साहित्य संगम में मोहन कल्पना की
सिंधी कहानी का
रूपांतर- झलक, रूपांतरकार हैं देवी नांगरानी
सर्दियों
की सर्द रात थी। हम शिव मंदिर के पास पीपल के पेड़ के नीचे
बैठे थे। हम दोनों में से किसी ने भी कुछ बात नहीं की। हवा
पीपल के पत्तों को छू रही थी। पीपल चाँदनी को चूम रहा था और
मैं सिंधू की ओर देख रहा था जिसमें सितारों की रोशनी भरी हुई
थी।
अचानक दोनों उठकर खड़े हो गए। ठंडी ने अपना असर दिखाना शुरू
किया था।
उसने मेरे क़रीब आकर कोट की जेब में हाथ डाला। हाथ आर-पार निकल
आया। जेब फटा हुआ था। सिंधू को पता न था कि वह कोट मेरा नहीं
बल्कि मेरे दादा का था, जिसने मेरे पिता को दिया था और उसी रात
यह मुझे मिला।
‘ये क्या?’
‘जैसी मेरी ज़िन्दगी।’
‘क्या बोल रहे हो?’
‘मध्यम श्रेणी का आदमी हूँ न।’
उसने अपना चेहरा मेरे सीने में छुपा लिया। आहिस्ता से कहा -
‘फिर तुम नौकरी क्यों नहीं ढूँढ़ते?’
‘नौकरी के लिये मारा-मारा भटकता तो हूँ।’
आगे...
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