अमरीकी एन्थ्रोपालाजिस्ट
मार्गरेट मीड ने कहा था कि पहले जब कोई दादी गोद में
बिठाए अपने पोते के भविष्य के बारे में सोचती थी तो बहुत
कुछ अपने वर्तमान जैसा भविष्य उसकी परिकल्पना में होता
था। जो ले दे कर सही भी था। पर आज जब कोई दादी माँ अपने
गोद में बैठे पोते के भावी की कल्पना करे तो तेज़ी से
बदलते आधुनिक युग में उस भविष्य की बहुत सही कल्पना कर
पाना उसके बस की बात नहीं होगी। मीड का यह कथन भारत के
लिए भी उतना ही सही होगा जितना अमरीका के लिए। वहाँ भी
आज जब दादी माँ बच्चे को गोद में बिठाती है तो बच्चे के
भविष्य की कल्पना उसके प्रत्यक्षीकरण की सीमाओं के बाहर
पड़ जाती है।
अब सोचिए कि अमरीका में
आनेवाले भारतीय जो कि न केवल समय बल्कि स्थान की दृष्टि
से भी हज़ारों मील दूर आ गए हैं औ़र ऐसे देश में जो कि
भारत के मुकाबले प्रगति की दुनिया में कोसों आगे हैं
ऐ़से देश में पलनेवाले भारतीयों की युवा पीढ़ी अपनी दादी
तो छोड़, माँ-बाप की दुनिया से ही कितनी-कितनी दूर होगी।
दादी की दुनिया तो युवाओं के लिए शोध का विषय बन जाती है
क्यों कि उसका कतरा भर भी अंदाज़ उनके मौजूदा जीवन में
नहीं।
इस तथ्य को हम थोड़ा सा
भी समझ ले तो हमें अंदाज़ हो जाएगा कि हमारे यहाँ बड़े
होने वाले युवकों की दुनिया हमसे कितनी दूर है। हम, पहली
पीढ़ी के अप्रवासी जो काफी हद तक इन बच्चों की दादी की
दुनिया को अपने भीतर संजोए हैं, अभी भी उस दुनिया के
नियमों का पालन करते हैं, उसका खान-पान, उसके
रीति-रिवाज, उसके सोच-विचार को मानते हैं स़्वयं इन
बच्चों से कितना दूर आ गए हैं।
पर हम में से कितने यह सब देख पाते हैं?
देख पाते होते तो
पीढ़ियों के जिस टक्कर की बात आज हम कर रहे हैं, उसका
सवाल भी न उठता और उठता तो उसकी खास अहमियत न होती। पर
संघर्ष है इसलिए सवाल उठता है और बार-बार उठाया जाता है।
और अमरीका में बसे आवासी भारतीयों के बारे में तो और भी
ज्यादा बार उठाया जाता है क्यों कि यहाँ के भारतीय परिवार
एक साथ समय और स्थान के बहू-आयामों में विचर रहे हैं और
बिना तकलीफ के एक से ज्यादा समय-स्थानों के बीच से निकल
पाना किसी भी इंसान के बस की बात नहीं होगी।
क्या हैं वे बहु-आयाम?
पहले युवक-युवतियों का सवाल लीजिए। दिन के चौबीस घंटों
के भीतर ही वे कम से कम एक तिहाई हिस्सा उस दुनिया में
गुजारते हैं जो उनके घर की दुनिया के एकदम अलग होती है।
जहाँ भारतीय संदर्भों का कोई ताल्लुक ही नहीं होता। न तो
भारत उनके करीकुलम का हिस्सा होता है, न खेलों का, न
उनके अध्यापक या सहपाठियों को कहीं छूता है। उस वातावरण
में कहीं कुछ ऐसा नहीं होता जो भारतीयता को पोसे, या
उन्हें उसके नज़दीक ले जाय। भारतीयता को भूल कर या उससे
दूर जाकर इस दुनिया में रमना ही यहाँ की सफलता की एक
बड़ी शर्त होती है।
इस दुनिया के नियम न केवल भिन्न बल्कि घर की दुनिया के
उलट भी हो सकते हैं। अगर बच्चे को घर में सिखाया जाता है
कि बड़ों का आदर करो तो बाहर सिखाया जाता है कि सबसे
बराबरी का व्यवहार करो। घर में सिखाया जाता है कि विनम्र
बनो, सिर झुका कर चलो, अप्रिय सत्य न बोलो तो बाहर यह
उम्मीद की जाती है कि साफ बात कहो और खुलकर, बेबाक होकर
बोलो।
भारतीय संस्कृति कहती है कि आत्म का दमन करो, विलय करो
और अमरीकी कहती है कि आत्म को प्यार करो, पोसो (यहाँ
आत्म से मेरा मतलब "सेल्फ" या "स्व" से है)। उपनिषदों
में आत्म का एक अर्थ आध्यात्मिक है जिसके विकास पर जोर
दिया गया है वही उसका दुनियावी रूप अहम है जिसके दमन पर
जोर दिया गया है। यानि कि "मैं" को भूल कर "आत्म" को उस
"परमात्म" के स्वरूप में घुला देने पर बल दिया जाता है।
मैं इस ऐहिक आत्म, "मैं" या अहम की बात कर रही
हूँ जिसकी
अभिव्यक्ति इंसान का एक व्यक्ति के रूप में विकास होने
के लिए अवश्यम्भावी है जिसका दमन करने से व्यक्ति का
अंतस सूखने लगता है। अमरीकी संस्कृति ने इस अहम की
अभिव्यक्ति, उसके सीमाहीन विकास और उसके प्र्रति
जागरूकता पर सबसे ज्यादा जोर दिया है। भारतीय समाज में
बहुत से घर्षण इस दमन का परिणाम होते है क्यों कि आत्म या
सेल्फ जब बहुत दबा दिया जाता है तो वह फिर लावे की तरह
जहाँ-तहाँ फूटता है प़ारिवारिक झगड़े या समाज में ऊंचा
स्तर पाने के झगड़ों का, मिन्ना-मिसकना हो जाने का, मूल
यही है। इस विषय पर मनोविश्लेषक डा.सुधीर कक्कड़ और
डा.प्रकाश देसाई का लेखन विशेष प्रकाश डालता है। अमरीका
संस्कृति कहती है अपनी योग्यता को जानो-समझो, उसे औरों
के सामने आने का मौका दो, तो भारतीय कहती है कि अपनी
योग्यता का दिखलावा मत करो।
बात यह है कि भारतीय और अमरीकी संस्कृति में इतना अंतर
है कि कई चीजे तालमेल खाती ही नहीं। पर फिर भी भारतीय
माता-पिता ही अगर बच्चे को घर में विनम्र बनने को कहेंगे
तो साथ ही यह उम्मीद भी करेंगे कि बाहर की दुनिया में वह
सबसे कंधे से कंधा मिला कर चले, अमरीकी साथियों की ही
तरह प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले, बेसबाल खेले, वैसे ही
एग्रेसिव हो जैसे अमरीकी बालक। देखा जाए तो स्वयम्
भारतीय माँ-बाप ही दोनों संस्कृतियों के मानदंडों का बोझ
अपने बच्चों पर छोटी उम्र से डालने लगते हैं। वे चाहते
हैं कि घर पर तो बच्चे विनम्र-शालीन बने रहे पर जब बाहर
जाए तो अमरीकी बच्चों की ही तरह स्मार्ट-एग्रेसिव बने।
वे पूरी कोशिश करते हैं कि ये बच्चे बेसबॉल खेले, वायलिन
बजाए, बैले सीखे। साथ ही जब उनकी भारतीयता को लेकर
चिंतित होने लगते हैं तो उनको तबले, सितार और भरतनाट्यम
की क्लासों में भरती करवाते हैं और जोर डालते हैं कि
बच्चे इन्हें भी ध्यान लगा कर सीखंे। साथ ही अपने धर्म
और भाषा की शिक्षा भी ले। अपनी पूरी कोशिश के साथ वे
बच्चों को घर और बाहर दोनों संस्कृतियों में ढालना शुरू
कर देते हैं। अपनी संस्कृति का ज्ञान जरूरी है इस पर
सवाल नहीं लगाया जा सकता। निश्चय ही इससे बच्चों की
जड़ें मजबूत होती है जो उनके बहुमुखी विकास के लिए, उनके
एक मजबूत व्यक्ति बनने के लिए जरूरी है।
मेरी आपत्ति इस बात पर है कि माँ-बाप उन से जरूरत से
ज्यादा अपेक्षाएं करने लगते हैं। इससे हमारे बच्चों पर
बहुत बोझ डलता है एक साथ बहुत कुछ सीख डालने का। और न
केवल सीखना बल्कि उसे ठीक से भीतर गुनने-मथने का। अगर वह
इन अपेक्षाओं की पूर्ति में सफल न हों तो यह उनके विकास
में घातक हो सकता है।
चंूकि भारतीय संस्कृति
का कोई संदर्भ उनकी रोजमर्रा की ज़िंदगी में नहीं होता,
इसलिए बहुत कुछ भारतीय विद्याओं को सीखना उनके लिए "इररेलेवेंट"
हो जाता है दूसरे अमरीकी संदर्भ चंूकि उनके जीवन के हर
दिन का सच होता है इसलिए अनचाहे-अनजाने ही वह उनकी हस्ती
का हिस्सा होने लगता है। वहीं जब कुछ बड़े होकर जो कुछ
उन्होंने "आस्मासिस" की प्रक्रिया से घर से ग्रहण किया
होता है उसके प्रति वे अपने-आप सचेत होते हैं, अपने-आप
उसकी खोज करते हैं। उनकी अपनी समझ और खोज ही उनको
भारतीयता के उन अंशों को ग्रहण करने के लिए तत्पर करती
है जो उनकी मौजूदा जिंदगी में खप सकते हैं, उन्हें रास आ
सकते हैं। वर्ना माँ-बाप का सिखाया बहुत कुछ उन्हें सांप
के केंचुल की तरह त्याग देना पड़ता है। जो वे अपनेआप
पाते हैं वही अंतत: जीवन भर उनके साथ रहता है।
हमें बच्चों में
संस्कृति के उन मूल तत्वों की ही समझ पैदा करनी है। उनको
जबरदस्ती मंदिरों में नहीं धकेलना, जबरदस्ती हिंदू धर्म
के भाषण नहीं सुनवाने, जबरदस्ती कीर्तनों में नहीं
बिठाना। जितना घर में होता है, नानी-दादी या परिवार के
दूसरे सदस्यों में देखते सुनते हैं, त्योहारों को मनाने
में अब्ज़र्व करते हैं वह जानना उनमें जागरूकता भरता
रहता है जो उनके मन की तैयारी करती रहती है सही सवाल
पूछने के लिए। सवाल जो भारतीयता को उनकी मौजूदा जिंदगी
में "रैलेवेट" बना सके। आज भारतीय माँ-बाप को बार-बार
यही शिकायत होती है कि बच्चे उनसे इज्जत से नहीं बोलते,
तू-तड़ाक करते हैं, हर बात का मंुहतोड़ जवाब देते हैं,
कुछ करने से रोको तो बड़ी बेशर्मी से उसका तर्क माँगते
हैं, कुछ भी करने को कहो तो सवाल उठाते हैं। मैं ऐसे
बहुत से माँ-बाप को जानती हूँ जो सिर्फ इसलिए भारत लौट
गए कि यहाँ बच्चे बिगड़ जाते हैं। मैं उनसे पूछती हूँ कि
कैसे बिगड़ जाते हैं तो जवाब मिलता है - बड़े रूड हो
जाते हैं, माँ-बाप की सुनते नहीं। मैं उन्हें छेड़ती भी
हूँ कि आप बच्चों को अपने कंट्रोल में रखना चाहते हैं?
क्या बच्चे आपकी सम्पत्ति है?
बच्चों को अपने से अलग
करके एक स्वायत्त इकाई के रूप में स्वीकार करना और
विकसित होने देना, बहुत जरूरी है। आप उन्हें रास्ता जरूर
दिखाइए पर कितनी देर तक उंगली पकड़कर चलाते रहेंगे! हमने
उनको पैदा किया है तो इसका यह मतलब नहीं कि हमारा उनपर
हक हो गया। उन्हें अपनी सांस भरने की आज़ादी होनी चाहिए।
आखिर हमीं ने इस अमरीकी दुनिया का रास्ता भी उनको
दिखलाया है। अब अगर वे सफलतापूर्वक उस पर चल पड़े है और
इतना आगे आ गए है तो क्या अब चुटिया पकड़ कर उन्हें
वापिस खींचने की कोशिश अक्ल की बाते होगी? यह तो वही
गाय-ढोर वाली बात हो गयी। गाय के गले में रस्सी बांध दी
कि जब तक आपकी मर्जी हो चरने दे फिर जब मन आए तो रस्सी
खींच वापिस खंूटे से बांध दिया। ऐसी आज़ादी स्वतंत्र मन
से सोचनेवाले युवाओं को कैसे रास आ सकती है! बाकी भारतीय
संस्कृति के जो आंतरिक गुण है, जो उनको सहज भायेंगे उनको
तो सहज ही वे अंगीकार कर लेते हैं, उसके लिए उनको
जबरदस्ती किसी खंूटे से बांधने की जरूरत नहीं होती।
खास तौर से जब लड़कियों
का सवाल उठता है तो भारतीय-अमरीकी नज़रिये में जमीन
आसमान का फर्क आ जाता है। भारतीय मूल्यों में अभी भी
लड़कियाँ घरेलू ही भली होती है चाहे कितनी भी आधुनिक और
फैशनेबल हों। उनका घरेलू संस्कार उन्हें तारीफेलायक
बनाता है। माँ-बाप के लाड़चाव में पली लड़कियाँ समाज के
दूसरे क्षेत्रों में भी बहुत तरक्की कर रही है पर विवाह
का सवाल उठते ही कामशुदा लड़की में भी घरेलूपन के गुण
ढंूढ़े जाते हैं। औरत आज भी घरवालों की इज्जत का मसला
बनी हुई है। आज भी अमरीकी-भारतीय घरों की लड़कियों की एक
बड़ी समस्या यही होती है कि माँ-बाप उनको पूरी आजादी
नहीं दे पाते जैसे कि उनके भाइयों को मिलती है। जहाँ
माँ-बाप आज़ादी दे डालते हैं वहाँ वे सदैव खुद ही अपने
पर संदेह करते रहते हें कि सही कर रहे हैं या नहीं? कि
हिंदुस्तान में होते तो यह समस्या ही न उठती। जबकि यह
समस्या हर पीढ़ी की होगी, और हर भौगोलिक क्षेत्र में
होगी। उसका रूपरंग बदला हो सकता है। लड़कियों के मसलों
को लेकर एक पूरा दूसरा लेख लिखना होगा इसलिए इसे यहीं
छोड़ मैं आगे बढ़ती हूँ।
अमरीकी समाज के साथ एक
मूल्य जो यहाँ आनेवाले लगभग सभी भारतीय बांटते हैं वह है
शिक्षा पर जोर देने का। पर हम नए वातावरण में आर्थिक तौर
से असुरक्षित आवासियों के लिए शिक्षा मानसिक विकास का
उतना बड़ा ज़रिया नहीं है जितना कि आर्थिक विकास का।
आर्थिक बढ़ोत्तरी के लिए भयभीत आवासी बच्चों को
व्यावसायिक शिक्षा लेने पर ही दबाव डालते रहते हैं।
चंूकि मेडिकल या कम्प्यूटर जैसे विषयों की पढ़ाई
निश्चयात्मक तौर पर सुरक्षित भविष्य का वचन दे सकती है
तो हम बच्चों की रूचि दूसरे विषयों या कलाओं में होने पर
भी उन पर दबाव डालते हैं कि वे कोई धन-उपजाऊ विषय ही
पढ़ें। यह दबाव खास तौर से लड़कों पर ज्यादा पड़ता है।
यही वजह है कि अपने
बेटों को हम अपनी मर्जी से शादी भी नहीं करने देते और
अमरीका में भी अपना तयशुदा शादी का रिवाज हमने बरकरार
रखा है त़ाकि जो बहुएं घर में आए वे हमारी मर्जी की हों,
बुढ़ापे में हमारे काम आए और बेटियाँ अपनी जात में
ब्याहे ताकि कलुषित न हो। यही एक वजह है कि बहुत सी
अमरीकी-भारतीय लड़कियाँ अपनी बिरादरी के बाहर शादी करती
है जहाँ उनसे भारतीय परिवारों वाली अपेक्षायें न की जाय।
और यहाँ के बहुत से लड़कों के लिए भारतीय वातावरण में
पली बहुएं लानी पड़ती है जो कि लड़के-लड़की में दूसरी
तरह के तनाव पैदा करता है। फिर भारत भी बदल रहा है, इसका
सही अंदाज़ यहाँ बैठे भारतीयों को नही हो पाता जो कि
प्रगति के उसी दशक में समाए रहते हैं जिसमें भारत छोड़
कर यहाँ आए थे, उन्हीं बरसों के भारतीय मूल्यों को अपने
भीतर पोसते-ढोते रहते हैं। भारतीय समय उनके लिए इस तरह
थम जाता है जैसे आकाश की ओर बढ़ता हुआ त्रिशंकु!
लड़कों से अभी भी कई
माँ-बाप की ऐसी अपेक्षायें बनी है कि वे बुढ़ापे में
माँ-बाप का ख्याल रखे, उन्हें अपने पास रखे जबकि इस समाज
में माँ-बाप का बुढ़ापा बच्चों से स्वतंत्र होता है। न
ही विवाहित स्त्रियाँ पति के माँ-बाप की देखभाल को अपना
फऱ्ज मानती है। यह स्थिति बहुत हद तक भारत में भी
असहनीय हो रही है जहाँ कि बूढ़े माँ-बाप बहुत तकलीफ
महसूस करते हैं कि बहुएं उनका ख्याल रखना नहीं चाहती और
सरकार ने ऐसे कोई बूढ़ों के संस्थान बनाए नहीं जहाँ उनकी
परवरिश की जा सके। हमारे समाज ने ऐसे मूल्य हमें दिए हैं
जहाँ श्रवण कुमार जैसे युवा माँ-बाप की सेवा में प्राण
त्याग देते हैं या ययाति जैसे पिता अपने बेटे का यौवन
लेकर जीते हैं इ़सलिए बड़ों के लिए प्राण त्यागना कोई
बड़ी बात नहीं दीखती जबकि अमरीकी समाज कहता है बच्चों को
अपना जीवन अपनी मर्जी से जीने का पूरा हक है, इसी तरह
अगर बच्चे उनसे अलग होकर अपनी मर्जी का जीवन गढ़ना चाहते
हैं तो माँ-बाप की नैतिकता यह है कि अपनी खुदगर्जी के
मारे उन्हें रोके नहीं।
यह सच
है कि यहाँ माँ-बाप और बच्चों के रिश्ते में भी फर्क है। अमरीकी
माँ-बाप शुरू से ही बच्चे को स्वतंत्र होना सिखलाते हैं
जबकि भारतीय बच्चा शुरू से ही सीखता है कि उसे बड़ों का
आदर करना है, उनकी आज्ञा का पालन करना है और उनके बनाए
रिश्तों, मर्यादाओं को मान कर चलना है। आज भी हमारे लिए
आदर्श पुत्र राम है।
जो संस्कृति आज भी
सदियों पुरानी आदर्शों पर अपनी नींव बनाए चलती रहना
चाहती है और जो नित नए की खेाज में हमेशा आगे ही बढ़ती
रहना चाहती है उ़न दोनों के बीच हमारे युवा तालमेल कैसे
बिठाए - बड़ा सवाल इसी का है।
और यही है विडंबना हमारे युवाओं की जिन्हे कभी
ए.बी.सी.डी.(अमेरिकन बार्न कन्फ्यूजड़ देसीज़) भी कह
दिया जाता है। दो संस्कृतियों में एक साथ जीना उनकी
नियति है। बाहर गोमाँस खाना और बियर पीना और घर पर शुद्ध
शाकाहारी होना, उनके हर दिन को कई-कई हिस्सों में बांटता
है। यह सवाल लगातार बना रहता है - क्या ठीक है, क्या शुभ
है। किस अंदाज से उन्हें जीना चाहिए भ़ारतीय हो कर जिए
तो देसी कह कर डिसमिस कर दिया जाता है, अमरीकी होके जिए
तो भी किसी न किसी तरह की अवहेलना सुनने को मिल जाती है,
"बड़ा अंग्रेज बना फिरता है"। निस्तार तो किसी भी स्थिति
में नहीं है। हर चुनाव में कुछ न कुछ गलत दीखता ही है
उनमें, किसी न किसी को। यही दोहरी जिंदगी उनका शाप है।
हाल ही में मैंने इस
शीर्षक की फिल्म देखी जो कुछ युवकों की ही बनायी हुई
हैं। फिल्म का मुख्य द्वंद्व अमरीकीकरण और भारतीयकरण के
बीच ही झूलता है। बहुत से युवक युवतियाँ लेखन या फिल्म
के माध्यम से अपनी इसी डांवाडोल मन:स्थिति को शब्द दे
रहे हैं। यह शाप अगर व्यक्तित्व की मजबूती से गठ जाय तो
वरदान भी बन सकता है और बहुतों ने वरदान बनाया भी है।
दोनों के गुणों को लेकर एक नया व्यक्तित्व गढ़ना, या
दोनों में सांमजस्य बिठाकर जीवन को चलाना। यही ताकत युवा
पीढ़ी से वह बहुत कुछ करा लेती है जो आम भारतीय युवक
नहीं कर पाते।
भारतीय पुरातन सोच और अमरीकी मुक्तिभाव उन्हें किसी भी
दिशा में जाने से रोकता नहीं। फिर लेखन हो या वैज्ञानिक
विकास, कम्प्यूटर की दुनिया हो या शोध की, हर दिशा में
ही उस निर्बाध विकास की झलकें ढेर-ढेर दीख रही है। आज
साहित्य में सबसे ज्यादा जिन युवा लेखकों को पढ़ा-गुना
जा रहा है वे भारत की सोच और विदेश की भाषा का मिलान
करने वाले युवा भारतीय लेखक ही हैं। यंू भी स्कूलों
कालेजों में भारतीय विद्यार्थी हमेशा आगे होते हैं, या
यहाँ के सर्वोच्च धनी लोगों में भारतीयों ने अपना स्थान
बना लिया है, वे सब जानी मानी बाते ही हैं।
अब बात साहित्य के संदर्भों में की जाय।
हिंदी साहित्य में यह पीढ़ियों का संघर्ष कहाँ दीखता है?
पीढ़ियों का संघर्ष बहुत सारे हिंदी साहित्यकारों के
लेखन का विषय बना है। मुझे याद आता है भगवती चरण वर्मा
का भूले-बिसरे चित्र जिसका व्यापक आयाम तीन पीढ़ियों के
बदलाव और अलग-अलग नजरियों को रेखांकित करता है। नागर,
यशपाल और दूसरे लेखकों के लिए आधुनिक पीढ़ी का बदलता
नज़रिया खास दिलचस्पी का विषय बना है।
अमरीकी हिंदी लेखन की ओर देखंू तो मुझे सोमावीरा की एक
कहानी याद आती है जो छठे दशक में मैंने सारिका पत्रिका
में पढ़ी थी। कहानी का शीर्षक मुझे याद नहीं पर मजमून
याद है। कहानी यहाँ पर रहनेवाली एक हिंदुस्तानी माँ की
बेटी को लेकर चिंता के बारे में हैं। वह रोज दूध में घोल
कर अपनी किशोर बेटी को गर्भनिरोधक गोली पिलाती है कि इस
यौन-प्रधान समाज में क्या जाने कब किसके साथ उसकी बेटी
सो जाए और गर्भ रह जाने की दुर्घटना हो जाय!
कहानी याद रह जाने वाली थी और इसीलिए अब तक याद है। उस
समय भारत में रहते हुए इस बात का मुझे पूरा अंदाज था कि
कौमार्य की रक्षा किसी भी लड़की के लिए उसकी जान से भी
ज्यादा मूल्यवान है! उसके बाद उषा प्रियंवदा और सुनीता
जैन की भी चीजे पढ़ी। मेरी जो इस बारे में धारणा बनी वह
यह कि ज्यादातर लेखक जब यहाँ की युवा पीढ़ी के बारे में
लिखते हैं तो वह पुरानी पीढ़ी के डर और ख्वाहिशों को
व्यक्त करते हैं। मैं पुरानी पीढ़ी के इस रूख से सहमत
नहीं हूँ। पुरानी पीढ़ी यह भूल जाती है कि उन्होंने इतना
बड़ा विद्रोह किया कि अपना देश तक छोड़ दिया तो अब अपने
बच्चों को अपने समाज के अनुरूप विद्रोह क्यों नहीं करने
देते। कृष्ण बलदेव वैद और राजी सेठ की कुछ कहानियों में
यहाँ की नयी पीढ़ी की महिला को समझने की अच्छी समर्थ
कोशिश दिखी।
अपने लेखन में मैं यही बात समझाने की कोशिश करती रहती
हूँ। मसलन "सड़क की लय" की नेहा में जो कन्फ्यूजन है वह
बहुत कुछ उसकी माँ का ही दिया हुआ है या "चिड़िया और
चील" की चिड़िया जब ताकतवर बन जाती है, जब अपनी पूरी
उड़ान भर लेती है तो दूसरों को वह चील लगने लगे पर अपनी
ताकत पहचानना-संजोना क्या आज की नारी का दायित्व नहीं?
इसी तरह "विभक्त" की अनन्या भारत और अमरीका के बीच अपनी
पहचान की तलाश कर रही है। सन् १९८९ के धर्मयुग में मेरी
एक कहानी छपी थी जिसका शीर्षक था "नाते"। उस कहानी के
नायक का मूलदर्शन कुछ इस प्रकार था, मैं कहानी से ही
उद्धृत कर रही हूँ - "देखो बेटे, सारे पारिवारिक और
पीढ़ियों के झगड़ों की जड़ ही यही है कि हम कुदरत के
प्रोसेस को नहीं समझे। ज़ितने भी प्राकृतिक जीव या
पशु-पक्षी हैं, जब एक बार बड़े हो जाते हैं तो
कहीं-के-कहीं फुर्र हो जाते हैं। माँ शायद पहचानती भी न
हो कि कौन उसका अपना बच्चा है। एक इंसान ही है जो अंतिम
सांस तक बच्चों के गले मढ़ा रहना चाहता है और फिर कुदरत
के प्रोसेस के खिलाफ जाने की वजह से चोट खाता है।"
इस कहानी के छपने पर मुझे यहाँ बहुत से खत आए और जब मैं
हिन्दुस्तान गयी तो कुछ बुजुर्ग लोग मिलने भी आए
जिन्होंने कहा कि मेरी बात तो उनको पसंद आयी पर हम बूढ़े
हो रहे लोग अगर बच्चों का मंुह न देखें तो जाए कहाँ जबकि
शरीर धोखा देने लगा है।
उनकी बात गलत नहीं थी और मैं जानती हूँ कि इस दिशा में
हल हमें खोजना ही है। पर वह हल बच्चों की आज़ादी का गला
दबोच कर नहीं होगा।
अपनी लेखन की इस खोज में मैं रूकी नहीं और मूलत: यही
कहानी मेरे ताज़े उपन्यास "गाथा अमरबेल की' का विषय बनी
जिसमें मैंने माँ-बाप के प्यार के स्वरूप और परिभाषा को
लेकर ही सवाल उठा दिए हैं "प्रेम आत्ममोह है या परमोह?
प्रेम, सुख पाकर फलना-फूलना ओर हरीतिमामय आनंद है या कि
सर्वस्व देकर रिक्त हो जाना, सूख जाना! प्रेम की प्रकृति
क्या है लोभ या संचय? दान या विलय? प़्रेम सच में इतना
सर्वग्रासी होता है कि अपने प्रणय के पात्र को ही खा
डाले।"
बात यह है कि किसी भी रिश्ते में आकाश यानि "स्पेस" की
ज़रूरत रहती है, वह चाहे माँ-बाप के साथ हो। हमारे
परिवारों में स्पेस की कोई आधारभूत परिकल्पना नहीं है
जैसी कि अमरीकी समाज में हैं। पीढ़ियों का झगड़ा बहुत
कुछ उस स्पेस के ही छिनने और वापस छीने जाने का है। बजाय
रंज करने के अगर हम अगली पीढ़ी को उसका सुयोग्य और
अभीसिप्त स्थान दे सके तो छीनने-झपटने का सिलसिला ही
नहीं होगा।
पर अपनी जगह छोड़ने को भला कौन कभी तैयार होता है सो यह
झगड़ा भी अनंत बना रहेगा। पर इस दिशा में निश्चय ही
वयस्क पीढ़ी की जिम्मेवारी ज्यादा बनती है। क्यों कि
वयस्क पीढ़ी इस अनुभव से गुजर चुकी होती है। उसे याद
होती है अपनी तकलीफें, अपने त्याग, अपने सफल या असफल
विद्रोह। अपने तोड़ने और जोड़ने के सुख-दुख। अपनी उड़ान
भरने की इच्छा, कुलांचे भरने की ललक सागर लांघने के
इरादे!
फिर अगर आनेवाली पीढ़ियाँ विद्रोह ही न करें तो दुनिया
आगे कैसी बढ़ेगी? सब वहीं का वहीं न रूक जाएगा? साल भर
एकसा मौसम रहे तो क्या उब न होगी? आसमान रोज नए रंग न
दिखाए जीवन बेरंग न हो जाएगा? नालियों से पानी नहीं
निकलेगा तो बदबू न छूटेगी!
हर पीढ़ी एक नयी सीढ़ी बन जाती है जिस पर पैर रख अगली
पीढ़ी और आगे बढ़ जाती है। यही क्रम है विकास का। यही
स्वभाव है प्रकृति का। यही धर्म है जातियों का,
संस्कृतियों का, सभ्यताओं का। और यही नियति है मानव जीवन
की, मानवीय कर्म की।
हर पीढ़ी इतिहास की लंबी शृंखला की एक कड़ी भर ही तो
है।
हमने जो बोया वह अभी नहीं फूटा तो अगर हमारे बीज में
सत्व होगा तो कभी और जाकर फूटेगा।
इतिहास में कहीं और जाकर जुड़ जाएगी कड़ी। और जो कड़ियाँ
घिसी, कमज़ोर या फज़ूल की है वे अपने-आप टूट जाएगी। चाहे
कितना जोर-जबरदस्ती जोड़ने की कोशिश करते रहें।
इन पीढ़ियों की सीढ़ियों पर ही हमें आगे बढ़ना है।
सीढ़ियाँ चढ़ेंगे, तभी तो आगे बढ़ेंगे। सीढ़ियाँ पकड़ कर
ही बैठ गए तो अधरास्ते में ही विकास क्रम को अवरूद्ध कर
डालेंगे।
मैं अपने पसंदीदा कवि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता
"टूटने का सुख" के शब्दों में कहूँगी कि "तीर से आगे
बढ़ेंगे इ़सलिए इन सीढ़ियों के फूटने का सुख, टूटने का
सुख।"
हाँ टूटने का भी एक सुख होता है और उसी को पहचानना है हर
पीढ़ी को! |