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रचना प्रसंग


हरियाणा में नवगीत- दशा और दिशा

- कुमार रवीन्द्र


पिछले साठेक वर्ष का हिंदी कविता का इतिहास बड़ा उलझनभरा और अन्तर्द्वन्द्व का रहा है। अज्ञेयमार्गी 'नई कविता' के पक्षधरों एवं उद्घोषकों द्वारा गीति-कविता को पूरी तरह नये जीवन-संदर्भों की अभिव्यक्ति हेतु अक्षम और नकारा सिद्ध कर उसे काव्य-विमर्श से दरकिनार करने की जो भरपूर कोशिश की जाती रही। इस समूचे कालखंड में, उसने हिंदी कविता में एक प्रकार के वर्ग-संघर्ष की सी स्थिति पैदा कर दी। 'नई कविता' के माध्यम से जो प्रयोगवादी कविता आई, प्रमुख रूप से उसका आधार रहा पाश्चात्य दर्शन एवं काव्य-शास्त्र। नतीजतन वह कविता जल्दी ही अपनी जड़ों से कट गई और लोक-मानस से अलग हो गई। 'नई कविता' के समानांतर एक दूसरा स्वरूप था कविता का, जो सत्ता-केन्द्रों से दूर पूरे हिंदी प्रदेश के हृदयस्थलों में गुपचुप पनपता रहा और लोक-संस्कृति तथा लोककहन से जुड़ा रहा। कविता के विमर्श से अलग कर दिए जाने के कारण वह काव्य-चर्चा के केंद्र में तो नहीं आ पाया, किंतु उसकी ऊर्जा निरंतर बनी रही, क्योंकि वह विशुद्ध भारतीय मनीषा और भाव-जगत से ऊर्जा ग्रहण करता रहा। इसी रूप का नवीनीकरण हुआ 'नवगीत' में।

नवगीत की ऊर्जा का स्रोत रहा दूर-दराज के अंचलों का लोक-जीवन और उनका जातीय बोध। इसीलिए प्रारम्भ में नवगीत में आंचलिक स्वर अधिक मुखर रहे। पहले सोपान के नवगीत प्रकृतिपरक एवं आंचलिक ही थे। जो सामाजिक चिंताएँ भी उनमें आईं, वे भी अधिकांशतः ग्राम्य एवं आंचलिक परिवेश से ही जुडी हुई थीं। धीरे-धीरे यह लोक-बोध व्यापक होता गया और समग्र मानुषी संवेदना उसमें समाहित होती गयी।

नवता के नवगीत में दो धरातल हैं - एक है कथ्य एवं अंतर्वस्तु का और दूसरा है कहन एवं शिल्प का। नवगीत का कथ्य एक ओर फ़िलवक्त के सरोकारों से जुड़ा है तो दूसरी ओर समूची मानुषिकता से, जो देश-काल की परिधियों से बँधी हुई नहीं है। नवगीत निराला की 'नव गति नव लय ताल छंद नव' की परिकल्पना वाली कविता है। इसीलिए एक ओर उसका स्वर आधुनिक है तो दूसरी ओर शाश्वत और सनातन भी। केवल कथ्य की नवीनता से कोई भी गीत नवगीत नहीं हो जाता। आज के नवगीत के प्रमुख हस्ताक्षर देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' का नवगीत के बारे में एक बड़ा ही सार्थक वाक्य है - "प्रत्येक नवगीत पहले गीत है, किन्तु प्रत्येक गीत नवगीत नहीं है"।

यानी नवगीत गीत तो है, किन्तु इसमें और भी बहुत कुछ है, जो पारम्परिक गीत में नहीं है। बहुत से गीतकवि कथ्य के नवीकरण मात्र से अपने को नवगीतकार मान बैठते हैं। एक बार श्रद्धेय डॉ. जयनाथ 'नलिन' ने बातों-ही- बातों में अपने गीतों को भी नवगीत कहा था और यह भी कि हरियाणा में नवगीत का सूत्रपात उन्होंने ही किया था और इस दृष्टि से वे ही हरियाणा के प्रथम नवगीतकार हैं। यह सच है कि उनके गीतों के सरोकार सामाजिक, लोकोन्मुखी एवं जनबोधी थे और इस रूप में नवगीत की परिधि को वे गीत छूते भी थे, किन्तु उन गीतों की कहन पूरी तरह पारम्परिक थी। वस्तुतः नवगीत कहन की दृष्टि से एक प्रयोगधर्मी काव्य-रूप है। कथ्य का निरूपण भी उसमें नये ढंग से होता है। चेतन और अचेतन की संयुक्त भाव-भंगिमाएँ उसमें एक-साथ ऊपर-नीचे होती रहतीं हैं। इसलिए उसकी आंतरिक संरचना या उसका भाव-संज्ञान भी पारम्परिक गीत से अलग होता है। नवगीत अवचेतन के प्रवाह का काव्य है, अस्तु, उसमें पूर्वापर प्रसंगों की अन्विति सतही नहीं होती। नवगीत की बाह्य संरचना भी इसी अवचेतन के आन्तरिक प्रवाह की अन्विति करती है। इसीलिए नवगीत बिम्बों की भाषा में अपनी बात कहता है। पहले के नवगीतों में बिम्बों पर कई बार अत्यधिक जोर दिखाई देता है। इधर के नवगीतों में इस अति से बचने की प्रवृत्ति स्पष्टतः देखने में आती है - बिम्बाग्रह का स्थान सहज-सरल बिम्बात्मकता ने ले लिया है। मुहावरेदार आमफ़हम भाषा के प्रयोग की ओर आज के नवगीत का रुझान भी एक स्वस्थ विकास है। वार्तालाप और संवाद-शैली का प्रयोग इधर के नवगीतों की विशिष्टता है। साठ वर्षों से भी ऊपर की अपनी यात्रा में नवगीत चार सोपानों से होकर गुज़र चुका है। इन चार सोपानों में उसने आधुनिक समय के सभी प्रसंगों को अपना वर्ण्यविषय बनाया है और इस प्रकार वह आज समूची मानुषी अस्मिता का काव्य बन गया है।

जहाँ तक हरियाणा में नवगीत की स्थिति का प्रश्न है, इसकी उपस्थिति हरियाणा में कुछ विलम्ब से ही दर्ज हो पाई। ईस्वी सन १९५८ में राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा सम्पादित समवेत संकलन 'गीतांगिनी' से नये स्वर के गीतों को नवगीत संज्ञा के रूप में लिखित मान्यता मिली। नवगीत का एक स्वतंत्र विधा के रूप में आगमन उससे कुछेक साल पहले ही हो चुका था और वाचन में 'नवगीत' संज्ञा का प्रयोग भी यदा-कदा गोष्ठियों में होने लगा था। हरियाणा के पिछली सदी के पचासवें एवं साठवें वर्षों के दशक के वरिष्ठ एवं मान्यता-प्राप्त कवि नवगीत की उस समय की भाव एवं कहन-भंगिमा से लगभग अपरिचित ही रहे और अपनी पारम्परिक शैली में ही गीतिकविता का संवर्धन करते रहे। नवगीत के दूसरे पड़ाव के कालखंड में यानी सत्तर के दशक में इसकी कहन को कुमार रवीन्द्र और राजेन्द्र गौतम ने अपनाया और इस प्रकार हरियाणा में नवगीत का सूत्रपात हुआ। अस्सी के दशक की शुरूआत में हरियाणा में रचित नवगीत को अखिल भारतीय पहचान तब मिली, जब 'धर्मयुग' में आई डॉ. विश्वनाथ प्रसाद की दो-अंकीय लेखमाला में राष्ट्रीय स्तर के नवगीतकारों में इन दोनों कवियों का भी नामोल्लेख किया गया।

उसी कालखंड में डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित तीन खंडों में 'नवगीत दशक' शीर्षक पूरे भारत से चुने हुए तीस प्रमुख नवगीतकारों की सपरिचय-सवक्तव्य दस-दस नवगीत रचनाओं के ऐतिहासिक समवेत संकलन का प्रकाशन हुआ। वयक्रम के आधार पर प्रस्तुत उस संकलन के दूसरे और तीसरे खंड में क्रमशः कुमार रवीन्द्र और राजेन्द्र गौतम की उपस्थिति नवगीत के क्षेत्र में हरियाणा की एक महती एवं ऐतिहासिक उपलब्धि रही। उसी के तुरंत बाद आये 'नवगीत अर्द्धशती' और 'यात्रा में साथ-साथ' शीर्षक दो अन्य बहुश्रुत समवेत नवगीत संग्रहों में भी इन दोनों नवगीतकारों की उपस्थिति ने नवगीत के क्षेत्र में हरियाणा के योगदान को विशिष्ट बनाया।

उन्हीं दिनों हिसार के दयानन्द कॉलेज में कुमार रवीन्द्र के प्रयास से अखिल भारतीय नवगीत गोष्ठी एवं नवगीत केन्द्रित कवि सम्मेलन के आयोजन हुए, जिनमें श्रद्धेय डॉ, शंभुनाथ सिंह के साथ माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी, डॉ. सुरेश जैसे प्रतिष्ठित नवगीत हस्ताक्षरों ने भाग लिया। हिसार के ही बहुचर्चित कवि राधेश्याम शुक्ल ने पहली बार उन्हीं आयोजनों में अपने नई कहन के गीतों का पाठ किया। और इस प्रकार हरियाणा में नवगीत का एक और प्रखर हस्ताक्षर उभर कर सामने आया। हरियाणा में नवगीत विधा के उद्भव एवं विकास की दृष्टि से पिछली सदी का अस्सी का दशक इस दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण रहा।

हरियाणा के इन तीन अखिल भारतीय पहचान वाले नवगीतकारों यानी राजेन्द्र गौतम, राधेश्याम शुक्ल एवं कुमार रवीन्द्र के अतरिक्त जिन गीतकवियों ने कालान्तर में नवगीत की कहन को अपनाया, उनमें माधव कौशिक, रामनिवास चावरिया एवं सतीश कौशिक के नाम प्रमुख हैं।

हरियाणा के जींद जिले के ग्राम बराहकलाँ में जन्मे डॉ. राजेन्द्र गौतम का नाम इस दृष्टि से विशिष्ट है कि हरियाणा के नवगीतकारों में से उन्हीं का स्वतंत्र नवगीत संकलन 'गीतपर्व आया है' सबसे पहले प्रकाशित हुआ। जनवरी १९८३ में आये इस संग्रह ने उन्हें अखिल भारतीय स्तर के नवगीतकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर दिया। दिसंबर १९८४ में आई उनकी पुस्तक 'हिंदी नवगीत : उद्भव और विकास' , जो आज भी नवगीत पर लिखी सबसे प्रामाणिक समालोचनात्मक पुस्तक मानी जाती है। इस पुस्तक से डॉ. राजेन्द्र गौतम एक सिद्ध समीक्षक एवं नवगीत के प्रखर चिंतक के रूप में स्थापित हो गये । हिंदी नवगीत को हरियाणा का यह अवदान, सच में, ऐतिहासिक है। गौतम जी के दो और नवगीत संग्रह 'पंख होते हैं समय के' (१९८९) और 'बरगद जलते हैं' (१९९८) प्रकाशित हो चुके हैं और आज वे निश्चित ही हिंदी नवगीत के एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं । 'गीतपर्व आया है' और 'बरगद जलते हैं' नवगीत संग्रहों पर वे हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित हो चुके हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सांस्कृतिक आदान-प्रदान योजना के तहत महात्मा गाँधी संस्थान, मारीशस में अध्ययन-अध्यापन हेतु उनके आवास के दौरान मारीशस ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन द्वारा 'एनकाउन्टर विध ऍन इंडियन राईटर' शीर्षक से उन पर एक डाक्यूमेंटरी फिल्म का निर्माण किया गया, जिसमें उन्होंने नवगीत को एक अंतरराष्ट्रीय आयाम प्रदान किया। संप्रति- वे दिल्ली विश्विद्यालय में प्रोफ़ेसर पद से अवकाश प्राप्त कर स्वतंत्र लेखन से हिन्दी गीतकविता की समृद्धि में अपना विशिष्ट योगदान दे रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के वाराणसी मंडल के सेमरा ग्राम में जन्मे डॉ. राधेश्याम शुक्ल पिछले लगभग साठ वर्षों से हिसार ( हरियाणा ) के स्थायी निवासी हैं। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से शास्त्री उपाधि प्राप्त डॉ. शुक्ल हिंदी-संस्कृत के प्रकांड विद्वान् हैं। हिसार के सी. आर. एम्. जाट कॉलेज के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग से वे ईस्वी सन २००२ में सेवा निवृत्त हुए। नवगीत से उनका जुड़ाव थोड़ा विलंब से यानी १९८४-८५ से हुआ, किन्तु वे एक
परिपक्व अहसास और प्रखर शब्द-सामर्थ्य के साथ जब नवगीत से जुड़े, तो उसे उन्होंने अपनी अनूठी ग्राम्यानुभूति और लोकभाषीय कहन से एक नया आयाम दिया। अद्यतन उनके चार गीतकविता के संग्रह,एक ग़ज़ल संग्रह और एक दोहा संग्रह प्रकाशित हैं। उनके पहले कविता संग्रह 'पँखुरी-पँखुरी झरता गुलाब' ( १९८५ ) में शामिल १४ गीत पारंपरिक शैली के ही हैं, हालाँकि उनमें भी नवगीत की कहन के छिटपुट इंगित कहीं-कहीं देखने को मिलते हैं। अन्य दो संग्रहों 'त्रिविधा' एवं 'एक बादल मन' में, जो क्रमशः १९९० एवं १९९५ में आये, सम्मिलित सभी गीत-नवगीत विधा के उत्कृष्ट नमूने हैं। उनके अधुनातन ‘केसे बुनें चदरिया साधो’ शीर्षक नवगीत संग्रह से निश्चित ही नवगीत विधा को एक नया आयाम मिला है। उनके नवगीत कई प्रतिष्ठित समवेत संकलनों में सम्मिलित किये गये हैं। अन्य कई संग्रहों के साथ दीक्षित दनकौरी द्वारा सम्पादित 'ग़ज़ल: दुष्यंत के बाद' शीर्षक तीन खंड में प्रकाशित अखिल भारतीय ख्याति के ग़ज़ल संग्रह में उनकी ग़ज़लें भी शामिल की गईं। देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रचुर संख्या में प्रकाशित उनके नवगीतों, ग़ज़लों और दोहों से उन्हें अखिल भारतीय प्रतिष्ठा मिली है। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की 'साहित्यमहोपाध्याय' की उपाधि से विभूषित हैं। अनूठी कहन के अपने दोहों के कारण उनकी विशेष ख्याति है।

अब तक की अपनी साठ वर्ष की काव्य-यात्रा में चालीस वर्ष से ऊपर का समय कुमार रवीन्द्र ने नवगीत के सहयात्री के रूप में बिताया है। ईस्वी सन १९७६ में उनके नवगीत 'उजले खरगोश-से आये फिर दिन' को प्रतिष्ठित पत्रिका 'कादम्बिनी' द्वारा आयोजित 'अखिल भारतीय गीत एवं कविता प्रतियोगिता' में सर्वश्रेष्ठ गीत का पुरस्कार प्राप्त हुआ था। वही था कुमार रवीन्द्र की नवगीत-यात्रा का प्रस्थान-बिंदु। आज वे नवगीत के एक वरिष्ठ एवं प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनके आठ नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं - 'आहत हैं वन' (१९८४), 'चेहरों के अंतरीप' (१९८७), 'पंख बिखरे रेत पर' (१९९२), सुनो तथागत' (२००३)' और... हमने सन्धियाँ कीं' (२००६) ‘रखो खुला यह द्वार' (२०१३), 'अप्प दीपो भव’ (२०१६), ‘हम खड़े एकान्त में’ (२०१७) एवं ‘आदिम राग सुहाग का’ (२०१८) । देश की सभी शिखर पत्रिकाओं में उनके नवगीत निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं । दोहा-ग़ज़ल- मुक्तछंद कविता की विधाओं में भी वे समान रूप से सक्रिय रहे हैं और प्रतिष्ठित भी हैं। उनकी ग़ज़लें 'धर्मयुग',' 'सारिका' जैसी पत्रिकाओं एवं 'ग़ज़ल: दुष्यंत के बाद' तथा प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर द्वारा सम्पादित 'हिन्दुस्तानी ग़ज़लें' जैसे अखिल भारतीय प्रतिष्ठा के संग्रहों में स्थान पा चुकी हैं। काव्य नाटक के क्षेत्र में भी उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है और उनके पाँच काव्य नाटक प्रकाशित एवं चर्चित हो चुके हैं। एक प्रखर काव्य-चिंतक के रूप में भी उन्हें अखिल भारतीय ख्याति मिली है। नवगीत के क्षेत्र में उनके विशेष योगदान के कारण उन्हें हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग ने 'साहित्यमहोपाध्याय' की मानद उपाधि से विभूषित किया है और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा अखिल भारतीय स्तर के 'साहित्यभूषण' सम्मान से नवाज़ा गया है। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा भी उनकी प्रकाशित पुस्तकों को तीन बार सर्वश्रेष्ठ कृति का पुरस्कार मिल चुका है। वे एकमात्र ऐसे नवगीतकार हैं, जिन्होंने अंग्रेजी भाषा में भी काव्य-सर्जना की है और उस रूप में अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। उनकी अंग्रेजी कविताओं का संग्रह प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान ' राईटर्ज़ वर्कशाप ' से प्रकाशित हुआ है। वर्ल्ड पोएट्री सोसायटी द्वारा १९७८ में मद्रास (वर्तमान चेन्नई) में संयोजित 'एशियन पोएट्स मीट' पश्चिम भारत से आमंत्रित एवं भाग लेने वाले वे एकमात्र कवि थे और उस अन्तर्राष्ट्रीय मंच से अपनी अंग्रेजी कविताओं के अतिरिक्त उन्होंने नवगीत की भी प्रस्तुति की थी। 'वर्ल्ड पोएट्स' शीर्षक अंतर्राष्ट्रीय संग्रह में तीन वर्ष तक लगातार उनकी अंग्रेजी की कविताएँ प्रकाशित हुईं हैं। हिसार के दयानन्द कॉलेज के स्नातकोत्तर अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए कुमार रवीन्द्र एक बहु-आयामी लेखक हैं और नवगीत पर उनके समालोचनात्मक आलेख, उनके संस्मरण एवं यात्रावृत्त देश की सर्वोपरि पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। उनके यात्रा संस्मरणों का एक संकलन नेशनल बुक ट्रस्ट से ईस्वी सन २०१४ में प्रकाशित हुआ है। अभी इसी वर्ष ‘यात्राएँ और भी’ शीर्षक उनकी यात्रावृत्तों का नया संकलन प्रकाशित हुआ है। लखनऊ, उत्तर प्रदेश में जन्मे कुमार रवीन्द्र पिछले अड़तालीस वर्षों से हरियाणा के स्थायी वासी हैं।

हरियाणा के इन तीन वरिष्ठ नवगीतकारों का हिंदी नवगीत के विकास में विशेष योगदान रहा है और उसके वर्तमान स्वरूप के निर्धारण में उनकी महती भूमिका रही है। ऐसी ही एक कनिष्ठ त्रिकुटी है हरियाणा के नवगीतकारों की, जिनकी अखिल भारतीय पहचान तो नहीं बन पाई है, किन्तु नवगीत के समकालीन परिवेश को समृद्ध करने में जिनकी भूमिका को नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता। ये तीन नवगीतकार है सर्वश्री माधव कौशिक, रामनिवास चावरिया और सतीश कौशिक।

'हरियाणा के भिवानी नगर में जन्मे माधव कौशिक हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना एवं प्रतिष्ठित नाम है। उनके दो नवगीत संग्रह 'मौसम खुले विकल्पों का' (१९९३) तथा 'शिखर संभावना के' ( २००० ) प्रकाशित हो चुके हैं। यथार्थ की 'कुलिश इव' कठोर’ भावभूमि से उपजे उनके नवगीतों में जीवन की कड़वी एवं बीहड़ सच्चाइयों के प्रामाणिक चित्र बड़ी शिद्दत से उकेरे गये हैं। चौथे पड़ाव के नवगीतों के ये उत्कृष्ट उदाहरण हैं। हरियाणा की लोकसंस्कृति की बानगी देते उनके नवगीत उन संभावनाओं का भी संकेत देते हैं, जिनसे नवगीत में हरियाणा की सोंधी माटी की महक व्याप सके। साहित्य अकादमी, चंडीगढ़ के मानद सचिव, हरियाणा के विश्वविद्यालयों के एम. ए. पाठ्यक्रम में निर्धारित 'हरियाणा की प्रतिनिधि कविता' शीर्षक समवेत संकलन के सम्पादक, आकाशवाणी के अनुबंधित कवि, केन्द्रीय साहित्य अकादेमी के मानद सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा 'सूर पुरस्कार' से सम्मानित श्री माधव कौशिक एक ऐसे कवि हैं, जिनसे हिंदी नवगीत को विशेष अपेक्षाएँ हैं। वे नवगीत विधा के प्रखर चिंतक भी हैं। उनके नवगीत पर, विशेष रूप से हरियाणा के सन्दर्भ को व्याख्यायित करते, कई आलेख पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके हैं।

श्री रामनिवास चावरिया का जन्मस्थान महम, जिला रोहतक है। वे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कार्यरत रहे हैं। उनका एक नवगीत संग्रह 'घूँट भर जीवन' सन १९८८ में आया था। सूक्ष्म मानव अनुभूतियों के सहज सादे अंकन की दृष्टि से उनके नवगीत विशिष्ट हैं। 'होंठ पत्थर के / मिले हैं ज़िंदगी को' जैसी बिम्बात्मक उक्तियों वाले उनके नवगीत फ़िलवक्त की विसंगतियों एवं त्रासदियों का अंकन बड़ी शिद्दत से करते हैं।

सतीश कौशिक के 'हलफनामे सुबह के' (२००४) के आगमन ने हरियाणा के एक सशक्त नवगीत हस्ताक्षर को हमारे सामने प्रस्तुत किया। संग्रह में संकलित अधिकांश गीत ‘नवगीत’ की उन तमाम शर्तों को पूरा करते हैं, जिनसे आज का नया गीत व्याख्यायित होता है। मूल प्रवृत्ति से सतीश कौशिक एक भाव-प्रवण व्यक्ति हैं और उनके गीत मनुष्य की रागात्मक चेतना की आख्या बखूबी कहते हैं। वे एक सिद्ध ग़ज़लकार भी हैं और उनकी ग़ज़लें 'ग़ज़ल: दुष्यंत के बाद' जैसे अखिल भारतीय प्रतिष्ठा वाले ग़ज़ल-संग्रहों में सम्मिलित की गयी हैं। ग़ज़ल-कहन की सादगी और गहराई उनके नवगीतों में भी देखने को मिलती है। १९ जून १९४९ को चरखी दादरी, जिला भिवानी में जन्मे सतीश कौशिक एक गंभीर सुकंठ कवि हैं। पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक श्री कौशिक एक निजी कम्पनी के वाणिज्य प्रबन्धक के पद से स्वेच्छा से भारमुक्त होने के उपरांत निजी व्यवसाय कर रहे हैं।

इन जाने-पहचाने नवगीतकारों के अतिरिक्त अनेक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने छिटपुट रूप से नवगीत की कहन को अपनाने का प्रयास किया है और उनके गीतों में नवगीत की भंगिमाओं के संकेत मिलते हैं। इनमें सर्वश्री राजेन्द्र निशेष, संतोष धीमान, पुष्पकुमार सिंह 'कुमार' और कुंवर राजवीर सिंह के नाम उल्लेखनीय हैं। हरियाणा के वरिष्ठतम कवि आदरणीय उदयभानु 'हंस' के इधर के कई गीतों में नवगीत की कहन के पर्याप्त संकेत दिखते हैं। स्व० कैलाश राठी विशाल की असामयिक मृत्यु के पूर्व के लिखे गीत भी नवगीत के क्षितिज को स्पर्श करते लगते हैं। अपनी बाल-कविताओं के लिए ख्यात घमंडीलाल अग्रवाल के कुछ गीतों में नवगीत की कहन झलक मारती दिखती हैं।

यह सच है कि हरियाणा में नवगीत का प्रवेश देर से हुआ, किन्तु जब हुआ तो पूरी शिद्दत और सामर्थ्य के साथ। जिन कवियों ने नवगीत की कहन को अपनाया, उन्होंने अपनी सर्जना-सामर्थ्य से इसे कथ्य और कहन, दोनों स्तरों पर नये आयाम दिये। हरियाणा एक समृद्ध लोक-संस्कृति का प्रदेश है और क्योंकि नवगीत का भावात्मक संज्ञान भी लोकोन्मुखी रहा है और अभी भी है, हरियाणा के गीतकवियों के लिए उसे अपनाना सहज रहा। एक और बात। हरियाणा की मूल प्रवृत्ति लोकगीतात्मक यानी छान्दसिक है। नवगीत भी एक छान्दसिक काव्य-रूप है, हालाँकि वह पारंपरिक छंदों से बंधा हुआ नहीं है। उसकी प्रयोगधर्मी छान्दसिकता समकालीन नये चिन्तन के अनुरूप अपने को ढालती रही है। इस प्रकार हम पाते हैं कि नवगीत के क्षेत्र में भी हरियाणा की उपस्थिति नगण्य नहीं है।

 

१ दिसंबर २०१८

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