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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है कैनेडा से
सुषम बेदी की कहानी— 'तीसरी दुनिया का मसीहा'


ब्रूनो ने बात कहते-कहते स्टीयरिंग से हाथ उठा लिए और सही लफ़्ज़ों की तलाश की जद्दोजहद में हाथों की संप्रेषण शक्ति की पूरा इस्तेमाल करते हुए पूरे जोशोख़रोश के साथ अपनी बात खोलने लगा।
''-- इस देश में आदमी का जिस्म भी एक इंडस्ट्री है... सारे डॉक्टर उसी की कमाई खाते हैं... कोई न कोई बीमारी उगाकर पैसा बनाने की फ़िराक़ में रहते हैं। इन डॉक्टरों में कोई इंसानी हमदर्दी थोड़े न है... जितनी बड़ी आपकी बीमारी हो उतनी ही खुशी से वे फूलते-फैलते हैं। आप तो दर्द से कराह रहे होते हैं और वह आपकी नब्ज़ पर हाथ रखे कोई बेहतर नई गाड़ी या बड़े से बड़ा घर ख़रीदने की सोच रहा होता है...''

पहले सहायक भाषा के रूप में उसका एक हाथ ही उठता रहा था... पर अब बार-बार दोनों हाथ स्टीयरिंग से उठ जाते। यों गाड़ी की रफ़्तार बहुत धीमी थी फिर भी मैं जो ब्रूनो के कभी हवा में झूलते और कभी कार की छत या स्टीयरिंग से टकराते हाथों पर नज़र ऊपर-नीचे, दायें-बायें करती बहुत नर्वस हो रही थी। शायद उसने मेरी बेआरामी भाँप ली होगी क्यों कि उसने गाड़ी किनारे करके रोक ही ली और बात जारी रखी।
''--उनके लिए तो तुम्हारा शरीर एक बिगड़ी हुई मशीन है। एक पुर्ज़ा ठीक लगा देंगे तो दस पेंच और ढीले कर देंगे। एक बार जब आपने आदमी के ढाँचे को ही इंडस्ट्री मान लिया तो फिर बचा क्या?

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