधित पुष्पों के
स्पर्श गंध से गुलगुले फ़ूट रहे हैं। वे सब मिलकर सारे
माहौल को खुशनुमा च हँसनुमा बना रही हैं।
खेत में मर्द की तरह खड़े जौ के पौधे अपनी नुकीली मूँछों पर
ताव देते हुये सूरज प्रसाद फादर आफ कर्ण द ग्रेट सन आफ
कुंती के सारे क्रिया कलाप देख रहे हैं। उनकी मर्दानगी
उनको ललकार रही है। कई कम्युनिस्ट टाइप के जौ के पौधे अपने
अगल-बगल वाले को धकियाते च हुमसियाते से उकसा रहे हैं।
सूरज की किरणों को ग्लोबल आक्रमण बताते हुए उसके खिलाफ़
मोर्चा बनाने का आवाहन कर रहे हैं। क्रांति का आवाहन कर
रहे हैं। लेकिन दूसरे पौधे जो अपनी औकात समझते हैं शान्ति
के साथ अपनी मूँछों पर अलसाई सी पड़ी निठल्ली धूप को सहला
रहे हैं। शान्ति और स्वर्ण किरणों के सानिध्य में उनकी
क्रांतिकामना सुप्तावस्था को प्राप्त हुई सी है।
उधर आप एक और नजारा देखिये। जरा नजर घुमाइये न जी। देखिये
उस कागजी फूल पर तीन भौंरे एकसाथ धप्प से कूदे। फ़ूल शुरू
से ही लाल है जी। लाज वश या क्रोध वश लाल नहीं हुआ। कली से
अभी-अभी विहानै में फूल बना कागजी फ़ूल अचकचा के पानी में
पड़ी नाव की तरह इधर-उधर डोला। आदतन ‘हाय दैया!’ भी बोला।
हवा के सहयोग से उसका हिलना-डुलना, हाला-डोला में बदल गया।
मन तो फूल का यह भी हुआ कि नाव की तरह वह भी उलट जाये और
तीनों शरारती भौंरों को धूल चटा दे। लेकिन उसे लगा कि उसके
उलटने से उसका तना टूट जायेगा। अपने गुस्से के चक्कर में
वह उस तने को कैसे तोड़ देता जिसके सहारे वह इस स्थिति को
प्राप्त हुआ। वह फूल है कोई आदमी तो नहीं जो तने के अहसान
को बिसरा दे।
लेकिन आप ऊपर-ऊपर का ही मामला गौर फरमा रहे हैं जबकि आपसे
आशा यह की जाती है कि आप जमीन से भी जुड़े रहें। जुड़े क्या,
बैठे रहें. मौके की नजाकत देते हुए लेट भी जायें तो कौनौ
हर्जा नहीं है जी!
नीचे घास पर एक कीड़ा बेसबब बोले तो बेमतलब भागता हुआ दूर
तक चला गया है। अरे, आगे जाकर वह जमीन पर उलट के लेट गया
है। अपनी सारी टाँगें ऊपर उठाकर आसमान को ठोंकने का
बार-बार इशारा सा कर रहा है। गनीमत है आसमान उसकी मूँछों
और टाँगों की पहुँच के बाहर है वर्ना आसमान में छेद हो
जाता। कीड़े की हरकतों को देखकर आभास हो रहा है कि कीड़ा
पूर्व-जन्म में फास्ट बालर रहा होगा। खूब विकेट लिया होगा।
बल्लेबाज का डन्डा उड़ा के कैसे न कैसे बालर लोग भागते हुए
अल्टी-पल्टी खाने लगते हैं। वही हरकतें आदतन कीड़ा कर रहा
होगा।
एक दूसरा पतंगा घास की नोक पर बैठा उससे ‘हाऊ डू यू डू'
कहने की बार-बार कोशिश कर रहा है। लेकिन घास की पत्ती उसे
हर बार अपने से नीचे झटक दे रही है। पतंगा बार-बार प्रयास
कर रहा है। गिर रहा है, उठ रहा है। फिर-फिर, गिर-उठ रहा
है। उठ-उठ, गिर-गिर रहा है। घास की नोक पर ठहरी ओस की बूँद
हिल-हिलकर वातावरण को शोभायमान कर रही है। किरणों के सहयोग
से ‘नैनो इन्द्रधनुष' बना रही है। कित्ती तारीफ़ करें माहौल
की? आप यही समझ लीजिये कि माहौल की शोभा वर्णनातीत है।
एक वो पतंगा ही नहीं, न जाने कित्ते कीड़े दूब के पौधों से
लड़ियाने का सफ़ल-अर्धसफल-असफल प्रयास कर रहे हैं। आप चाहें
तो क्रम पलट के असफल-अर्धसफल-सफल प्रयास पढ़ सकते हैं। बात
एक ही है। मुख्य बात यह है कि आपका मन किसमें रमता है।
लेकिन आप ज्यादा रमिये भी नहीं। रम गये तो तमाम नजारों से
वंचित हो जायेंगे। अब ये नजारे कोई क्रिकेट मैच तो हैं
नहीं जिसके रिप्ले बार-बार दिखाये जायें। सो ध्यान लगा के
देखिये।
उधर देखिये दूब की पत्ती ने नजदीकी बढ़ाने की आकांक्षा
पालकर उससे सटने का प्रयास करते हुए कीड़े को अपना मुँह
शीशे में देखकर आने या पानी में धोकर आने के लिये कहा।
कीड़ा अगर समझदार होता तो दूब की पत्ती की चुनौती के पीछे
छिपे उपहास को झट समझ जाता और पट से उसे पतित, नकचढ़ी, डरी
हुई, अप्रगतिशील बताकर अपनी राह लगता। लेकिन वह ‘बौड़म
बसन्त’ लगता है कि फ़रहाद का खानदानी था। दूब के कहे अनुसार
पास के गड्डे में अपना मुँह धोने के लिये गम्यमान हुआ। दूब
हवा की गोद में बैठकर डोलने लगी।
इत्ते में वह मयूर जिसका जिक्र ऊपर हम कर चुके हैं। धप्प
से घास की कालीन पर कूदा आकर। ऐन दूब के ऊपर। दूब मिट्टी
में धँस सी गयी। उसकी साँस रुक गयी। उसको लगा उसके दिन
पूरे हुए। बेहोश होते होते उसने अधमुंदी आँखों से देखा
नठिया मोर उसकी अगल-बगल की दूब, घास, खर-पतवार को रौंदता
हुआ नृत्य रत था। पचीसों कीड़े घायल हो गये, कइयों ने बिना
माँगे अंतिम विदा ली, कइयों का तो पता ही न चला वे जिये कि
मरे। गरज यह कि सारा वातावरण मनोरम हो रहा था। मनोरम,
अनुपम और ‘शोभा वरनि न जाये’ टाइप हो रहा था। इसी मनोरम च
अनुपम शोभा के इंतजाम में अनगिन कीड़े-मकोड़े इस असार-संसार
से हमेशा के लिये कम हो रहे थे। दब-कुचल, मर-खप कर वे
सुंदरता के कंगूरे की नींव की ईंट हुए जा रहे थे। ईंट क्या
नींव का मलबा कहिये जी।
दूब की पत्ती को जब होश आया तो शाम हो चुकी थी। अँधेरा उतर
आया था। उसने देखा कि वही कीड़ा जिसको उसने सबेरे शीशे में
मुँह देखकर या फ़िर मुँह धोकर आने के लिये कहा था उसको
आहिस्ते-आहिस्ते हिला-डुला के सहला रहा था। दर्द से दूब का
सारा बदन कसक रहा था। उसे सारा घट्नाक्रम याद आया।
धीरे-धीरे बेहोश होने के पहले का तो उसे याद आ गया। उसके
बाद का किस्सा कीड़े ने नमक-मिर्च लगाकर बताया।
अब अगर आपको स्वास्थ्य कारणों से नमक-मिर्च से परहेज है तो
आप ‘नमक-मिर्च’ की जगह ‘बढ़ा-चढ़ाकर' पढ़िये। और अगर आलस्य और
साँस के मरीज होने की वजह से आपको बढ़ाने और चढ़ाने में
तकलीफ़ होती है तो आप ‘नमक-मिर्च' की जगह ‘जोड़-घटाकर' बाँच
लीजिये। मुझे मालूम है कि आप पर्याप्त हाजिर जबाब हैं सो
कहेंगे कि आपकी गणित कमजोर है। ‘जोड़-घटाना' नहीं आता। सो
आप ऐसा समझिये कि कीड़े ने दूब की पत्ती को जो बताया उसमें
उसने अपना संपादकत्व ठेल दिया। मतलब कि जो हुआ उसका कुछ
हिस्सा बताया नहीं और बहुत कुछ बताया जो हुआ ही नहीं था।
बीता हुआ बखान करने में यही होता है जी। आप मानिये, हम कह
रहें हैं। आपसे गलत थोड़ी बतायेंगे।
बहरहाल, उसने बताया कि तुम्हारे बताये अनुसार मैं पास के
गड्ढे से अपना मुँह धोकर आया तो देखा कि एक मयूर तुम्हारे
ऊपर ही नाच रहा बेशर्मी से। मेरी तो जान ही सूख गयी। लेकिन
जान पूरी सूखे इससे पहले खून खौल उठा। मैंने पास की झाड़ी
का काँटा उठाकर मोर के पैरों के नीचे रख दिया। उसके चुभ
गया तो वह सारा ‘नाच-वाच' भूलकर ‘तीन-दो-पाँच’ हो गया।
इसके बाद मैंने देखा तुम्हारा पूरा शरीर मिट्टी में दबा सा
है। मैंने धीरे-धीरे बाहर निकाला तुमको। सबेरे से
हिलाते-डुलाते सब शाम को होश आया है तुमको। तुमको होश आया,
हमको चैन मिला।
दूब की पत्ती हाल वैसा ही हुआ जैसा ऐसे में नायिकाओं का
होता आया है। वह कीड़े के प्रति अपने सुबह के व्यवहार से
शर्मिन्दा होकर जमीन में गड़ने को तत्पर हुई। कीड़ा जो कि
दिन भर की मेहनत के बाद नायक बन चुका था उसको बरजते हुये
बोला- अरे, अरे क्या करती हो? फिर से हमसे मेहनत करवाओगी?
दूब को जब कीड़े ने अधिकार पूर्वक पृथ्वी में धँसने से रोक
लिया तो उचित समय जानकर अवसरानुकूल संवाद दोहराने का
निश्चय किया। उसने हवा का शाम की हवा का सहारा लेते हुए
कहा- मैंने तुमसे कितना बुरा च खुरदुरा व्यवहार किया लेकिन
तुमने अपनी जान पर खेलकर मेरी जान बचायी। तुम कित्ते अच्छे
हो। अब मुझे सिवाय इसके कुछ और समझ नहीं आ रहा है कि मैं
तुमसे यह कह ही डालूँ कि तुम मुझे कितना चाहते हो! तुमसे
मेरे लिये कितना त्याग किया।
कीड़े के कानों में घंटियाँ बजने लगीं। वह चाहता तो
अवसरानुकूल प्रेम-पगे संवाद झाड़ते हुए प्रेम-पींगे बढ़ाने
के पुण्य कर्म में रत हो जाता। लेकिन उस पट्ठे ने अपने को
इस छुद्र लालच से विरत रखते हुये दूसरे टाइप के संवादों की
झड़ी सी लगा दी। वह कहता भया।
क्या कहता भया! यह बताने का उचित समय नहीं है जी अब। न
मौका न दस्तूर। प्रेमी युगलों की नितान्त व्यक्तिगत
वार्तालाप को आपसे सामने पेश करना सामाजिक व्यवहार के
प्रतिकूल होगा। आप खुदै बूझिये। न बूझ पार रहे हों तो
कल्पना के घोड़े दौड़ाइये। न हो घोड़ा तो घोड़ी दौड़ाइये। वह भी
न हो तो गधा दौड़ाइये। ज्यादा खर्चा बचाना हो खुदै दौड़
लीजिये। बकिया, हम न बतायेंगे। माफ़ कीजियेगा।
बतायें भी क्या? उनमें प्रेम-श्रेम हो गया है। और प्रेम की
भाषा मौन है। सो आपको खुदै बूझना पड़ेगा। बूझिये और सड़क पर
चलती गाड़ी में चलते हुये एफ़-एम चैनेल में जो गाना बज रहा
है , जो शायद इन्हीं ‘बसन्त-बौड़म’ के मौन की भाषा का
तर्जुमा कर है, उसे भी सुनते चलिये-
हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे
मरने वाला कोई जिंदगी चाहता हो जैसे।
अगर आप सड़क छाप भावुकता से बचना चाहते हैं और शेरो-शायरी
का शौक रखते हैं तो आपके लिये स्व.वली असी का फड़कता दुआ
शेर पेश है-
अगर तू इश्क में बर्बाद नहीं हो सकता
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता।
इत्ता बहुत है कि कुछ और पेश किया जाये? |