मिले
ताँ मस्तक लाइए, धूल तेरे चरणाँ दी।'
साधु-संगत पढ़ रही थी और पाकिस्तान-स्पेशल यात्रियों के इस
जत्थे को लिए हुए छकाछक उड़ी जा रही थी। बाहर दूर तक रेगिस्तान
फैला हुआ था। कभी-कभी बाजरे के खेत दिखाई दे जाते या फिर
कहीं-कहीं पीले फूलों से लदे हुए बबूल के काँटेदार पेड़ दीख
पड़ते। इनसे हटकर सारा दृश्य हरियाली से शून्य, वीरान और
सुनसान था। पालासिंह खिड़की के बाहर देख रहा था। उसकी खुली हुई
दाढ़ी धूल से अटी हुई थी। रेतीले मैदान से एक बगूला उठा और हवा
के कन्धों पर सवार गाड़ी के अन्दर आ गया।
''खिड़की बन्द कर दो,'' जत्थेदार जी बोले।
पालासिंह मुस्करा दिया-''यही तो हमारे देश का मेवा है,
बादशाहो, तुम इसे रेत कहते हो, इस रेते के लिए तो मेरी आँखें
तरस गयीं।''
आज चौदह साल के लम्बे अरसे के बाद पालासिंह देश जा रहा था। आज
से चौदह साल पहले यह उसका अपना देश था-यह रेगिस्तानी देश।
रावलपिंडी के पश्चिमी रेतीले इलाके में उसका गाँव था, घर-घाट
था, जमीन थी, एक दुनिया थी। फिर न जाने क्यों लोगों के सिर पर
पागलपन का भूत सवार हुआ और बैठे-बिठाये अपने पराये हो गये।
पालसिंह अपना सब-कुछ पीछे छोड़कर सरहद के इस पार चला आया। अब
यों तो उसके पास सब-कुछ था, घर-घाट था, माल-असबाब था, लेकिन वह
दुनिया न थी। अपने दालान का कुआँ उसे कभी न भूला। वैसे तो उसे
अपने देश की हर चीज प्यारी थी, लेकिन कुएँ से उसे विशेष स्नेह
था।
पालासिंह का गाँव उस इलाके में था, जिसके चारों ओर रेगिस्तान
फैला था। यहाँ की खुश्क, बंजर धरती में और कई फसल पैदा नहीं
होती थी, केवल बाजारा होता था। जिसके बारे में लोग कहा करते
थे, यह रूखे लोगों की रूखी पैदावार है। सारे इलाके में न कहीं
पानी था और न कहीं पानी का निशान। लोग मीलों का सफर तय करके
ऊँटों और गधों पर मशकें लाद, हजारों मुसीबतें झेल कर पीने का
पानी लेने जाया करते थे।
पालासिंह का बाप चौधरी हीरासिंह सचमुच एक हीरा ही था-एक अनमोल
हीरा। सुबह उठने पर अगर किसी को उसके दर्शन हो जाते, तो वह
समझता कि आज का दिन भाग्यशाली है। हीरासिंह बड़ा दमदार व्यक्ति
था-पूजा-पाठ में व्यस्त रहनेवाला, साधु स्वभाव, जिसके दालान
में सदा साधु-सन्तों की भीड़ लगी रहती। एक बार उसके द्वार पर
एक महात्मा आये। चौधरी ने उसकी बहुत सेवा की। चौधरी की सेवा से
प्रसन्न होकर महात्मा ने कहा, ''जोगी चौदह बरस का चिल्ला काटकर
आया है। माँग, क्या माँगता है?''
''सब आपकी कृपा है,'' चौधरी बोला।
''देख ले, चौधरी, तेरी खुशी है।''
''महाराज,'' चौधरी ने कुछ सोचते हुए कहा, ''इस धरती को किसी का
शाप लगा है। कई साधु-महात्मा यहाँ आये, यह धरती उनके चरण से
पवित्र हुई, लेकिन लोग उसी तरह दु:खी रहे।''
''क्यों?''
''यहाँ की धरती बाँझ है और पानी खारा। पीने का पानी लाने के
लिए लोगों को बहुत दूर जाना पड़ता है। महाराज, यदि आप कृपा
करके हम लोगों के इस कष्ट का निवारण कर सकें, तो बहुत लोगों का
भला होगा।''
''बहुत अच्छा। फिर तू ही इसका पात्र है, क्योंकि तू सभी की
भलाई चाहता है। ऐसा करना कि जिस जगह जोगियों का चूल्हा है,
यहीं से धरती खुदवाना और इस जगह कुआँ बनवाना। किसी को पानी
भरने से मना मत करना। जा, भगवान तेरा भला करें।''
महात्मा जी तो चले गये, लेकिन हीरासिंह ने उसी दिन उसकी बतायी
जगह पर मिट्टी खुदवानी आरम्भ कर दी। कई मजदूर जुट गये। दिन-रात
काम होने लगा। कई दिनों की खुदाई के बाद भी पानी की एक बूँद तक
न मिल सकी, वैसी ही सूखी और खुरदरी रेत निकलती रही।
''यों ही कोई बहकानेवाला जोगी था। अगर बाँझ धरती से इस तरह
पानी के स्रोत फूटने लगते, तो इस रेगिस्तान में इतनी रेत दिखाई
न देती,''-
लोग कहते, लेकिन चौधरी हीरा सिंह का हृदय सागर की तरह अथाह और
विशाल था वह अपने धुन में मग्न और अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ,
मिट्टी खुदवाने में लगा रहा। उसने आशा का छोर न छोडा। अंत में
पूर्णिमा के दिन उसके खुदवाये हुए कुएँ में पानी का स्रोत फूट
पड़ा। पानी भी इतना मीठा कि कुछ न पूछिये।
चौधरी हीरासिंह ने भगवान को धन्यवाद दिया और अपने इस खजाने का
मुँह खोल दिया। उसका कुआँ सारे इलाके में बेजोड़ था। रात-दिन
मेला लगा रहता। लोग आते, अपनी प्यास बुझाते और उसे दुआएँ देते
चले जाते।
जब से पालासिंह ने होश संभाला, यह कुआँ उसके विचारों पर छाया
रहा, और विचारों पर ही क्या, उसके मन की गहराइयों में पानी की
इस मिठास ने अपना घर-सा बना लिया था। यदि वह अपनी स्मरण-शक्ति
पर जोर भी देता, तो भी वह उस कुएँ के संसार से आगे नहीं जा
सकता था। चारदीवारी वाली बड़ी हवेली में उस कुएँ को विशेष
महत्तव प्राप्त था। वास्तव में इस हवेली में अगर कोई
महत्तवपूर्ण वस्तु थी, तो यही कुआँ था। इसके चारों ओर चबूतरा
बना हुआ था। चबूतरे के चारों ओर सीढ़ियाँ थीं। मुंडेर के पास
बड़े-बड़े शहतीर गड़े हुए थे, जिन पर रस्सी की रगड़ से कुछ
धारियाँ-सी बन गयी थीं और उनसे रस्सी फिसल-फिसल जाती थी।
पालासिंह ने सोचा, जब उसने जिन्दगी में पहली बार आँख खोली
होगी, तो सचमुच उसकी छोटी-छोटी आँखों ने पहली निगाह में इस
कुएँ को ही देखा होगा, जहाँ रेगिस्तान की अल्हड़ नौजवान
लड़कियाँ और औरतें कच्चे घड़े, गागरें और कलशे लेकर पानी भरने
आया करती थीं। उसे याद आया कि पहले-पहल यहीं पर उसकी भेंट अपनी
पत्नी हरनामकौर से हुई थी। झुटपुटा-सा हो रहा था। उसने देखा कि
हरनामकौर जल्दी-जल्दी कदम उठाती हुई आयी और कुएँ की मेंड़ पर
चढ़ गयी।
उसने गागर वहीं रखी और कुएँ में लोटा लटकाकर उसके पीछे सारी
रस्सी छोड़ दी। रस्सी रेशम की डोर की तरह फिसलती हुई चली गयी
और दूर पानी में लोटे के गिरने की आवाज आयी। उसने दोबारा लोटा
पानी में खंगाला और फिर जाँच-तौलकर रस्सी समेटने लगी।
पालासिंह इन तमाम घड़ियों में उसे देखता रहा। गागर भरकर उसने
कुएँ की मेंड़ पर रख दी और इधर-उधर झाँकने लगे। साँझ साँवली हो
चली थी और बबूल के पेड़ की परछाइयाँ घनी हो गयी थीं।
पालासिंह कुछ झिझकते हुए आगे बढ़ा और बोला, ''मैं हाथ बँटा
दूँ?''
''चल, परे हट, ओ छोकरे! बड़ा आया पहलवान कहीं का। मैंने भी तो
इसी कुएँ का पानी पिया है...'' और उसने पालासिंह के
देखते-देखते गागर को एक झटका दिया, उसे अपने सिर पर रख लिया,
और फिर रेत पर छमछम पाँव रखती हुई पलक झपकते बबूल के पेड़ों की
छाँव में वह गुम हो गयी थी।
अगर अँधेरा ज्यादा गहरा न होता, तो पालासिंह उसके पैरों की रेत
पर बनायी हुई उस जंजीर को देर तक देखता रहता। पैरों के निशान
देखना भी उसका एक शौक था। ये निशान उसके कुएँ से आरम्भ होकर
रेगिस्तान में चारों ओर बिखर गये थे। इन निशानों की उसे इतनी
पहचान हो गयी थी कि वह यह बता सकता था कि अनगिनत निशानों में
से कौन-से निशान हरनामकौर के बाप की चारदीवारी में जाकर गुम हो
जाते थे।
और फिर हरनामकौर के साथ उसकी शादी हो गयी। वे दिन भी खूब थे।
दोनों सारा दिन बाजरे के खेतों में किलकारियाँ मारते रहते। वह
उसे ढोल सिपहिया, बाँकिआ माहिआ (सजीला जवान, बाँका प्रेमी) कहा
करती और वह उसको 'खूह तौं पानी भरें दिए मुटियारे नी' (कुएँ पर
पानी भरती हुई अल्हड़ नवयुवती) वाली गीत सुनाया करता था।
अगर कभी उन्हें गाँव के बाहर जाना पड़ता, तो वे दोनों उदास हो
जाते।
''हरनामकौर, तू असल में बाजरे की कोंपल है, जिसके फलने-फूलने
और बढ़ने के लिए रेगिस्तानी धरती ही उपयुक्त है।''
''रेतीली धरती तो खैर ठीक है, लेकिन तुम्हारे कुएँ का ठंडा और
मीठा पानी भी तो सौ दवाओं की एक दवा है।''
''यह तो बिलकुल सच कह रही है, हरनामकौर। अपने कुएँ के पानी के
लिए तो मैं खुद भी तरस गया हूँ।
अपने वतनाँ दियाँ ठंडियाँ छाईं वे,
अपने वतनाँ दियाँ सर्द हवाई वे।''
(अर्थात् अपने देश की ठंडी छाँव, अपने देश की ठंडी हवाएँ।) गीत
के अगले बोल हरनाम कौर पूरे कर देती है :
''लगियाँ निभाई वे मिधी छोड़ न जाई वे,
दम्भ दिया लोभिया वे परदेस न जाई वे।''
(अर्थात प्रीत की रीत निभाना और मुझे छोड़ न जाना। ओ पैसे के
लोभी, परदेस न जाना।)
और आज पालासिंह काले कोस तय करके अपने देश पहुँचा था।
पाकिस्तान एक्सप्रेस छकछक उड़ती जा रही थी और खिड़की से बाहर
कहीं-कहीं बबूल के पेड़ खुले हृदय से स्वागत कर रहे थे। उसके
विचारों पर एक झीना-सा आवरण छाया हुआ था और उस पर कई पगडंडियाँ
उभरी हुई थीं और यह सब उसके देश को जाती थीं, कुएँ वाले गाँव
को, जहाँ बाजरे की कोंपल बढ़कर पक जाती है और काँटों-भरे
बबूलों के पीले फूल खिलते हैं।
छकछक करती हुई रेलगाड़ी रेगिस्तान से गुजरती हुई बाजरे के
खेतों को पार करती अब आउटर सिगनल के पास से गुजरी, तो उसकी चाल
धीमी पड़ गयी। पालासिंह मन-ही-मन बहुत खुश हुआ कि कुछ पलों के
बाद वह अपनी मंजिल पर पहुँच जाएगा। उसने दूर स्टेशन पर खड़े
हुए आदमियों को पहचानने की कोशिश की। ये तमाम लोग उसके स्वागत
के लिए आये थे, जो पाकिस्तान के रेगिस्तानी इलाकों की यात्रा
के लिए वहाँ पहुँच रहे थे। जब पालासिंह को इस यात्रा की खबर
मिली थी, तो वह बहुत ही खुश हुआ था, क्योंकि यात्रा के स्थानों
में उसका गाँव भी शमिल था। उसके गाँव के पास ही एक धार्मिक
स्थान था।
गाड़ी स्टेशन पर पहुँची, तो ढोल-ताशे बजने लगे। पालासिंह को
लगा, जैसे वह यात्रा पर नहीं, किसी की बारात में आया था। उसका
और उसके साथियों का उल्लास-भरा स्वागत किया गया। उसके गाँव के
मुसलमान मित्र उससे और उसके साथियों से बारी-बारी मिल रहे थे।
पालासिंह से हरेक आदमी गले मिला। इस भीड़ में उसके कितने ही
मित्र थे-अल्लारक्खा, मिर्जा अशरफ और राजा जहाँदाद।
''सुना यार, अल्लारक्खे, तेरा क्या हाल है?''
''बस उसका फजल है। तू अपनी सुना।''
इस तरह एक-दूसरे से गले मिलते और कितनी ही छोटी-मोटी बातें
पूछते और सुनाते हुए वे सब गाँव की ओर चल पड़े।
रेलवे स्टेशन गाँव से दो मील की दूरी पर था। पालासिंह ने जीवन
में इस दो मील की यात्रा को कई बार पूरा किया था। उस समय, जब
वह बहुत छोटा था, तो अपने साथियों के साथ दिनों में दो बार
स्टेशन पर जरूर आया-जाया करता था। उस छोटे-से स्टेशन पर ब्रांच
लाइन की दो गाड़ियाँ तो दिन में जरूर आया करती थीं-अप और डाउन।
वे गाड़ी आने के पहले ही स्टेशन पर पहुँच जाया करते थे और जब
तक गाड़ी स्टेशन से रवाना न हो जाती, मन्त्र-मुग्ध-से वहाँ
खड़े रहते थे।
उसे याद था कि एक बार गाड़ी के डिब्बे में कुछ गोरे सिपाही
बैठे हुए थे। उन सबने तीखी निगाहों से उन लोगों की ओर देखा, तो
एक गोरे ने उन्हें डाँट पिलायी थी। इस पर सब हँस पड़े थे। एक
गोरे ने सन्तरे और माल्टे के ढरों छिलके उन पर दे मारे थे।
जब गाड़ी चलने लगी, तो एक गोरे ने माल्टों की टोकरी उनकी ओर
फेंक दी थी। सबने एक-एक माल्टा बाँट लिया था। खाली टोकरी को
औंधा करके अल्ला-रक्खा ने सिर पर रख लिया था और फिर वह गोरों
की नकल उतारता हुआ अकड़कर चलने लगा था। उसे याद था, वह
खिलखिलाकर कह उठा था, ''टोपीवाले साहब के क्या कहने!''
''साब,'' पालासिंह ने कहा। उसके मुँह से 'साब' शब्द सुनकर
अल्लारक्खा उसपर निछावर हो गया। किसे मालूम था कि इस तरह से भी
भेंट होगी।
''अरे, अभागे कुएँ से कुआँ नहीं मिल सकता, लेकिन
इनसान-से-इनसान मिल सकता है।''
''सच कहा तूने, यार!''
पालासिंह ने अपने कुएँ के बारे में पूछा, अपने खेतों के बारे
में पूछा और अपनी हवेली के बारे में पूछा। सारा रास्ता इसी तरह
कट गया।
पालासिंह के मकान में अब कोई महाजर अर्थात शरणार्थी परिवार बस
गया था।
''यह तो बहुत अच्छा हुआ, हमारा घर तो आबाद है।''
''और तुम्हारी जमीन भी किसी महाजर के नाम अलाट हो गयी है।''
''जमीन उसकी होती है, जो उसकी सेवा करता है, भाइयो! अब वह मेरी
कैसी?''
''और तुम्हारी हवेली में हम लोगों ने पंचायत घर बना लिया है।''
''यह तो और भी अच्छा किया। आज पालासिंह तुम सबका साझी बन गया
है। इससे बड़ी खुशी और क्या होगी!'' पालासिंह ने पूछा, ''मेरे
कुएँ का हाल तो सुनाओ।''
उसे यों लगा जेसे अल्लारक्खा कुएँ के बारे में कुछ कहते-कहते
झिझक गया था।
''क्या बात है, गिराइयाँ (ग्रामभाई), चुप क्यों हो? खुलकर
कहो।''
लेकिन अल्लारक्खा बात टाल गया। पालासिंह यात्रियों के साथ
धर्मस्थान की ओर चल पड़ा।
यात्रियों ने पूरे धर्म-स्थान की अच्छी तरह झाड़-पोंछ की,
धो-धोकर फर्श की ईंटें चमकायीं और जैसे-जैसे ईंटें निखरती
जातीं, लगता कि उनकी आत्माएँ किसी अलौकिक प्रकाश से प्रकाशित
होती जा रही थी। तीन दिनों तक शबद-कीर्तन चलता रहा और अखंड पाठ
होता रहा।
तीसरा दिन जब यात्रियों का जत्था लौटने वाला था, पालासिंह मुँह
अँधेरे जाग गया। अभी झुटपुटा ही था। वह अपने गाँव की ओर चल
पड़ा। यह वही गाँव था, जहाँ उसने जन्म लिया था, जहाँ वह पला
था, जहाँ वह जवान हुआ था।
उसके पैरों में नरम-नरम रेत इस तरह बिछ-बिछ जाती थी जैसे धरती
ने उसके स्वागत के लिए मखमली कालीन बिछा दिया हो। बहुत दिनों
बाद उसे रेत पर चलना बड़ा भला मालूम हो रहा था। हवा के झोकों
में बाजरे की बालियाँ झूम रही थीं। फिर हवा का एक और झोंका आया
और पालासिंह को अपने खेतों की यह गन्ध जानी-पहचानी-सी लगी।
अपन गाँव की हरेक गली को वह जानता था, हर मोड़ को वह जानता था,
यहाँ तक कि वह अँधेरे में पाँव रखते ही बता सकता था कि इस जगह
से कितनी दूरी पर एक गड्ढा है। वहाँ पहुँचकर पालासिंह को यों
लगा जैसे गड्ढा अभी तक भरा नहीं गया था, वह चलता गया। सरदारों
की हवेली की पथरीली दीवार उसके साथ-साथ चल रही थी। उसे याद आया
कि गली जरा आगे जाकर जहाँ बायीं ओर मुड़ती है, पत्थर का एक
कोना आगे को निकला हुआ है। अगर वहाँ से असावधानी से निकला जाए,
तो आदमी के हाथ-पैर टूट सकते हैं।
उस जगह पहुँचकर उसने अनजाने ही उस पत्थर को स्पर्श करने के लिए
हाथ बढ़ाया। वह वैसा-का-वैसा आगे की ओर निकला था। कहीं कोई
परिवर्तन नहीं हुआ था। वही गाँव था, वही गलियाँ थीं, सिर्फ
वहाँ पालासिंह न था।
वह अपने-आप आगे बढ़ता जा रहा था। सरसों और तारामीरा की
मिली-जुली गन्ध से उसने अनुमान लगाया कि वह तेलियों के मुहल्ले
से गुजर रहा है। कुछ आगे जाकर चमड़े की सड़ाँध आने लगी। उसने
समझ लिया कि वह चमारों के घरों के पास जा रहा है। उसने एक
लम्बी साँस ली। गीली मिट्टी की सोंधी-सोधीं गन्ध उसके दिमाग तक
पहुँच गयी। अब कुम्हार के घर पास आ गये थे। बस, अगले मोड़ पर
वह अपनी हवेली में पहुँच जाएगा। उसका घर आ जाएगा। उसका कुआँ आ
जाएगा।
लेकिन यह क्या? उसके कुएँ पर श्मशान जैसा सूनापन क्यों? वे
झाँझरों और गागरों के स्वर, वे चंचल अठखेलियाँ आज यहाँ क्यों
नहीं? और वह भौंचका-सा सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कुएँ के पास जा
खड़ा हुआ।
उसने देखा कि कुएँ पर कोई लोटा न था। चरखी के साथ हमेशा लिपटी
रहनेवाली जंजीर भी नहीं थी। लोटे की तो खैर कोई बात नहीं,
लेकिन जंजीर के न होने पर उसे अचम्भा हुआ। उसने अपने स्वभाव के
अनुसार पड़ोस के मकान की दीवार पर निगाह दौड़ गयी। यहाँ रस्सी
के साथ उनका लोटा हमेशा लटका रहता था। उसने वैसे ही खोये-खोये
लोटा दीवार से उतारकर कुएँ मे लटका दिया। चरखी की आवाज एक
भयानक चीत्कार के साथ चारों ओर गूँज उठी। निंदियारे वातावरण
में यह आवाज बहुत अनोखी मालूम हुई। जितनी देर में उसने लोटा
कुएँ से निकाला, सारा गाँव उसके चारों ओर इकट्ठा हो चुका था।
''पालासिंह! अरे ओ पालासिंह, यह पानी न पीना।''
''क्यों?''
''तुझे मालूम नहीं, इस पानी में जहर मिला हुआ है।''
''जहर! यह क्या कह रहे हो?''
''खत्री इसमें जहर मिला गये हैं।''
पालासिंह जोर से चीखा, ''नहीं, यह पानी जहर नहीं, अमृत
है-अमृत! यह सतियों का कुआँ है। हमारे बुजुर्गों ने हम सभी की
भलाई के लिए इस कुएँ को खुदवाया था, लेकिन तुमने इसे जहर बनाकर
बन्द करवा दिया। अरे नासमझो, यह जहर नहीं, यह अमृत है-अमृत!''
और सारे गाँव वालों के देखते ही देखते पालासिंह उस पानी को
गटागट पी गया। लोग आश्चर्यचकित, पत्थर की मूर्ति बने खड़े थे।
उन्हें विश्वास नहीं आ रहा था कि वे कैसे चौदह वर्षों तक अनजान
बने रहे। अपने पास ही अमृत का स्रोत होते हुए भी वे कितनी
मुसीबतें उठाकर कोसों दूर पानी लेने के लिए जाते रहे।
पालासिंह ने सम्मान और श्रद्धा के साथ अपने कुएँ का पानी एक
बोतल में भर लिया।
दिन को जब पालासिंह और उसके साथियों का जत्था बड़ी चारदीवारी
वाली हवेली के पास से निकला, तो उसकी आँखों में आँसू छलक रहे
थे।
''यह मेरा घर है। यह मेरी जमीन है। यह मेरी हवेली है। यह मेरा
कुआँ है। और यह जो कुएँ पर पानी भर रही, मेरे मित्र अल्लारक्खा
की बेटी है। अल्लारक्खा की कहाँ, खुद मेरी अपनी बेटी है,
ज्ञानी जी? मैं बहुत खुश हूँ ! तुम्हें क्या बताऊँ, मैं बेहद
खुश हूँ !''
''छोड़ो
भी, पालासिंह, जिस गाँव को छोड़ दिया, उसका अब नाम क्या
लेना।''
साधु-संगत चली जा रही थी। पालासिंह पल-भर के लिए रुका, उसने
झुक कर धरती को प्रणाम किया, मुट्ठी-भर रेत उसने अत्यन्त
स्नेह, श्रद्धा और सम्मान के साथ कागज में लपेटकर अपनी जेब में
रख ली और जोर-जोर से शबद के वही बोल पढ़ता हुआ जत्थे से जा
मिला :
''जे मिले ताँक मस्तक लाइए, धूल तेरे चरणाँ दी।'' |