साहित्य संगम में लोचन बख्शी की
पंजाबी कहानी का रूपांतर
धूल तेरे चरणों की
रूपांतरकार हैं महीप सिंह
मिले
ताँ मस्तक लाइए, धूल तेरे चरणाँ दी।'
साधु-संगत पढ़ रही थी और पाकिस्तान-स्पेशल यात्रियों के इस
जत्थे को लिए हुए छकाछक उड़ी जा रही थी। बाहर दूर तक रेगिस्तान
फैला हुआ था। कभी-कभी बाजरे के खेत दिखाई दे जाते या फिर
कहीं-कहीं पीले फूलों से लदे हुए बबूल के काँटेदार पेड़ दीख
पड़ते। इनसे हटकर सारा दृश्य हरियाली से शून्य, वीरान और
सुनसान था। पालासिंह खिड़की के बाहर देख रहा था। उसकी खुली हुई
दाढ़ी धूल से अटी हुई थी। रेतीले मैदान से एक बगूला उठा और हवा
के कन्धों पर सवार गाड़ी के अन्दर आ गया।
''खिड़की बन्द कर दो,'' जत्थेदार जी बोले।
पालासिंह मुस्करा दिया-''यही तो हमारे देश का मेवा है,
बादशाहो, तुम इसे रेत कहते हो, इस रेते के लिए तो मेरी आँखें
तरस गयीं।'' आज चौदह साल के
लम्बे अरसे के बाद पालासिंह देश जा रहा था।
रावलपिंडी के पश्चिमी रेतीले इलाके में उसका गाँव था,
घर-घाट था, जमीन थी, एक दुनिया थी।
आगे...
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त्रिलोचना की लघुकथा
मन्नत के धागे
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प्रकृति और पर्यावरण में
जानकारी- पेड़ बबूल का
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रामदरश मिश्र की कलम से
ललित निबंध- बबूल और कैक्टस
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पूर्णिमा वर्मन का आलेख
डाकटिककटों
पर बबूल के चित्र
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