संगीतकार चित्रगुप्त
-शशांक दुबे
सिनेमा को अक्सर सोलह कलाओं का संगम कहा जाता है,
क्योंकि इसमें अभिनय होता है, नृत्य होता है,
फोटोग्राफी होती है, सेट्स, साज सज्जा, रंगीन परिधान,
एक्शन, थ्रिल, रोमांच, करुणा, आँसू, हँसी और भी बहुत
कुछ होता है। जब तक हम फिल्म देखते हैं, इन सभी चीजों
में डूबे रहते हैं, लेकिन जैसे ही सिनेमा हॉल से बाहर
आते हैं, दो ही चीजें साथ रह जाती हैं, एक तो संवाद और
दूसरे गीत। संवाद याद रखने के लिए तो फिर भी भाषा आनी
जरूरी है, लेकिन गीत-संगीत तो ऐसी सौगात है, जिसे हर
व्यक्ति अपने संग लिए चला आता है। ये गीत कभी अपने
अर्थपूर्ण शब्दों की वजह से, तो कभी अपनी सुमधुर धुन
की वजह से, तो कभी ऐ वैं ही, हमारे अवचेतन में
बरसों-बरस बसे रहते हैं। इस दौरान हम गीत सुनते हैं,
गुनते हैं और फिर अपने से बाद वाली पीढ़ी को सौंप जाते
हैं।
लोकाचार का ऐसा कोई आयोजन नहीं है, जिसमें सिने गीतों
का प्रयोग न होता हो। कॉलेज की कोई पिकनिक अंताक्षरी
के बगैर पूरी नहीं होती। गणेश उत्सव हो, जन्मदिन की
पार्टी हो, किटी पार्टी हो, हर आयोजन फिल्मी गीतों की
पुनर्प्रस्तुति के बगैर अधूरा है। सच तो यह है कि
अंतरराष्ट्रीय फलक पर भारतीय सिनेमा की पहचान ही उसका
गीत-संगीत रहा है। यही कारण है कि कुछ साल पहले आस्कर
पुरस्कार समारोह के दौरान श्रेष्ठ विदेशी फिल्म की
घोषणा करने से पहले "ऐमेली" और "नो मेन्स लैंड" के
साथ-साथ "लगान" की भी झलक दिखलाई जा रही थी, तब
बीस-बीस सेकेंड के उन केप्सूलों में जहाँ अन्य नामित
फिल्मों की झलक के रूप में उनके कुछ नाटकीय दृश्य
प्रस्तुत किए गए थे, वहीं लगान की घोषणा के समय "ओ रे
छोरे मान भी ले तू मैंने प्यार तुझी से ही किया," गीत
दर्शाया गया था। कहना न होगा, इत्तेफाक, कानून, अचानक
और भूत जैसी कुछ अपवादस्वररूप बनाई गई फिल्मों को छोड़
दें, तो गीतों के बिना हिंदी सिनेमा की कल्पना ही
मुश्किल है।
फिल्म संगीत की इस समृद्धि में गीतकारों,
गायक-गायिकाओं, संगीतकारों और वादकों का बहुत बड़ा हाथ
रहा है। जहाँ गीतकारों ने अपनी कलम के जादू से उन
लोगों तक भी अपनी पैठ बनाई है, जिनकी सिनेमा या संगीत
में कोई रुचि नहीं है, वहीं कई संगीतकारों और
गायक-गायिकाओं ने अपनी स्वतंत्र शैली के जरिये अपनी
पहचान बनाते हुए हिन्दी फिल्म संगीत से उन रसिकों को
भी जोड़ा है, जिन्हें हिन्दी भाषा का क-ख-ग तक नहीं
आता। दूसरी ओर गायक-गायिकाओं की भी अपनी-अपनी खूबियाँ
रही हैं। लोग किशोर की मस्ती ही नहीं, रफी की रूमानियत
के भी मुरीद रहे हैं। जोश का मतलब महेंद्र कपूर, कंपन
का मतलब तलत महमूद, सादगी का मतलब मुकेश और क्लासिकी
का मतलब मन्ना दा समझा जाता रहा है। लता जी की आवाज़
मानो दूर कहीं मंदिर में घंटी बज रही हो और आशा जी का
स्वर यानी पास कहीं कोई ‘काना माना कुर्र’ कर रहा हो।
इसी तरह संगीतकारों की भी अपनी पहचान रही है। नौशाद का
मतलब राग-रागिनियों में डूबा संगीत, शंकर-जयकिशन का
मतलब अलौकिक ऑर्केस्ट्रा, मदन मोहन के मायने गजल और
रोशन का मतलब महफिले-कव्वाली। लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल
का मतलब ढोलक की थाप, कल्याणजी आनंदजी के मायने सरल
धुन और पंचम का मतलब एक न एक बार गाने में ‘हे ए’ की
अनुगूँज रही है। यह संगीतकारों की अपनी-अपनी पहचान का
ही असर है कि किसी जमाने में पोस्टर पर संगीतकार के
रूप में ओ पी नय्यर का नाम देखते ही लोग हथेलियों को
रगड़कर ऊष्म कर लिया करते थे, क्योंकि फिर अगले ढाई
घंटे उन्हें तालियों और चुटकियों से हॉल दन्ना देना
है। संगीतकार ही नहीं किसी जमाने में कई साजिंदे भी
संगीत-रसिक श्रोताओं के बीच लोकप्रिय थे। दत्ताराम की
ढोलक (वो चाँद खिला वो तारे हँसे, वो रात अजब मतवारी
है), किशोर देसाई के मेंडोलिन (घर आया मेरा परदेसी),
प्रभाकर जोशी की हलगी (डफली वाले डफली बजा), शिव कुमार
शर्मा के संतूर और (तबला भी, जिसके बारे में बहुत कम
लोगों को पता है, सनद रहे "मोसे छल किए जाए" में तबला
इन्होंने ही बजाया था). होमी मुल्लन जी के पैडल ऑर्गन
(आने वाला पल जाने वाला है), बाबू सिंह की हारमोनियम
(कजरा मुहब्बत वाला) और इसी तरह के कई विशेषज्ञ
साजिंदों की खूब माँग हुआ करती थी। संगीतकारों और
साजिंदों की इस महफिल में चित्रगुप्त का अंदाज सबसे
अलग था। तब फिल्म के पोस्टरों पर संगीतकार के रूप में
चित्रगुप्त का नाम आने का मतलब लता की कुछ ज्यादा ही
कोमल, कुछ ज्यादा ही मुलायम, कुछ ज्यादा ही सुरीली
आवाज़ की गारंटी हुआ करती थी और रसिक श्रोता भागते
उफनते सिनेमा घर की ओर प्रयाण कर जाते थे।
हिन्दी फिल्म जगत के सबसे ज्यादा पढ़े लिखे
(अर्थशास्त्र और पत्रकारिता में डबल एम ए) चित्रगुप्त
का जन्म १६ नवंबर १९१७ को बिहार के सारण जिले में हुआ
था। सिनेमा में कदम रखने से पहले वे पटना कॉलेज में
प्रोफेसरी कर रहे थे, लेकिन संगीत का शौक उन्हें मुंबई
खींच लाया। मुंबई आकर एस एन त्रिपाठी के सहायक बने,
उनकी शागिर्दी में फिल्म संगीत के व्याकरण को समझा और
कुछ समय बाद १९४६ से स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन
करने लगे। शुरू शुरू में उन्हें ‘फाइटिंग हीरो’, ‘लेडी
रॉबिनहुड’ और ‘तूफान क्वीन’ जैसी मामूली श्रीहीन
फिल्में मिलीं। इन फिल्मों के संगीत की भी चर्चा नहीं
हुई। तलवार बाजी और स्टंटबाजी से भरपूर इन फिल्मों की
भीड़ में १९५२ में उनकी ‘सिंदबाद द सैलर’ आई। फिल्म तो
पिछली फिल्मों जैसी ही थी, लेकिन रफी और शमशाद द्वारा
गाया गया गीत ‘अदा से झूमते हुए दिलों को चूमते हुए’
हिट हो गया। अगले साल ‘नाग पंचमी’ में आशा जी का गाया
गीत ‘मेरी चुनरिया उड़ाए लिए जाए’ तो चला ही, हेमंत की
गाई आरती ‘आरती करो हरिहर की’ ने तो धूम मचा दी। जल्द
ही चित्रगुप्त कम बजट की फिल्म बनानेवालों के पसंदीदा
संगीतकार हो गए।
फिल्म रसिकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि उस दौर में
जब ओ पी नैयर का मेहनताना एक लाख रुपये हुआ करता था,
नौशाद फिल्म के लाभ में से हिस्सा लेते थे, शंकर
जयकिशन का पारिश्रमिक ‘फिल्म के नायक का पारिश्रमिक
प्लस एक रुपया’ होता था, तब चित्रगुप्त जी मात्र दस
हजार रुपये में संगीत दे देते थे। इसी पारिश्रमिक पर
उन्होंने ‘इंसाफ’ (१९५५) में ‘दो दिल धडक़ रहे हैं और
आवाज एक है’ जैसा दिलकश संगीत दिया था और इतने ही
मेहनताने पर ‘भाभी’ (१९५७) का कालजयी संगीत रचा था।
गीत-संगीत के दम पर विगत अस्सी सालों से हिंदुस्तानी
जनमानस के मन में रचे-बसे हिंदी सिनेमा के इतिहास में
ऐसी फि़ल्मों की संख्या दहाई के पार भी नहीं पहुँचेगी,
जिनमें एक ही गीत ने सारी फि़ल्म का वजन अपने ‘गले’ पर
उठाया हो। उदाहरण के लिए ‘गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा
रही है’ (दोस्त) या ‘हिम्मत ना हार, चल चला चल, अकेला
चल चला चल’ (फकीरा)। लेकिन समूची फि़ल्म के रेशे-रेशे
में व्याप्त ऐसे बिरले गीतों में सिरमौर तो ‘भाभी’ का
‘चल उड़ जा रे पंछी के अब ये देस हुआ बेगाना’ ही
रहेगा, जो जि़ंदगी के फलसफे को बड़ी सरलता से बयां
करता है। पंद्रह से पचहत्तर साल तक के आयु वर्ग में
शायद ही कोई ऐसा संगीतप्रेमी होगा, जिसका कलेजा इस गीत
की इन पंक्तियों को सुनते वक्त काँपा न हो-
'ख़त्म हुए दिन उस डाली के, जिस पर तेरा बसेरा था
आज यहाँ और कल हो वहाँ ये जोगी वाला फेरा था
ये तेरी जागीर नहीं थी, चार घड़ी का डेरा था
सदा रहा है इस दुनिया में, किसका आबो दाना
चल उड़ जा रे पंछी..."
भाभी का केवल यही गीत महत्वपूर्ण नहीं था। प्रतिभा की
दृष्टि से शैलेंद्र को बराबरी की टक्कर देने वाले
गीतकार राजेंद्र कृष्ण और न्यूनतम पारिश्रमिक पर
अधिकतम प्रतिफल देनेवाले विलक्षण संगीतकार चित्रगुप्त
की जोड़ी ने इसमें कई अच्छे गीत दिए। "कारे कारे बादरा
जारे जारे बादरा" इसी श्रेणी का गीत है जिसकी मधुरता
हमारे श्रव्य पटल से एटीएम ट्रांज़ेक्शन की पर्ची के
प्रिंट की तरह तुरंत ओझल नहीं होती, बल्कि स्याही से
लिखी इबारत की तरह स्थाई बनी रहती है। "चली चली रे
पतंग मेरी चली रे" की लोकप्रियता विविध भारती पर उतनी
ही है, जितनी बालक के गीत "आज का दिन है बड़ा महान, आज
के दिन दो फूल खिले हैं, एक का नारा अमन एक का जय जवान
जय किसान" की है। फर्क है, तो बस इतना कि एक गाना हर
साल १४ जनवरी को बजता है जबकि दूसरा हर २ अक्टूबर को।
"टाई लगा के माना बन गए जनाब हीरो", में तत्कालीन फैशन
को लेकर छेड़छाड़ है। लेकिन शीर्षक गीत के अलावा भी
यदि भाभी को एक महान संगीतमय फि़ल्म कहलाने का हक है,
तो वह "छुपाकर मेरी आँखों को, वो पूछे कौन हैं जी हम,
मैं कैसे नाम लूँ उनका, जो दिल में रहते हैं हरदम",
नामक अलौकिक युगल गीत के कारण। इस गीत के बारे में
इतना ही कहा जा सकता है कि यदि रात के सन्नाटे में
बजाए जा सकने वाले श्रेष्ठ पाँच गीतों की सूची बनाई
जाएगी, तो कवायद चार गीत तय करने के लिए ही करनी होगी,
इस गीत की जगह तो मुकर्रर है।
चित्रगुप्त द्वारा संगीतबद्ध ऐसी कई फिल्में हैं,
जिनकी कहानी को, निर्माता-निर्देशक को और कलाकारों को
लोग भूल चुके हैं, लेकिन उनके गाने आज भी सुमधुर संगीत
के दीवाने श्रोताओं के अंतस में बसे हुए हैं- ‘टेक्सी
स्टैंड’ (१९५९) का आशाजी की लहराती आवाज में गया गीत-
"ये हवा ये फिजा ये समाँ", आज भी लोगों को याद है।
‘गेस्ट हाउस’ (१९५९) का- "दिल को लाख सम्हाला जी",
‘बरखा’ (१९५९) के - "एक रात में दो दो चाँद खिले" और
‘पतंग’ (१९६०) के- "तेरी शोख नजर का इशारा", अभी भी
हमारी स्मृतियों में बसे हुए हैं। ‘बड़ा आदमी’ (१९६१)
का रफी की गमगीन आवाज में गाया गीत - "अगर दिल किसी से
लगाया न होता, जमाने ने हमको सताया न होता", वाकई में
बड़ा ही है। ‘जबक’ (१९६९) के रफी-लता के युगल-गीत-
"तेरी दुनिया से दूर चले होके मजबूर हमें याद रखना",
और मुकेश-लता के विरह गीत "महलों ने छीन लिया बचपन का
प्यार मेरा", को अलौकिक गीतों की श्रेणी में ही रखा
जाएगा। ‘बर्मा रोड’ (१९६२) में- "दगाबाज हो बाँके पिया
कहो हाँ दगा बाज हो", की अल्हड़ता और "दगा दगा वई वई
वई" (काली टोपी लाल रुमाल) की मासूमियत का तो कहना ही
क्या? और फिर एवीएम की ‘मैं चुप रहूँगी’ (१९६२) का
संगीत! "कोई बता दे दिल है जहाँ क्यों होता है दर्द
वहाँ" और "चाँद जाने कहाँ खो गया", के रूप में रफी-लता
के अनमोल प्रणय गीत। उसी साल प्रदर्शित मामूली सी
फिल्म ‘मैं शादी करने चला’ में मुकेश-कमाल बारोट के
गाए गीत -"जबसे हम तुम बहारों में खो बैठे हम नजारों
में" और ‘घर बसाके देखो’ (१९६३) के "तुमने हँसी ही
हँसी में क्यों दिल चुराया जवाब दो", के रूप में
लता-महेंद्र के संगम की तो बात ही निराली है।
लता मंगेशकर के बारे में कहा जाता है कि वे जितना
मधुर, जितना कोमल, जितना मीठा और जितना लुभावना
चित्रगुप्त के संगीत निर्देशन में गाती थी, उतना किसी
अन्य संगीतकार के निर्देशन में नहीं। यकीन न हो तो-
"दीवाने तुम दीवाने हम, किसे है गम क्या कहेगा ये
जमाना।" "सजना काहे भूल गए दिन प्यार के (चाँद मेरे
आजा)", "रंगे दिल की धडक़न भी लाती तो होगी (पतंग)",
"बलमा माने ना (ओपेरा हाउस)", "आज की रात नया चाँद
लेके आई है (शादी)", "दिल का दिया जला के गया
(आकाशदीप)", "उठेगी तुम्हारी नजऱ धीरे-धीरे (एक
राज़)", "तड़पाओगे तड़पा लो हम तड़प तड़प के भी
तुम्हारे गीत गाएँगे (बरखा)", "दगा दगा वई वई वई (काली
टोपी लाल रूमाल)", "दिल को लाख सँभाला जी (गेस्ट
हाउस)", "हाए रे तेरे चंचल नैनवा (ऊँचे लोग)", सुन
लीजिए। इन गानों में लताजी की रंगत सुनते ही बनती है।
दूसरी ओर चित्रगुप्त ने किशोर कुमार से भी कुछ बहुत
अच्छे गीत गवाए। ‘गंगा की लहरें’ (१९६४) का शीर्षक गीत
तो महान था ही, "छेड़ो न मेरी जुल्फें सब लोग क्या
कहेंगे" में भी बला की मस्ती थी। ‘एक राज’ (१९६३) में
उन्होंने किशोर से "अगर सुन ले तू इक नगमा हुजूरे यार
लाया हूँ", एकल गीत और लता के साथ, "अजनबी से बन के
करो न किनारा', जैसे मधुरतम गीत तो गवाए ही, प्राय:
राग रागिनियों का नाम सुनकर पतली गली से निकल जाने
वाले किशोर से "पायल वाली देख ना" जैसा क्लासिकल गीत
भी गवाया। इस गीत को किशोर द्वारा गाए गए एक मात्र
शास्त्रीय गीत के रूप में याद किया जाता है।
रूमानी गीतों में चित्रगुप्त ने विचित्र सा संसार रचा
था। ‘ऊँचे लोग’ (१९६५) के रफी के गाए गीत "जाग दिले
दीवाना रुत जागी वस्ले यार की", की गहराई और महेंद्र
कपूर-लता मंगेशकर द्वारा गाए, "आजा रे मेरे प्यार के
राही, राह निहारूँ बड़ी देर से", की ऊँचाई को नापना
जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल है ‘वासना’ (१९६८)
के, "ये पर्वतों के दायरे ये शाम का धुआँ", के
अतीन्द्रीय रहस्य को समझना। अपने कैरियर की साँझ में
उन्होंने किशोर कुमार से ‘इंतजार’ (१९७३) में एक
अत्यंत रूमानी और मधुर गीत-
"चंदा की किरणों से लिपटी हवाएँ, सितारों की महफिल
जवां, आके मिल जा, ऐसा मौसम मिले फिर कहाँ" गवाया था।
अस्सी के दशक में डिस्को की आँधी में कई संगीतकार चुक
गए। चित्रगुप्त ने खुद को भोजपुरी फिल्मों तक सीमित कर
दिया और फिर अपने बेटों आनंद-मिलिंद को पेश किया,
जिन्होंने आते ही- "पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा",
जैसा हिट गीत देकर शब्दों को सार्थक कर दिया। "चली चली
रे पतंग मेरी चली रे," के माध्यम से हर मकर संक्रांति
को आज भी प्रासंगिक बने रहने वाले चित्रगुप्त ने मकर
संक्रांति (१४ जनवरी १९९१) को ही इस दुनिया से विदा
ली। लेकिन जाने से बहुत पहले पचास और साठ के दशक में
उन्होंने जो कुछ रचा था, वह धरोहर के रूप में
संगीतप्रेमियों के मानस पटल पर हमेशा दस्तक देता
रहेगा। ।
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दिसंबर २०१८ |