मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


साहित्य संगम

साहित्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है मोहन कल्पना की सिंधी कहानी का रूपांतर- झलक, रूपांतरकार हैं देवी नांगरानी


सर्दियों की सर्द रात थी। हम शिव मंदिर के पास पीपल के पेड़ के नीचे बैठे थे। हम दोनों में से किसी ने भी कुछ बात नहीं की। हवा पीपल के पत्तों को छू रही थी। पीपल चाँदनी को चूम रहा था और मैं सिंधू की ओर देख रहा था जिसमें सितारों की रोशनी भरी हुई थी।

अचानक दोनों उठकर खड़े हो गए। ठंडी ने अपना असर दिखाना शुरू किया था।
उसने मेरे क़रीब आकर कोट की जेब में हाथ डाला। हाथ आर-पार निकल आया। जेब फटा हुआ था। सिंधू को पता न था कि वह कोट मेरा नहीं बल्कि मेरे दादा का था, जिसने मेरे पिता को दिया था और उसी रात यह मुझे मिला।

‘ये क्या?’
‘जैसी मेरी ज़िन्दगी।’
‘क्या बोल रहे हो?’
‘मध्यम श्रेणी का आदमी हूँ न।’
उसने अपना चेहरा मेरे सीने में छुपा लिया। आहिस्ता से कहा - ‘फिर तुम नौकरी क्यों नहीं ढूँढ़ते?’
‘नौकरी के लिये मारा-मारा भटकता तो हूँ।’
‘कहते हैं, अगर आदमी चाहे तो ज़मीन से सोना भी निकाल सकता है।’
‘उसके लिये तो औज़ार की ज़रूरत होती है सिंधू, बिना औज़ार के ज़मीन से सोना तो क्या, एक पत्थर तक नहीं निकाला जा सकता।’
‘तब क्या होगा?’ उसने मेरे मुँह की ओर देखते हुए कहा।
‘यह तो नहीं जानता सिंधू, तुम छोड़कर नहीं जाओगी, इस बात की तसल्ली है। लेकिन तुम कैसी हो, कभी भी कुछ नहीं माँगा है। शायद मैं ऐसा हूँ, जो तुम्हें कुछ दे नहीं पाया हूँ। अच्छा ये तो बताओ, तुम्हें क्या बंगले में रहने और कार में घूमने का शौक नहीं?’

‘तुमने मुझे क्या समझा है?’ उसने दूर हटते हुए कहा।
‘समझा नहीं है, समझना चाहता हूँ।’
‘क्या समझना चाहते हो, यही कि मैं कितना कर सकती हूँ?'
‘तुम मुझे गलत समझ रही हो।’
‘गलत मैं समझ रही हूँ या तुम?’
‘जो बात फ़ितरती है, उसके बारे में सोचना चाहिये, क्या तुम ऊँचे स्तर की ज़िन्दगी के खिलाफ़ हो?’
‘हमेशा सादा रहना चाहिये और ऊँचा सोचना चाहिये।’
‘नहीं’ मैंने कहा - ‘हमेशा ऊँचा रहना और गहरा चिंतन करना चाहिये।’
‘अच्छा, सुनाओ मेरे लिये क्या लाओगे? तुमसे कहा था, मुझे नौकरी है, मुझसे लिया करो। तुमने इन्कार कर दिया। घर से कुछ नहीं लेते, कैसे गुज़ारा कर लेते हो? आज के नौजवान को चाहिये खेल, अख़बार और सिगरेट, लेकिन तुम? अच्छा बताओ क्या लाओगे?’

मैं पहले सोचने लगा कि क्या लाऊँ? और फिर सोचने लगा पुस्तकें लाऊँ, लेकिन दोनों सवालों का जवाब पा न सका। वह होठों में एक गीत गुनगुनाने लगी।

मैंने सोचा कि उसके लिये एक फूल लाऊँगा, बाग में से तोड़ आऊँगा, लेकिन उसका मूल्य? ओह! वह हँसकर कहेगी - ‘बस!’ या शायद रो पड़े, उसे मेरी मजबूरी का अहसास होगा। नहीं, नहीं, उसे न हँसने दूँगा और न रोने। उधार लेकर सौगात दूँ, यह भी मेरी फ़ितरत नहीं। सब किताब भी बेच चुका हूँ। मेरे पास अपनी पेन भी नहीं है, कुछ भी नहीं है।

मेरी आँखों में हलकी जलन हुई, सोचा - पीपल के पेड़ से एक पत्ता तोड़कर, उसपर रखकर उसे अपने दो आँसू दे दूँ!

‘चुप हो गए?’
‘सोच रहा हूँ।’
‘ऊँचा या गहरा?’ वह हँसी
‘दोनों!’ अब मैं भी हँस पड़ा।
‘क्या आसमान से चाँद उतार कर लाओगे?’
‘धरती भी चाँद है, अगर कोई चाँद से जाकर देखे।’
‘तब तारे उतार लाओगे?’
‘उनकी रौशनी पहले से ही तुम्हारी आँखों में है’
‘तो फिर क्या ले आओगे?’
‘पान लेकर आऊँ?’
‘पान।’वह ज़ोर से ठहाका मारकर हँसी।
‘पान का ज़िक्र वेदों में भी है, उपनिषद्, पुराणों, रामायण, महाभारत और भागवत् में भी है।’
‘और गीता में?’
‘गीता महाभारत का एक हिस्सा है और महाभारत में पान का ज़िक्र है।’
‘शास्त्रों के अनुसार पान कौन खाता है, औरत या मर्द?’
‘शास्त्रों में सिर्फ़ पान की महिमा दर्ज है, खाते सिर्फ़ देवता हैं, जिसका ज़िक्र सभी हिंदुस्तानी महाकाव्यों में है।’
‘तुमने क्या इतना पढ़ा है?’
‘मुझे ये सब एक पान वाले ने बताया था।’

वह हँसने लगी - ‘अच्छा ले आना।’

मैं पाँच पैसे पाने की फ़िक्र में था कि छोटी बहन की आवाज़ सुनी। वह भाभी से कह रही थी कि ‘चाय पत्ती न होने के कारण आज चाय नहीं बन पाएगी।’

भाभी ने कहा - ‘तो फिर राजू को दस पैसे दो ताकि वह होटल से ले आए। हमने चाय न पी तो कोई बड़ी बात नहीं, पर अगर चन्दर न पियेगा तो उसे सर में दर्द हो जाएगा।’

शाम को अगर कभी ऐसा होता कि चाय नहीं बन पाती थी तो ऐसा ही होता था अगर मैं घर में हुआ करता।

राजू दस पैसे लेकर चाय लाने चला तो मैंने उसे आवाज़ दी। उसने नज़दीक आते ही कहा - ‘भाई, मुझे चाय पिलाओगे ना?’ मैं जैसे पथरा गया। मैंने उससे कहना चाहा कि ‘पाँच पैसे मुझे दे दो तो मैं चाय खुद ही पीकर आता हूँ।’

‘पाँच पैसे तुम लो और पाँच मुझे दे दो।’
‘और चाय?’
‘नहीं चाहिये।’
‘भाभी मारेगी तो?’
‘तो मैं बैठा हूँ न!’

रात को पान वाले की दुकान पर आ बैठा, सोचा कि एक ठंडा कपोरी पान लूँगा, जिसमें चूने के सिवा और सब मसाले होंगे। कहूँगा कि पान में केसर, गुलकंद, इलाची और ठंडक ज़रूर डाल दे।

अभी जेब में हाथ डाला ही था कि उस हाथ को एक बच्चे ने आकर थामा। उसके हाथ में एक डिब्बा था। कहने लगा - ‘साईं भीख नहीं माँगता, बिस्कुट बेचता हूँ, एक आने के न लो, पाँच पैसे के ले लो। ज़रूर लो, महरबानी करके लो।’

मैंने हाथ छुड़ाकर कहा - ‘इसके लिये तुम इतना ज़ोर क्यों दे रहे हो?’

‘इसके लिए मैं सभी को ज़ोर भरता हूँ!’
‘क्यों?’
‘लोग बिस्कुट नहीं लेंगे तो बापू मार देंगे, अम्मा मारेगी। मैं रोज़ दो रुपये के बिस्कुट बेचता हूँ, सच साईं, घर में फ़क़त मैं ही कमाता हूँ।’
‘तुम सभी से ऐसा ही कहते हो?’
‘कभी-कभी, जो नहीं लेते, उनको। होटल में एक बिस्कुट पाँच पैसे का है, मैं दस पैसे के चार देता हूँ।’

सोचा : क्या मैं अपनी सिंधू को एक पान नहीं खिला सकता? मैंने किसी सोने के हार या अँगूठी का नहीं, सिर्फ़ एक पान का अंजाम किया, सिर्फ़ एक पान का।

चाँद ने जैसे अपनी कशिश गँवा दी। पीपल के आसपास से संगीत के सुर जैसे अचानक गुम हो गए। हवा भी जैसे बेमतलब की लगने लगी। पीपल के पत्तों ने जैसे हवा को धक्के देने की कोशिश की, क्योंकि मैं परेशान था।

‘आज बेहद उदास लग रहे हो?’ सिंधू ने पूछा।
‘.............’
‘क्या तुम्हें खुशी नहीं हुई?’
‘.............’
‘अच्छा बताओ तुम मेरे लिये क्या लाए हो?’
‘.............’
‘आज क्या कोई दर्दनाक नावल पढ़कर आए हो?’
मेरे चेहरे पर एक फ़ीकी मुस्कान आ गई।
‘मुझसे नाराज़ हो?’ वह बिलकुल क़रीब आई। मैं उसके श्वास गिन पा रहा था।
‘तुझसे नाराज़ होकर क्या मैं सुखी रह पाऊँगा?’

उसने एक गहरी साँस छोड़ी और दूसरे पल कहा - ‘मैं आपके लिये केक ले आई हूँ।’
मैं फिर भी चुप रहा।
‘लेकिन मेरा पान?’
‘उसे रहने दो, उसमें रखा ही क्या है?’
‘रखा ही क्या है? क्या नहीं लाए हो?’
‘...............’
‘लेकिन चन्दर? मैंने ऐसा कौन-सा गुनाह किया है, जो तुम मुझे इतनी सजा दे रहे हो।’
मेरा मन जैसे टूटने लगा। प्यार की पहली माँग, जो एक भिखारी भी आसानी से चुका सकता था और जो उसने स्नेह के साथ कबूल भी की थी, मैं पूरी कर नहीं पाया !
मैंने आहिस्ता से कहा - ‘सिंधू, तुम केक लाई हो, मैं बिस्कुट ले आया हूँ।’
‘बिस्कुट मैं नहीं खाऊँगी।’

तब मैंने मुख़्तसर में उस बिस्कुट को खरीदने का कारण विस्तार से उसे बताया।
अवाक्, पलक झपके बिना वह मेरा मुँह देखती रही!

तब अचानक चाँद में कशिश लौट आई, पीपल के पेड़ से संगीत के सुर निकलने लगे, हवा ने पीपल को और पीपल ने चाँदनी को चूमना शुरू कर दिया।

उसने बिस्कुट लेते हुए कहा - ‘तुमने पान न लाकर अच्छा ही किया, मैंने तुमसे कुछ नहीं माँगा और तुमने मुझे क्या दिया, उसका तुम्हें पता पड़ा चन्दर? तुमने मुझे ये बिस्कुट देकर वो कुछ दिया है जो राजा हरिश्चंद्र ने ऋषि विश्वामित्र को भी नहीं दिया होगा।’

 

१ दिसंबर २०१८

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।