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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.एस.ए. से सुषम बेदी की कहानी- पार्क में


चैन से दाना चुगते कबूतरों का वह झुंड गिलहरी के आते ही पलक भर में उसके सिर पर से गुजर कर पेड़ों की पत्तियों और टहनियों के बीच गायब हो गया। बड़ी हैरानी के साथ वह उस गिलहरी की हरकतों को ताकता रहा। सिर्फ एक गिलहरी और इतने कबूतरों की जिन्दगी में हलचल। गिलहरी तो खुद ही बड़ा मासूम सा जानवर लगता है उसें मनु को इसे देखते ही लंका जाने के लिये पुल बनानेवाले राम का ध्यान आता है जिनकी तिनके भर की मदद करके गिलहरी ने अपनी पीठ पर स्नेह की तीन उँगलियों की छाप आज तक बरकरार रखी हुई है। लेकिन इन अमरी गिलहरियों की पीठ तो एकदम सादा और बेनिशान है। शायद इनका त्रेतायुग की गिलहरियों से कोई नाता ही नहीं। यहाँ तो यूँ भी गिलहरी के साथ वैसा मीठा रोमांस नहीं जुड़ा, उल्टे लोग इन मोटी-पली गिलहरियों को ’स्कैवेंजर’ मानते हैं-सब कुछ सफाचट कर जाने पर उतारू। दीखती भी एकदम नेवले की मानिंद हैं। गिलहरी के ख्याल में वह इतना रम गया था कि उसने ध्यान ही नहीं दिया कि कब एक पिल्ला अपने सैर करते मालिक की ढीली-थमी रस्सी छुड़ा कर गिलहरी की ओर लपका। गिलहरी झटपट मानों एक साँस में सरसराती फुदकती पेड़ पर चढ़ गयी।

मनु मुस्करा पड़ा। यह पार्क तो सबका है। वह खुद भी तो जब-तब यहाँ चला आता है-न किसी के आमंत्रण की जरूरत, न ही किसी की मनाही। एक बार आ जाओ तो किसी से बातचीत करने की भी मजबूरी नहीं। यहाँ कोई रंग या श्रेणी भेद का भी सवाल नहीं।

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