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 प्रकृति और पर्यावरण
 

 पेड़ बबूल का
संकलित


परिचय -
अति सामान्य सा लगने वाला प्रायः हमारे आसपास लगा हुआ, खेत की मेड़ या सड़क के किनारे स्वतः उगा हुआ एक पेड़ है कीकर जो बोलचाल में बबूल कहलाता है। यों तो सम्पूर्ण भारतवर्ष में इसे पाया जाता है पर यह आमतौर पर मरू भूमि में सहजता से पनपने वाला एक काँटेदार वृक्ष है, जो कई बार बड़ी संख्या में उगा रहता है एवं बबूल का जंगल तैयार कर देता है। प्रकृति की यह सृष्टि जड़ी-बूटियों और नाना प्रकार की वनस्पतियों का भण्डार है और प्रत्येक जड़ी-बूटी एवं वनस्पति अपने गुणों से उपयोगी है।

बबूल का स्वरूप-

आकार-प्रकार की दृष्टि से यह मध्यम कद का लगभग १५ से २० फीट ऊँचाई वाला पेड़ है। पत्तियाँ छोटी-छोटी होती हैं जिससे यह हमेशा हरा एवं मध्यम कद का पेड़ होता है। इसके काँटे सफेद रंग के एवं जोड़ीदार होते हैं। काँटा बेहद नुकीला होता है। पत्तियाँ आँवले की पत्तियों से मिलती जुलती होती हैं किन्तु पत्ते आँवले के पत्ते की अपेक्षा अधिक छोटे और घने होते हैं एवं तना गहरे रंग का मजबूत लकड़ीवाला होता है। यह प्रायः अपनी चपटी फलियों से पहचाने जाते हैं। जंगली पौधों में शामिल यह वृक्ष आयुर्वेद का अत्यंत महत्वपूर्ण वृक्ष है जिसकी पत्तियाँ, फल, छाल, पुष्प, जड़ एवं गोंद सब बेहद उपयोगी हैं एवं अलग-अलग औषधियों में प्रयुक्त होता है।

इसके फूल बेहद सुन्दर पीले रंग के गोल-गोल एवं हलकी सुगंध वाले होते हैं, फलियाँ सफेद रंग की ७ से ८ इंच लम्बी एवं खण्डों में बँटी होती हैं जिनमें बीज गोल धूसर रंग के एवं चपटे होते हैं। बारीक-बारीक झुकी हुई शाखाओं वाले इसके वृक्ष युग्मकंटक कहलाते हैं क्योंकि शाखों पर दो की संख्या में नुकीले काँटे एक साथ लगे रहते हैं। पुष्प ४ से ६ पुष्प के गुच्छों के रूप में होते हैं। ये पुष्प अगस्त-सितम्बर माह में खिलते हैं और फल जनवरी से अप्रैल माह में आते हैं।

बबूल के उपयोग-

उत्तरी भारत में बबूल की हरी पतली टहनियाँ दातून के काम आती हैं। बबूल की दातून दाँतों को स्वच्छ और स्वस्थ रखती है। बबूल की लकड़ी का कोयला भी अच्छा होता है। भारत में दो तरह के बबूल अधिकतर पाए और उगाये जाते हैं। एक देशी बबूल जो देर से होता है और दूसरा मासकीट नामक बबूल। बबूल लगा कर पानी के कटाव को रोका जा सकता है। जब रेगिस्तान अच्छी भूमि की ओर फैलने लगता है, तब बबूल के जगंल लगा कर रेगिस्तान के इस आक्रमण को रोका जा सकता है। इस प्रकार पर्यावरण को सुधारने में बबूल का अच्छा खासा उपयोग हो सकता है। बबूल की लकड़ी बहुत मजबूत होती है। उसमें घुन नहीं लगता। वह खेती के औजार बनाने के काम भी आती है। इसके अतिरिक्त आयुर्वेद में इसे बहूपयोगी औषधि माना गया है और इसका प्रयोग अनेक प्रकार के रोगों को दूर करने के लिये किया जाता है।

बबूल के नाम-

सामान्य रूप से बबूल एवं कीकर के नाम से पहचाने जाने वाला यह वृक्ष वैज्ञानिक शब्दावली में वचेलिया नीलोटिका या एकेशिया नीलोटिका कहलाता है। संस्कृत में इसके कई नाम हैं जैसे दीर्घकंटिका, बब्बूलम्, किंकिरात, सपीतक, युग्मकंटक, दृढ़ारूह आदि। हिंदी , उर्दू, पहाड़ी, बंगाली, पंजाबी, मराठी, कोंकणी और नेपाली में भी यह बबूल नाम से जाना जाता हैं। बंगाली में इसे बाबला गाछ, पंजाबी में कीकर और मराठी में इस माबुल या बभूल भी कहते हैं। गुजराती में इसे बावल या बाबलिया, उड़िया में बबुलो या बोबुरो, कन्नड़ में बबूली और पुलई, तमिल में करूबेलमरम, तेलुगू में बर्बुरूमु, मलयालम में कारुवेलकाम, अरबी में उम्मेगिलान, पारसी में खारेमुघीलन कहलाता है। अंग्रेजी में इसे ब्लैक बबूल या गम अरेबिक ट्री एवं लैटिन में माइमोसा अराबिका कहा जाता है।

आयुर्वेद के अनुसार-

इसकी छाल का काढ़ा, पत्तियों की लुगदी, फली का चूर्ण, कोमल हरी शाखाएँ और गोंद सभी का वैज्ञानिक एवं चिकित्सा दृष्टि से महत्व है। आयुर्वेद के अनुसार इसका रस- काषाय, गुण- गुरु/भारी, रुक्ष, विशद, वीर्य- शीत, विपाक- कटु, कर्म- ग्राही, कफहर और विषघ्न है। इसके पत्ते मलरोधक होते हैं। यह चरपरे, रुचिकारक, खांसी, वात, कफ और पाइल्स को दूर करते हैं। बबूल की फली रूखी, मल रोकने वाली, भारी, कसैली, और कफ-पित्त को शांत करने वाली होती है। बबूल के पेड़ से निकला यह गोंद, खाने योग्य होता है तथा मिठाई बनाने के लिए भी प्रयोग होता है।

आयुर्वेद के अनुसार, बबूल एक बहुत ही उत्तम औषधि है। अधिक पसीना आने, दाद या खुजली, मुँह में छाले जैसे त्वचा रोगों में बबूल की छाल और पत्तियों के उपयोग की वर्णन मिलता है। पेट के विभिन्न रोगों में, खाँसी तथा फेफड़े के रोगों में, मुँह के छालों, मसूढ़ों व दाँत के विभिन्न रोगों, आँखों व गले के अनेक रोगों में बबूल के अनेक अंगों का विविध प्रकार से प्रयोग किया जाता है। अनेक प्रकार के यौन रोगों, प्रसूति के पहले और बाद के अनेक स्वास्थ्य उपचारों, मल और मूत्र की अनेक अनियमितताओं, हड्डी संबंधित रोगों, भीतरी रक्तस्राव आदि बहुत से रोगों में बबूल की छाल, पत्तियों, फली और गोंद के प्रयोग का वर्णन है।

रासायनिक संगठन-

रासायनिक संगठन की दृष्टि से बबूल पोषक तत्व, विटामिन और खनिज का एक अच्छा स्रोत है। १०० ग्राम बबूल में ४.२८ मिलीग्राम आयरन, ०.९०२ मिलीग्राम मैग्नीज, १३.९२ ग्राम प्रोटीन, ६.६३ ग्राम वसा और ०.२५६ मिलीग्राम जस्ता होता है। फली में १२ से लेकर २० प्रतिशत टेनिन पाया जाता है। छाल में ७ से १२ प्रतिशत कषाय रस (कड़वा) प्रधान रसायन होते हैं। सामान्य तौर पर व्यवसायिक दृष्टि से बबूल का गोंद मार्च से मई माह के मध्य इकट्ठा किया जाता है। इसका गोंद विभिन्न आकार एवं नाप के टुकड़ों में, भूरा, लाल या हल्का पीला, गन्धहीन, स्वादहीन एवं अपने से दुगुने जल में पूर्णत: घुलनशील होता है। इसमें गेलेक्टो-अरेबन (Galactoaraban) होता है। इसे जलाने पर १.८% राख प्राप्त होती है।

 

भारत में पाए जाने वाले बबूल मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं-

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त्रिकंटकी, श्वेत खदिरी (Acacia senegal (Linn.) Willd.)
यह बबूल की प्रजाति का पेड़ है। यह छोटा वृक्ष होता है, जिसमें काँटे होते हैं। इसकी छाल पतली तथा गहरे भूरे रंग की होती है। पुराना हो जाने पर काले रंग के हो जाती है। इसके पौधे से रस निकलता है, जिसका प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है।

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क्षुद्र बबूल, क्षुद्र किंकिरात (Acacia arabica var. nilotica (Linn.) Benth.)
यह लम्बा, झाड़ीदार और कांटेदार वृक्ष होता है। इसके कांटे लम्बे तथा तीखे होते हैं। इसके पत्ते बबूल के पत्तों जैसे होते हैं, लेकिन उससे कुछ बड़े और गहरे हरे रंग के होते है। इसके फूल पीले रंग के होते हैं। इसकी फलियां लम्बी होती हैं। फलियां कच्ची अवस्था में हरे रंग की, चपटी तथा मुड़ी हुई होती हैं।

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इजरायली बबूल (Acacia tortilis Benth.)
इसका पौधा ५० डिगरी सेंटीग्रेड तक गरमी को आसानी से सहन कर लेता है, भारी बरसात और अकाल में भी यह खड़ा रहता है, नमकीन मिट्टी में भी यह पल जाता है। जब पेड़ ४ से १५ मीटर तक बढ़ जाए तो इस के तने के साथ-साथ टहनियों का भी फैलाव हो जाता है। कांटे भी निकल आते हैं। इस कीकर के फूल रंगबिरंगे होते हैं। जैसे ही पेड़ पर पत्तों की भरमार होती है, उन्हें काट कर चारे में इस्तेमाल कर सकते हैं। ७ साल का पेड़ ५ मीटर ऊंचाई तक चला जाता है। इस पर ६ किलो फलियां और 3 किलो बीज निकल आते हैं। सालभर में औसतन १४ किलो फलियां १ पेड़ से हासिल हो जाती हैं। इस की फलियां और पत्ते सूखे इलाकों में पशु आहार का काम देते हैं। जब पेड़ १२ साल पुराना हो जाता है, तो उस से भारी मात्रा में जलाने के लिए लकड़ी मिल जाती है।

१ मई २०२०

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