दिल्ली
में रहने वाली सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता कल्याणी देवी
किसी त्यौहार में छह बरस बाद अपनी पुश्तैनी गाँव श्यामपुर
आई थी। सुबह की सैर के समय उन्होंने देखा कि बबूल का पेड़
मन्नतों के धागों से पटा पड़ा हैं। जड़ के समीप लुढ़के
बुझे दीप से तेल रिस-रिस मिट्टी में समा रहा हैं। मुरझाया
बबूल अपनी अन्तिम साँसे गिन रहा था। पेड़ की ऐसी दुर्दशा
देखकर वह दुखी हो गईं ।
कल्याणी देवी के पूछने पर पता लगा कि तीन बरस पहले मन्दिर
के पुजारी पंडित परमानंद का देहावसान हो गया था। गाँव
वालों को विश्वास था कि बबूल वृक्ष पर उनकी आत्मा का वास
हैं। तब से प्रत्येक मंगलवार को यहाँ दूर-दूर से रोगी,
मनोरोगी, मान्यता वाले लोग आते हैं।
कल्याणी जी ने प्रधानसेवक से गाँव वालों को एकत्रित कर
समझाने के लिए कहा। प्रधान जी ने मुस्करा कर कहा, "गाँव के
लोग तर्क की भाषा नहीं समझेंगे न मानेंगे। विश्वास ही
अंधविश्वास को हटा सकता हैं। आप परेशान न हों मैं कुछ करता
हूँ।
दो तीन दिन बाद प्रधान जी ने गाँव के छह-सात ग्रामीणों को
बुलाकर कहा, "रात सपने में पंडित परमानंद आये रहै, कहिन
इत्ते धागा-डोरी बाँध-बाँध के हमरी साँस घुट रही है। ये जो
दिये जलावत हो उसकी गर्मी से हम मरे जा रहे हैं। हम प्यासे
हैं भैया हमको पानी चाहि, हमरा आशीर्वाद लेना हो तो हमको
एक अंजुर भर पानी पिलाव।"
एक सप्ताह बाद कल्याणी जी ने देखा डोरी, धागे, चुनरी वृक्ष
पर से उतर चुके हैं, दीये हटा दिए गये हैं। पानी की एक
बाल्टी रख दी गई हैं। लोग अंजुर भर पानी जड़ में डाल कर
अपनी-अपनी प्रार्थना कर रहे हैं।
कल्याणी जी मुस्काई, उन्हें विश्वास हो गया। उनके
जाते-जाते इस बबूल पर नये पत्ते जरूर निकल आयेंगे।
१ मई २०२० |