कार्तिक
के शुरुआती दिन थे। दिन उजला और धूप गुनगुनी होने लगी थी।
मीलभर कच्ची डगर की धूल फाँकता स्कूल से जब घर लौटा, उस वक्त
मेरी माँ मिट्टी की मूर्तियों के नाक नक्श दुरुस्त करने के काम
में बड़ी तन्मयता से लगी थी। वह यह उबाऊ काम अपने सधे हाथों से
अत्यंत धीमे-धीमे कर रही थी ताकि उनकी आकृति सही सलामत रहे।
खंडित मूरत को कोई कौड़ी के भाव भी नहीं पूछता। तनिक भी
टूट-फूट हुई नहीं कि सप्ताह भर की मेहनत अकारथ। सुडौल और
सुन्दर, आभायुक्त मूरत ही लोगों के घरों के छोटे-छोटे मंदिरों
और बच्चों के घरौंदों में अपना स्थान पाती है। दीपावली नजदीक
थी।
मुझे आता देख गीले मिट्टी से सने हाथ रोक कर माँ मेरी तरफ
देखने लगी।
''क्या हुआ रे मकनू? आज फिर से रोनी सूरत क्यों बना रखी है?
लगता है आज फिर तू परमेसर पासी की ताड़ी जमीन पर उड़ेल आया
है...कि मैं झूठ बोल रही हूँ?"
जवाब में मैं चुप ही रहा और खूँटी से अपना बस्ता लटका कर
हाथ-मुँह धोने कुएँ पर चला गया।
''तो तूने फिर उसका नुकसान कर दिया न? वह मुस्टंडा उलाहना देने
आ रहा होगा। बदले में दो-चार मूरत उठा ले जाएगा. पर हम कर ही
क्या सकते हैं? तेरी कारस्तानी ही कुछ ऐसी होती है कि मैं बेबस
हो जाती हूँ। लाख समझाओ तू मानता ही नहीं। तेरे बाप को पता
चलेगा तो बाँस की छड़ी तोड़ देगा तेरे नंगे बदन पर।"
हे ईश्वर! कैसी औलाद से पाला पड़ा है! वह दु:खी होती अपने आप
से बोली। इस वक्त यह सब सुनने वाला वहाँ सिर्फ मैं ही था।
''तू नाहक परेशान होती है माँ। पिछले शनिचर को परमेसर ने हम
तीनों को चोरी-चोरी एक-एक दोना ताड़ी दी थी। गंगू और विशुन तो
गटागट पी गया पर मुझे उबकाई आ गयी थी। कैसा तो महकता है- अब
कभी नहीं पिऊँगा। पता नहीं कैसे दूसरे इसे पीकर मस्ती में
लोड़काईन गाते हैं- हूँह कैसा गंधाता है री।"
''तो तू सच बोल रहा है न मकनू? तब मुँह क्यों लटकाये हो?
मास्टरनी की मार पड़ी है क्या? पूरा दिन खेल कबड्डी में लगा
रहेगा तो और क्या होगा? धर्मशीला मास्टरनी बहुत कड़क मिजाजी
हैं, तुम लोगों के भले के लिए ही तो डाँटती-डपटती हैं।"
"नहीं माई। वो तो मुझे बहुत मानती हैं। आज बोल रही थीं कि अगले
सोमवार तक दो फोटो कार्यालय में जमा करना है। पर माँ फोटो
खिंचवाने को पैसे कहाँ से आएँगे?"- मैं अपनी चिंता का कारण
स्पष्ट करता माँ से बोला।
खूँटी से टँगा मेरा बस्ता पेण्डूलम की तरह झूल रहा था। झोले पर
पहाड़ उठाये हनुमान न जाने कहाँ से आ रहे थे और उन्हें कहाँ
जाना था? ये मेरी छोटी बहन के काढ़े हुए कसीदे थे। मेरे बस्ते
में किताब-कॉपी की बनिस्बत अल्लम-गल्लम वस्तुएँ अधिक ठुँसी
होती थीं, मसलन पुराने पेपर से हीरो- हीरोईन की फोटो-कटिंग,
डाक की पुरानी टिकटें, प्रेम-पत्र के एक दो चलताऊ मजमून।
"ई फोटो का क्या हो रे मकनू? अभी से सिनेमा-डरेमा में जाने का
मन है क्या? कि कहीं शादी के लिए लड़की वाले को दिखानी है?"
आश्चर्य से मुँह बाए वह बोली और फिर हँसने लगी।
माँ के लिए फोटो खिंचवाना बहुत बड़ी और अजगुत की चीज थी।
''नहीं माई। वो हेडमास्टरनी जी बता रही थीं कि सरकारी वजीफा के
लिए 'कम्पटीशन' देना है। एक प्रखण्ड से दो बच्चों का चुनाव
होगा। प्रत्येक माह सौ-सौ रुपये मिलेंगे वह भी पूरे चार साल!
यानि मैट्रिक तक फ्री पढ़ाई। समझी न?- लेकिन!..." मैं अटकता
हुआ बोला।
''लेकिन क्या?" वह आश्चर्य में पड़ गयी।
"क्लास टीचर बता रहे थे कि शहर के बड़े स्कूल में पढ़ना होगा और
उसी के हास्टल में रहना भी होगा।"
"सौ टका माहवारी! और चार साल तक! क्यों सब झूठा सपना दिखाता है
बेटा? खाने का तो ठिकाना नहीं, स्कूल जाने के लिए ढँग के कपड़े
तक नहीं, क्या पहन के शहर में जायेगा परीक्षा देने? जाने को भी
दस-पाँच चाहिए- कहाँ से आयेगा रुपिया? और बड़े घर के लड़कों के
सामने टिकेगा तू? तेरे पास तो पूरी किताब तक नहीं? उधार
माँग-माँग के तो पढ़ता है। हाथ के गणेश को किरमिच के फटे
टुकड़े पर रखती हुई बेहद निराश स्वर में धीमे-धीमे बोली।"
काम में उसका मन नहीं लग रहा था सो आहिस्ते से उठ कर मेरे खाने
का इंतजाम करने रसोईघर में चली गई।
हाथ-पैर धोकर मैं भी माँ के पीछे हो लिया। रोटी, प्याज और अचार
परोस कर मेरी माँ फिर से चिंता में डूब गई।
''तुम इतनी चिंतित क्यों हो रही माई? अरे पैसे का इंतजाम नहीं
होगा तो न जायेंगे. मुझे तो यह भी नहीं पता कि उस परीक्षा में
क्या पूछा जायेगा? न जाना पड़े सो ही अच्छा! शिव कुमार मास्टर
तो अपने भोंदू भतीजा को भेजना चाहता है जिसे लेकर हेड मास्टरनी
जी से बड़ी बकझक हुई थी। वो बड़ा बदमाश मास्टर है माई! हमेशा
'विलेन' की तरह पान सुपारी चबाता रहता है।"
''सरस्वती कहाँ गई माई? कॉपी में लुकाकर रखे मोरपंखी को चॉक की
बुकनी खिलाता पूछा।"
''वो तेरे जैसी आवारागर्द थोड़े न है। मनोरमा भाभी से
कढ़ाई-सिलाई सीखने गयी है। कह रही थी कि अबकी तुम्हारे बस्ते
के झोले पर बड़ा सा पहाड़ बनाएगी, बर्फ जमी चोटियों वाला!"
"बाप रे! बस्ता तो सँभलता नहीं, और पहाड़ उठाये फिरूँगा? ना,
ये काम हनुमान और कृष्ण जी को ही करने दे माई! वैसे मेरी बहन
है बड़ी होशियार, कहना झोले पर सप्तरंगी तितली या सुग्गा बना
दे। उसके लिए कदंब और खट्टे-मीठे बेर ले आऊँगा- कल ही तो बोल
रही थी। अब गंगू के साथ कबड्डी खेलने जाऊँ?"
''जा- परन्तु पेड़ पर डोल-पात मत खेलना, देखूँगी तो तेरी टांग
तोड़ दूँगी पाजी कहीं का?" माँ चेतावनी देती प्यार से बोली और
संझौत के लिए दिया बाती ठीक करने लगी।
गंगाचरण और विशुन मेरे दो दोस्त थे। गंगा पड़ोसी और विशुन
पड़ोस के गाँव का। गंगू अक्सर बीमार रहता था। गोरे गंगा के गले
में हमेशा कई गंडे-ताबीज टंगे होते थे। दाहिनी बाँह पर भी
देवी-देवताओं के चित्र उकेरे ताम्बे के लॉकेट बंधे थे और डोरा
में परवल के शक्ल की आबूनुसी आकृति लटकती रहती थी। ये सब उसे
कबड्डी खेलने के दौरान परेशान करती थी जिससे वह कभी-कभी
पिनपिना जाता था। ये विचित्र वस्तुएँ ओझा-गुनी और मौलवी-फकीरों
की दी हुई थीं जिसके बारे में उसके माता-पिता को भरोसा था कि
यह मंत्रित वस्तुएँ गंगू को रोग से निजात दिला देंगे।
बीमारी की वजह से गंगू बदशक्ल हो गया था। शरीर पीला और टाँगें
बगूले की तरह लम्बी और सूखी हुईं। हाथ कठपुतलियों सरीखे
निष्प्राण। उसके शरीर से हमेशा किसी आयुर्वेदिक दवाखाने की तरह
की गंध फूटती रहती था। खेलते वक्त वह जल्दी हाँफने लगता।
विशुन क्लास का सबसे ठिगना लड़का था। उसके पास होमवर्क का समय
नहीं होता था और करीब-करीब रोज ही उसे मुर्गा बनना पड़ता या
पूरे घंटी मेज पर खड़ा रहता। उसे अपने बस्ते के साथ-साथ अपने
कूबड़ की बोझ भी ढोनी पड़ती थी। उसके पिता के पास पाँच-छ:
गाँवों के यजमानी का पुश्तैनी धंधा था। कभी-कभार अपने पिता की
पूजा ढोते दूर-दराज के यजमानों के गाँव जाता। इस तरह के काम
में उसका खूब मन लगता ।
मेरे दोनों दोस्त भी मेरे बदौलत आगे की कक्षा में जैसे-तैसे
प्रमोट हो गये। गंगू ने पचास गोलियाँ और विशुन ने अनार के पौधे
देने का वादा किया था लेकिन अब वे मुझसे कटे-कटे से रहने लगे।
दोनों गणित में भले ही कमजोर थे लेकिन दूसरे कई मामले में
मुझसे चालाक और अपने-अपने फन में माहिर थे। गंगू पाँच गज की
दूरी पर रखी काँच की गोली को अपने अँगूठे और मध्यिका से निशाना
साध सकता था तो विशुन अपने बाएँ हाथ से ईंट के टुकड़े से चालीस
फीट ऊँचे दरख्त से भी आम को अचूक निशाना बनाकर उन्हें जमींदोज
कर सकता था। उनकी यही विशिष्टता मुझे उनके प्रति अटूट और गहरे
रिश्ते से जोड़े हुई थी। मेरे पिता का ख्याल था कि मैं उनकी
सोहबत में बिगड़ रहा हूँ, पर माँ को कोई ऐतराज न था। मैं काँच
की गोलियों के अपने खजाने को बहुत छिपाकर रखता था। हालाँकि यह
एक पापपूर्ण और नीच काम लगता था लेकिन ऐसा करना मुझे रोमांच और
अजीब आनंद से भर देता था।
मैं घर से निकल कर ब्रह्म स्थान के पास इमली की छाया में उनकी
प्रतीक्षा करने लगा। हम रोज यही मिलते थे। इमली के छोटे-छोटे
फल पछुआ हवा के झोंके से हिलते-डुलते अपने अस्तित्व का मजा ले
रहे थे। एक- डेढ़ घंटे तक वे कहीं नहीं दिखे। थक-हार कर मैं भी
अपने घर की ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगा। तभी गंगू अपनी काली भैंस की
पीठ पर बैठा नदी की ढलान की ओर उतरता दिखा। वह जोर-जोर से
बिरहा गा रहा था। उसकी आवाज़ लड़कियों की तरह महीन और लयात्मक
थी। चूँकि उसने मुझे धोखा दिया था सो आवाज नहीं दी। छोटी-छोटी
झाडिय़ों वाली पगडंडी से गुजरते समय कुछ दूर डगर पर विशुन भी
अपने पिता के पीछे-पीछे नदी के उस पार वाली बस्ती की तरफ जाता
नजर आया। लगन के दिन थे। वे किसी यजमान के घर विवाह की रस्में
पूरा कराने जा रहे थे। उसके बूढ़े पिता के कंधे से पुराना
गेरुआ पुजापा लटक रहा था और विशुन आम की एक खूब हरी पत्तियों
वाली टहनी कंधे पर साधे पिता के कदम से कदम मिलाता चल रहा था।
हवा के झोंके से उसके माथे की घनी और लम्बी काली चोटी गिलहरी
की पूँछ की तरह लहरा रही थी। उसके पिता के ताने-बाने भी बदले
हुए थे। उन्होंने पियरी धोती और सुनहरे रंग की महीन सिलकन की
बेल-बूटेदार कमीज पहन रखी थी। चौड़े ललाट पर त्रिपुंड उभरे थे
और गले में बड़े दानों वाली रुद्राक्ष की माला लटक रही थी। वे
एक पारंगत और अनुभवी ब्राहमण थे। उनके चेहरे अच्छे भोजन और
भरपूर दान-दक्षिणा की प्रत्याशा में दमक रहे थे। आकाश में सूरज
ने अपनी जगह बदल ली थी और वह क्रमश: बड़ा और लाल होता जा रहा
था। यह निश्चित रूप से साँझ का संकेत था। मैं बौनी झाडिय़ों के
पीछे ओझल होने तक उन्हें देखता रहा। मैं सोचने लगा कि मेरे
सिवा दुनिया अपने-अपने सार्थक कर्मों में व्यस्त है और सिर्फ
मैं ही व्यर्थ की बातों में उलझा हुआ हूँ।
उस रात मुझे कदंब के पीले-पीले फलों के अजीबोगरीब सपने आते
रहे। अगली सुबह मैं स्कूल के लिए घर से निकला लेकिन पहुँचा नदी
की घाटी में स्थित उस एकाकी कदंब की ठाँव। वृक्ष बहुत बड़ा
नहीं था। छितनार डालियों के क्रम इस तरह फूटे थे कि उस पर चढ़ना
आसान था। फलों को देखकर मैं गदगद हो रहा था लेकिन माँ की
हिदायत की वजह से बड़ी देर तक किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा।
मैंने मध्यमार्ग यह निकाला कि ज्यादा ऊँचा नहीं चढ़ूँगा और
निचले हिस्से से दस-पाँच फल तोड़ कर लौट जाऊँगा। माँ पूछेगी तो
झूठ बोल दूँगा कि गंगू ने फल तोड़ा है। वृक्ष देवता को प्रणाम
कर उस पर चढ़ने लगा। मेरे पिता आम तोडऩे के लिए पेड़ पर चढ़ने के
पहले ऐसा ही करते थे। कदंब की जड़ के समीप मेरा बस्ता सुस्ता
रहा था। तीन कदंब तोड़कर अपने जेब में ठूँसे। पर चौथा टप्प से
कंटीली झाड़ी पर गिर गया। मेरी निगाह कदंब का पीछा करती
झाडिय़ों के बीच गयी तो मेरे होश फाख्ता हो गये। मैं गश खाकर
गिरते-गिरते बचा। वृक्ष की जड़ से आठ-दस फुट की दूरी पर जंगली
बेर की डाल पर एक छोटा तीतर बैठा था। उसके एक दो फीट नीचे एक
काला भुजंग, जो चार-पाँच फुट से कम का नहीं था, घात लगाये टंगा
था। कुछ क्षण रूक-रुक कर वह अत्यंत धीमी चाल से तीतर की तरफ
सरके जा रहा था। मैं एकदम से साँस रोके उन्हें देखने लगा। मुझे
लगा कि अब-तब में वह उस निरीह तीतर को अपने जबड़े में दबोच
लेगा। मुझे उस तीतर की निश्चिंतता पर खीझ हो रही थी। मुझे
अकेले आने की अपनी मूर्खता पर अफसोस होने लगा।
साँप इतनी चालाकी और मंथर गति से तीतर की तरफ सरक रहा था कि अब
वह बमुश्किल बित्ते भर की दूरी पर था। भयाक्रांत मेरी आँखें
बंद हो जा रही थीं। मेरी इच्छा हो रही थी कि जेब से एक कदंब
निकाल कर तीतर की तरफ फेंक उसे उड़ा दूँ लेकिन तब शिकार अपने
हाथ से जाता देख साँप कहीं मुझसे बदला न लेने लग जाय। एक बार
गंगू बता रहा था कि साँप आदमी का फोटो खींच लेता है और ताउम्र
वह उसका पीछा करता रहता है- डसे बिना छोड़ता नहीं। गंगू की बात
याद आते ही मैं फिर से काँप गया और अपना मूर्खतापूर्ण इरादा
त्याग दिया। मेरी आत्मा इस कायरतापूर्ण निर्णय के लिए मुझे
धिक्कारती रही। मैं भय के साथ-साथ अपराध बोध से भी ग्रस्त हो
गया। मैं जिस डाल से चिपका बैठा था उसे अंकवार में बाँधे कोशिश
कर रहा था कि लेशमात्र भी हिलडुल न हो।
तभी अचानक तीतर फुर्र हो गया। मेरा मन खुशी से चिल्लाने को हुआ
लेकिन अपने इस जज्बे को साँप के भय से जब्त कर लिया। अब मेरी
एक ही चिंता थी कि किसी तरह पेड़ से उतरकर भागूँ। मुझे देवताओं
को गोहराने वाली प्रार्थनाएँ याद नहीं थी सो अनाप-शनाप
पंक्तियाँ बुदबुदाने लगा। उधर भुजंग निराश मन लिये कदंब की तरफ
सरकने लगा। मेरी धड़कन तेज हो गयी और मैं मलेरिया के रोगी की
तरह काँपने लगा। सफेद बलुआ जमीन पर जंगली बेर के तले रेंगनी के
कटीली लत्तर नीले धब्बे की तरह फैले हुए थे। दोपहरी धूप में
छोटे-छोटे सीप और घोंघे के सूखे हुए खोल धरती की उजली देह पर
जहाँ-तहाँ बिखरे थे। मैं कनखी से काले भुजंग की गतिविधियों का
पीछा कर रहा था। मेरे बस्ते से चार-पाँच कदम की दूरी पर वह
एकदम से हवा में फन काढ़े इधर-उधर की टोह ले रहा था। मुझे लगा
कि उसे मेरी उपस्थिति का आभास हो चुका है।
अचानक कहीं से दो नेवले अवतरित हुए और सीधे साँप पर हमला बोल
दिया। वे इस फुर्ती से उसके फन पर प्रहार कर रहे थे कि उसे
सँभलने या भागने का मौका भी नहीं मिला। फिर भी उन दोनों को
लपटते-झपटते साँप तेजी से घनी झाड़ी की ओर भागा। संभवत: उसकी
माँद उधर ही थी। दुश्मन का दुश्मन से पाला पड़ता देख मैं मन ही
मन खुश हो रहा था। वे नेवले इस वक्त मेरे लिए संकटमोचक साबित
हो रहे थे। मेरी कँपकँपी बंद हो गयी ओर मौके का फायदा उठाकर
मैं तने की ओर सरकने लगा। झाड़ी के पीछे उनका दिखना बंद हो गया
लेकिन रह-रह कर झाड़ी में हलचल हो जा रही थी। उधर दो दुश्मनों
के बीच युद्ध जारी था। कुछ मिनट बाद झाड़ियों की सिहरन थम गयी।
उसके कुछेक मिनट बाद बड़ा नेवला अपने लहु-लुहान थूथन में भुजंग
का एक टुकड़ा दाबे निकला और पश्चिमोत्तर दिशा में पीले टीले की
तरफ चला गया। भुजंग अपनी जंग न केवल हार चुका था बल्कि अपनी
जान भी गँवा बैठा। इस खौफनाक मंजर को देखकर न जाने कहाँ से
मेरे अंदर ऊर्जा का विस्फोट हुआ और मैं पेड़ से कूदकर पलक
झपकते अपना बस्ता उठाकर गाँव की ओर जानेवाले रास्ते पर भागा।
आज से पहले इस तरह की खौफनाक स्थिति से मेरा साबका नहीं पड़ा
था। मौत से यह मेरा पहला सामना था। मैं माँ के डर से बस्ता
रखकर सीधे कुएँ पर हाथ मुँह धोने चला गया ताकि माँ मेरे चेहरे
के भय को न भाँप सके।
''अरे मकनू! तू खेल में इतना मगन रहता है रे बेटा... इम्तहान
सिर पर है और तू स्कूल से आकर शेष दिन आवारा-मवालियों की तरह
डोल पत्ता-कबड्डी खेलने में वक्त जाया करता रहता है रे" मुझे
चुपचाप हाथ पैर धोता देख बोली।
मैं समझा मेरी चोरी पकड़ी गई।
''पूजाघर में मिट्टी की पतीली में बतासे रखे हैं, ले ले। लेकिन
एक ही लेना, दूसरा अपनी छोटी बहन के लिए छोड़ देना।"
''ये बतासे कहाँ से आये माई"- मैं पुलकित होता पूछा।
''अरे सुगिया के आँगन में कुआँ खुदा है न, आज उसमें पानी के
दर्शन हो गये सो इन्द्र भगवान की पूजा हुई थी। उसी का प्रसाद
है।"
''ये इन्द्र काहे का देवता है री माई?" बतासा मुँह में घुलाता
मैंने एकदम से स्कूली प्रश्न कर माँ का मुँह देखने लगा।
''अरे तेरा मास्टर यह सब नहीं पढ़ाता? इतना भी नहीं जानता? बस
खाली मोटी तनख्वाह लेना जानता है?"
''अरी नहीं री, स्कूल में देवी-देवता के बारे में नहीं पढ़ाया
जाता। वहाँ तो राजा-महाराजाओं और आजादी की लड़ाई लडऩे वाले
नेताओं के बारे में बताया जाता है। उन्हीं की तरह बनना सिखाया
जाता है।"
''अरे इन्दर पानी के देवता है, अगर उनकी कृपा न हुई तो दस-दस
पुरसा पर भी पानी के दर्शन नहीं होते, सुगिया के कुआँ में तो
दो पुरसा पर ही खूब मीठा और साफ पानी निकल आया। जितन के कुआँ
में सात पुरसा पर पानी निकला था वह भी खारा।" थक-हार कर माँ ने
विस्तार से बताया।
टमाटर के छोटे-छोटे टुकड़ों, पीसे हुए सरसों तथा हल्दी-धनिया
के गाढ़े घोल से शोरबा तैयार कर माँ बहुत दिनों बाद मछली बना
रही थी। मैं दोपहर के भोजन की आस में माँ के पास ही बैठा था।
''खाना खा कर सीधे मदन ठाकुर के दरवाजे जाकर अपना बाल कटवा
लेना। कहना जरा बढ़िया से काटे - फोटू खिंचवानी है, समझे? वरना
जल्दीबाजी में सबकी मिलिटरी कट बाल काट देता है। कल सबेरे
सत्तु भैया के साथ कंचन कस्बा जाना होगा कहीं और मत खिसक
जाना"- वह तनिक पुलकित होती समझायी।
''अच्छा! तो पैसे का इंतजाम हो गया क्या माँ?" मैं बेहद खुश
था। मेरा आज तक कभी फोटो नहीं बना था।
''इन सब बातों की क्यों चिंता करता है? लेकिन परीक्षा तक सारा
खेल-कूद बंद रखना"- मछली भात परोसती माँ स्नेह से चेतायी। मैं
मछली के रसा में भात सानकर जल्दी-जल्दी खाने लगा। मुझे खेलने
जाने की जल्दी थी।
''जरा संभल के। कहीं मछली के काँटे गले में मत फँसा लेना" माथे
पर पसीने की चुहचुहाती बूँदों को, जो अब छोटी-छोटी परनलिकाओं
में रिसती हुई उसके दीप्त चेहरे को भिगोने लगी थीं, अपने आँचल
से पोंछती हुई बोली।
मैं खुशी के मारे उछलता-कूदता, फोटू के बारे में सोचता आम के
ऊपरी बगीचे की तरफ भागा। वहाँ का नजारा भी बड़ा तमाशों भरा था।
छोटे-छोटे नंग-धड़ंग बच्चे बाईस्कोप देखने के लिए मारा-मारी
मचाए हुए थे। बाईस्कोप वाला एक चवन्नी या एक कटोरा चावल के
बदले पंद्रह मिनट का खेल दिखा रहा था। चलते चित्रों के साथ वह
गाने का एक कैसेट चला देता था। बाद में भीड़ खत्म होने पर वह
दस पैसे में आधा खेल दिखा देता था। मेरी जेबें खाली थी और घर
में बमुश्किल खाने भर के अनाज थे। मन मसोस कर बाईसकोप के
डिब्बे के पिछले हिस्से में लगे गोल-गोल दर्पण में अपना चेहरा
निहारने लगा। मुझे याद नहीं इसके पहले मैंने कब आईने में अपना
चेहरा देखा था। मैं अपने आप में एक दयनीय दृश्य था। एकदम
बेतरतीब बाल, बया के घोंसले की तरह, जिसमें महीनों से न तो
कंघी की थी और न तेल डाला गया था। थूथन लंगूरों की तरह आगे की
तरफ निकले हुए। चाल-ढाल उजड्ड-उजबक वाली। मेरी वर्षों
पुरानी-धुरानी चौकोर चेकदार कमीज मेरे पेट पर खत्म होती थी और
पायजामा मुश्किल से टखनों को ढँक पा रहे थे। मेरे चीकट पैरों
को अब तक जूते- चप्पल नसीब नहीं हुए थे। कुल मिलाकर मैं
चलता-फिरता बिजूखा था।
मुझे अचानक माँ का कहा याद आया और मैं उस तमाशे को छोड़कर मदन
हजाम की झोपड़े की तरफ भागा।
अलस्सुबह माँ मुझे खूब रगड़-रगड़ कर नहलायी और छँटे हुए बाल
में सरसों का तेल डालकर कंघी की। सत्तू भैया के छोटे भाई की
बुशर्ट पहनकर मैं फोटू खिंचवाने के लिए सजधज कर तैयार था।
''फोटू खींचते वक्त पलकें मत झपकाना, नहीं तो तेरी कानी फोटू
आएगी" माँ मेरे चेहरे के अतिरिक्त तैलेपन को अपनी आँचल से
पोंछती बोली।
''पैसे बचे तो मकनू के पैर का हवाई चप्पल खरीद देना। नंगे पैर
शहर जाना अच्छा नहीं लगेगा।" पचास का नोट सत्तू भैया को थमाती
माँ बोली।
''और ये तीन रुपये अलग से रख लो, दोनों जलेबी खा कर पानी पी
लेना लौटने में देर हो जायेगी। दोनों जरा सँभल के जाना। भीड़
में भैया की अँगुली पकड़े रहना वरना बाजार में गुम हो जाओगे।"
माँ आगे भी न जाने कितनी और हिदायतें देती रहीं। मैं सत्तू
भैया की सायकिल के अगले डंडे पर मजे से बैठा कंचन कस्बे की ओर
चल पड़ा।
फोटोग्राफर के अनुसार मेरे बाल में बहुत तेल लगा था जिससे फोटो
के बाल सफेद हो जाते हैं। उसके कहे अनुसार मुझे महादेव मंदिर
के पोखरे के ठहरे हुए हरे रंग के गंदे पानी में साबुन से बाल
धोने पड़े। घंटे भर की मशक्कत के बाद मेरा फोटू उतारा जा सका।
मुझे अब फोटू खिंचवाना बड़ा उबाऊ और कष्टदप्रद कार्य लगने लगा।
इसके प्रति मेरा उत्साह और उत्सुकता एक साथ जाती रही। जल्दी
फोटो देने के बदले उसने पाँच रुपये अलग से झटक लिए- बेईमान
कहीं का!
मुझे उन दिनों काँच की रंग-बिरंगी गोलियाँ इकट्ठी करने का अजीब
जुनून सवार रहता। मैं अक्सर गंगू से गोली के तगादे करता और वह
हमेशा टाल-मटोल करता रहता। एक दिन उसने बताया कि घड़े में उसने
मेरे लिए गोलियाँ इकट्ठी कर रखी थीं उन्हें किसी ने चुरा लिया।
प्रमाण स्वरूप उसने एक फूटी हुई गगरी भी दिखायी। मेरे पास उस
पर भरोसा करने के सिवा और कोई चारा नहीं बचा था। चोरी के लिए
गंगू विशुन की तरफ इशारा कर रहा था। उसके अनुसार इस खजाने के
बारे में गंगू के सिवा केवल वही जानता था। मेरा मन विशुन के
प्रति घृणा से भर गया। उधर एक दिन संयोग से एक पड़ोसी के साथ
मैं अचानक ही विशुन के घर जा पहुँचा। उसे देखकर मुझे अनार के
पेड़ की याद आयी। वह भी रोज आज-विहान पर बात टाले था। वह कुछ
देर मुझे हैरत से घूरता रहा और मुझे वहीं रुकने को कह एक गंदी
और पतली गली में घुस गया। दस पाँच मिनट बाद उसके हाथ में गीली
मिट्टी लिपटा एक अनार का पौधा था। मैं अत्यधिक खुश था और उसके
प्रति गोली चोरी के समय उपजी नफरत खत्म हो गयी।
''इसे रोज समय पर पानी देना, अभी ठीक से जड़ नहीं निकली है
-धूप से भी बचाना।" पौधा सौंपते हुए वह गंभीरता से बोला।
मैं नियमित रुप से खूब तड़के उठकर पौधे में पानी देता और बड़े
गौर से देखता कि नई पत्तियाँ किस तरह निकलती हैं। लेकिन यह
क्या? पौधा दिनों-दिन मुरझाता जा रहा था और अंतत: एक दिन सारी
पत्तियाँ पीली होकर गिर गयीं। जब मैंने पौधा उखाड़ कर देखा तो
भौंचक रह गया! वह धूर्त ब्राह्मण अनार की एक छरहरी शाखा में
मिट्टी बाँध कर मुझे उल्लू बना चुका था।
मेरे दोनों ही बाल मित्र विश्वासघाती निकले जिसका मेरे बाल मन
पर भयानक असर हुआ। मैं दोस्ती से नफरत करने लगा। दोस्तों के
प्रति मेरी सहज और निर्दोष दृष्टि एकदम से नष्ट हो गई। मुझे
दुनिया पापी और अत्यंत दूषित लगने लगी। इसके बाद मैं उनके साथ
खेलने नहीं गया और किताबों में डूबा रहने लगा। अपने आपको
दोस्तों से एकदम अलग कर लिया।
मेरी फोटो बनकर आ गयी। दो स्कूल में जमा हो गईं और एक माँ के
पास थी। सातवीं की फाइनल परीक्षा समाप्त हो गयी और कक्षा के
चार सहपाठियों के साथ हम वजीफा के लिए भी परीक्षा दे आये।
इस बीच मुझे चेतनाशून्य कर देनेवाले तेज बुखार ने आ घेरा।
चेतना के क्षणों में काँच की गोलियों और अनार के पौधे के बारे
में सोचने लगता। मैं बेहद कमजोर हो चुका था। इतना कि मुझे
दीवाल का सहारा लेकर चलना पड़ता था। पूरे दस दिनों बाद बुखार
से निजात मिली और मैं घर के अंदर से आकर दालान में लेटा था।
सामने फसलों के भूरे प्रांतर फैले थे। इन दस दिनों में धान की
बालियाँ पक गई थी। मुझे दुनिया अनदेखी सी लग रही थी, शायद
लम्बी बीमारी के बाद उबरने से ऐसा प्रतीत हो रहा था। दुनिया
सदा की तरह अपने ढर्रे पर चल रही थी। रंग-बिरंगे परिधानों में
सजी स्त्रियाँ अपने माथे पर धान के बड़े-बड़े बोझ रखे खलिहानों
तक ढो रही थीं। बैल और ट्रैक्टर से खाली हो चुके खेत में गेहूँ
की बुआई के लिए जुताई हो रही थी। फेरीवाले गलियों में ये ले
लो- वो ले लो की लयबद्ध हाँक लगाते अपने सस्ते किस्म के सामान
बेच रहे थे। बगीचों में बच्चे टोलियों में बँटकर जाड़े के दिन
के खेल में व्यस्त थे। इन गतिशील गतिविधियों से उठी आवाजें एक
दूसरे से गड्ड-मड्ड हो जा रही थीं। इसके बावजूद मेरे आस-पास की
दुनिया जीवंत थी। एक मैं ही ठहरा हुआ अनुभव कर रहा था।
तभी गाँव से बाहर मंदिर जाने वाली पतली पगडंडी पर गंगू अपनी
माँ के पीछे-पीछे जाता दिखा। उसकी माँ पूजा की थाली लिये
आगे-आगे चल रही थी और उनके पीछे-पीछे पीतल के लोटे में पवित्र
जल थामे थका-थका सा वह चला जा रहा था। लेकिन उसके नंगे बदन पर
गंडे-ताबीज का कहीं नामों-निशान तक नहीं था। यह मेरे लिए बड़ी
रहस्यमयी बात थी। मैंने अनुमान लगाया कि शायद वह बीमारी से
मुक्त हो चुका है, जिससे उन मंत्रित वस्तुओं की अब दरकार नहीं
रही। मेरा मन फिर से काँच की गोलियों में उलझ गया।
अचानक उसी पगडंडी से रामाधर मास्टर धोती सँभाले सरपट इधर ही
आते दिखे। मैं उनके डर के मारे भीतर के कमरे में लुका गया।
''अरे मकनू कहाँ है रे? इधर तो आ!" उनके शब्द आशा के विपरीत
मुलायमियत भरे थे।
उनकी पुकार सुनकर माँ बाहर आयी और थोड़ा घबरायी हुई हाथ जोड़कर
अभिवादन किया।
''मकनू की माँ, मकनू कहाँ है, पहले जरा उसको बुलाओ!" चौकी पर
बैठते हुए मास्टर जी बोले।
''पंद्रह दिन से वह बीमार था सो स्कूल नहीं जा रहा था। कल ही
तो पथ्य पड़ा है" माँ सफाई में बोली। मैं भयभीत आकर माँ की बगल
में खड़ा हो गया। मुझे देखकर वे मेरी ओर लपटे और मुझे गले से
लगा लिया।
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मुझ जैसे टुच्चे छात्र के लिए
कड़क मिजाज मास्टर के दिल में इतना प्यार क्यों उमड़ आया था?
''अरी मकनू की माँ, मकनू को छात्रवृत्ति के लिए चुन लिया गया
है देखो अखबार में नाम छपा है।" पेपर फैलाते वे बोले। हालाँकि
मेरी माँ पढ़ना नहीं जानती थी पर उनके कहे पर विश्वास कर हतप्रभ
सी देखती रही।
इससे मैं भयमुक्त हुआ।
''अब इसे शहर के स्कूल में पढ़ना और उसी के छात्रावास में रहना
होगा। एक दो दिन बाद मकनू को इसके पिता के साथ स्कूल भेज देना।
स्थानांतरण पत्र मिल जायेगा। कल से इसके जाने की तैयारी शुरू
कर दो। दो पैंट, दो जोड़ा कमीज, एक जोड़े जूते खरीद लेना। शुरू
शुरू में थोड़ी दिक्कत होगी, फिर छात्रवृत्ति के पैसे मिलने
चालू हो जाने पर सब ठीक हो जायेगा। इसने स्कूल का नाम रौशन कर
किया है।" मेरा कंधा थपथपाते वे बोले।
गुड़ की चाय पीकर वो चले गये। मैं उन्हें मस्ती भरे कदमों से
चलकर जाते हुए देखता रहा।
मेरी माँ मुझे अपने छाती से लगाकर चूमने लगी। उसकी आँखे खुशी
के आँसू से भरी थीं। मैं शहर के स्कूल में पढ़ने की कल्पना से
खुश हो रहा था लेकिन शीघ्र ही गंगू और विशनु जैसे दोस्तों का
साथ छूटने का गम मेरे हृदय को सालने लगा। उस रोज बहुत से लोग
मेरे माता-पिता को बधाइयाँ देने आये। उनके लिए मेरे पिता
मोदिआईन के यहाँ से एक किलो पेड़ा उधार उठा लाये थे।
मैं अपनी कमजोर काया लिये फिर से बरामदे की चौकी पर आ बैठा।
मेरी माँ और पिताजी मेरी आगे की शिक्षा के बारे में विचार
विमर्श करते रहे। दोनों के चेहरे पर चिंता- फिक्र की लकीरें
खींची थी।
दोपहर बाद गंगू की माँ, जितन चाची उदास और गंभीर चेहरा लिए
मेरे घर आयी।
''अब भगवान का ही आसरा है मकनू की माँ! परसों फोटो के लिए उसे
पटना जाना है। गंगू के पिता आज खूब तड़के भैंस लेकर गोरिया
बाजार गये हैं। भैंस बिके तो गंगू बड़ा डॉक्टर के पास इलाज के
लिए जाए। पता नहीं अभी तक भैंस बिकी भी कि नहीं। एक ही तो भैंस
थी, और कुछ गिरवी उधार के लिए तो था नहीं- क्या करते? गंगू की
जान सलामत रही तो कई भैंस फिर से खरीद लेंगे।" वह बुझी-बुझी सी
आवाज में अपना दुखड़ा सुना रही थी। मेरी माँ भी कम दुखी नहीं
थी।
मैं सातवीं की किताबें एक-एक कर सुरबाला को थमा रहा था।
सुरबाला गंगू की छोटी बहन थी और मेरी बहन सरस्वती की पक्की
सहेली।
''कल शाम को आना मकनू की माँ, देखें कुछ जुगाड़ हो ही जाए हम
तो दुखी हैं ही, तुम्हारी चिंता भी कम नहीं" देवताओं की
मूर्तियाँ पेपर के टुकड़े में सहेजती जितनी चाची बोली।
''लो तुम दोनों भी एक-एक पेड़े ले लो। एक गंगू को भी दे देना-
इधर वह बहुत दिनों से आया ही नहीं। पता नहीं दोनों में क्या
बिगाड़ हो गया है?" सकोरे में पेड़े रख सुरबाला मेरी तरफ देखती
अपनी माँ के पीछे हो ली।
ठंड अपने शबाब पर थी। मैं एक बार फिर से अपने सत्तु भैया की
सायकिल पर सवार पैंट कमीज का माप देने बाजार जा रहा था।
आगे-आगे टायर गाड़ी में बोरे पर लेटा गंगू रेलगाड़ी पकड़ने
स्टेशन जा रहा था। उसके साथ उसके रूग्ण पिता और छोटे चाचा भी
अपना उदास चेहरा लटकाये बैठे थे।
''फोटो खींचते वक्त पलकें मत झपकाना गंगू वरना फोटो काने आ
जायेंगे अपनी माँ की तरह मैंने भी उसे हिदायत दी।" जवाब में वह
लेटे-लेटे मुस्कराने लगा, बोला कुछ नहीं।
''अरे पगले, उसके चेहरे नहीं, छाती की फोटो यानी एक्सरे होगा।
उसमें पलकें सँभालने की नहीं बल्कि दम साधने की जरूरत होती है।
बेचारे की तबियत बहुत खराब है। फोटो देखकर शहर का बड़ा डॉक्टर
इलाज करेगा" सत्तु भैया ने समझाया।
मैं अपनी नादानी पर चुप हो गया और गंगू को देखकर उदास हो गया।
''मैं तेरे लिए शहर से नई गोलियाँ लाऊँगा। पर मकनू तेरे साथ
वहाँ खेलेगा कौन?"
वह तनिक उदास होता बोला और चुपचाप आकाश की तरफ देखने लगा। मुझे
लगा कि वह अपनी डबडबायी आँखों के आँसू रोकने की कोशिश कर रहा
है। मेरा हृदय गंगू के लिए दया से भर गया और एक अजीब हूक मेरे
दिल में उठी। हम टायर गाड़ी से आगे निकल गये।
बड़े दिन की छुट्टियाँ समाप्त होते-होते मेरे शहर जाने की
तैयारियाँ शुरू हो गईं। टीन के एक पुराने संदूक में मेरी
किताब-कॉपियाँ और नये कपड़े करीने से सजाए जाने लगे। जनवरी की
चौथी तिथि को मैं पिता के साथ गाँव छोड़कर शहर के स्कूल की तरफ
चल पड़ा। गंगू दो दिन पहले ही इलाज के लिए दिल्ली जा चुका था।
उसने सचमुच मेरे लिए आधा दर्जन भर काँच की गोलियाँ लायी थीं जो
अपेक्षाकृत बड़ी और सुन्दर थीं। वे इस वक्त मेरे पैंट की जेब
में पड़ी थीं और चलते वक्त चन्न-चन्न बज रही थी।
इसके बाद लम्बी छुट्टियों में ही गाँव जाना हो पाता था। स्कूल
की पढ़ाई पूरी कर उसी शहर के कॉलेज में आगे की पढ़ाई कर ही रहा
था कि एक दोपहरी अचानक माँ की मौत की मनहूस खबर मिली। मैं
एकबारगी स्तब्ध रह गया। लेकिन अब यह हमेशा के लिए सत्य,
निश्चित और हिमालय की तरह अटल हो गया था। मेरे लिए माँ के हृदय
में फूटने वाला पवित्र स्नेह का अथाह झरना अचानक बंद हो गया।
उसके बाद एक-एक महीने के अंतराल पर गंगू के पिता और गंगू भी चल
बसे। अगले वर्ष बचे हुए चार कट्टे जमीन बेचकर सुरबाला की शादी
कर दी गयी. वह पंजाब के किसी शहर में अपने पति के साथ रहने चली
गयी। उसका पति वहाँ की एक फैक्ट्री में काम करता था। और वहीं
बस गया था। जितन चाची निहायत अकेली रह गयी। सरकारी नौकरी करते
एक अर्सा गुजर चुका था। अब गाँव सिर्फ शादी विवाह या श्राद्ध
संस्कार में ही जाना हो पाता था। ऐसे ही पतझड़ के एक मौसम में
सत्तु भैया की बेटी की शादी में गाँव आया हुआ था। बारात आने
में अभी दो दिन की देर थी। मैं दोपहरी में बाँस की छाया में
अपने व्यतीत बचपन के अतीत में खोया खाट पर लेटा था। पास ही
अमरूद तले गायें ऊँघ रही थीं दो बड़े कौए उनकी पीठ पर बैठे थे
और तीसरा घोंसला बनाने के लिए उसकी पूँछ के बाल नोच रहा था।
खपरैल के छप्पर पर फैले कोहरे के लत्तर के बीच फुदकती हुई
श्यामा चिड़िया किसी बात को लेकर शोर मचाए थी। तभी लकुटिया
टेकती एक बूढ़ी काया कहीं से आकर मेरे पास ठहर गयी। उसके शरीर
पर साबुत कपड़े तक नहीं थे और बुढ़ापे का शरीर काँप रहा था।
गौर से देखा - अरे यह तो जितन चाची थी- गंगू की माँ। अभी तक
जिंदा है! मैं खाट से उठ बैठा।
''मकनू है का?" वह लडख़ड़ाती आवाज में पूछी।
पाँव लागी चाची- हाँ, आपका मकनू ही है और क्या हाल है चाची?
हालाँकि उनका लिबास ही उनकी दयनीय दशा बयां कर रहा था- मुझे
अपने सवाल पर अफसोस भी हुआ।
''मेरी दशा तो देख ही रहे हो बेटा। अब तो जिंदगी माँग-चांग कर
आधा पेट खाकर कट रही है। सब चले गये, एक मैं ही धरती का बोझ
बनी बैठी हूँ। गाँव वालों को भी मैं नहीं सुहाती। राम जाने
मेरा दिन कब आएगा?" वह सुबकने लगी।
''अरे ऐसा नहीं कहो चाची। अब एक आप ही तो गाँव घर की सबसे बूढ़
पुरनिया बची हैं। अभी आप सालों-साल जिंदा रहकर गाँव को
आशीर्वाद देती रहेंगी। अभी बहुत जमाना देखना है आपको।"
''क्या खा-पहन के जिंदा रहेंगे मकनू? देह पर एक सलामत साड़ी तक
नहीं। दो-दो दिन अन्न के दर्शन हुए हो जाते हैं।
गंगू के जाने के बाद सब कुछ बिला गया बेटा। मैं तो रात दिन
ईश्वर से अपनी मौत माँगती रहती हूँ पर वह भी मुफ्त में कुछ
नहीं देता। मेरे पास उसके चढ़ावे के लिए एकन्नी तक नहीं!"
शून्य में अपनी पथरायी आँख से निहारती बोली।
''मकनू बेटा, मेरी एक बात पतिआओगे?" अपनी लकुटिया से कच्ची
धरती पर वृत्त बनाती पूछी।
''हाँ, क्यों नहीं? बोलो तो सही चाची।"
बेटा तुम्हारे शहर में पढ़ाई करने जाने के वक्त तुम्हारी माँ
ने मुझसे सौ रुपये उधार लिये थे। लेने को तो वह तेरे फोटू
खिंचवाने के लिए भी लिए थे, पर झूठ क्यों बोलूँ- वह पाई-पाई
चुका दी थी। ऊपर से भगवान की मूर्ति और सुराही भी दी थी। बाकी
सौ में से वह नब्बे ही दे पायी थी। कहती थी कि छ: जमा हो गये
हैं, चार का जुगाड़ होते ही दस रुपये चुका देगी। पर बेचारी
इसके पहले ही अचानक चली गयी। उस जमाने में दस का बड़ा मोल था,
अब तो, उतने में एक गमछा तक नहीं मिलता।
''तो कहना क्या चाहती हैं चाची?" मैं थोड़ी नाराजगी से बोला।
''अरे बेटा! मैं वो दस रुपये नहीं माँग रही पर दरिद्रता जो न
कराये! बेटा, सुना है तू बड़ा साहेब हो गया है। एक मोट महीन
साड़ी ला देता तो मेरी बाकी की जिंदगी इज्जत बचाते कट जाती। अब
और कुछ की चाहत नहीं रही" उसने कलपती हुई मिन्नत की।
''यह झूठ बोल रही है मकनू। सठिया गई है न, यों ही अनाप-शनाप
बोलती रहती है। सारा गाँव इसके बड़बोलेपन से ऊब गया है।" सत्तु
भैया पास ही बैठे थे।
''नहीं भैया! जीवन की साँझ में कोई झूठ नहीं बोलता। हो सकता है
इनकी बातें शत-प्रतिशत सही हों।
''वो सौ रुपये मैंने अपने बीमार गंगू के इलाज के लिए बेची गई
भैंस के पैसे में से चुपके से दिये थे। गंगू ने ही जिद की थी-
बोलता था, मकनू शहर में पढ़कर बड़ा बनेगा तो गाँव का मान
बढ़ेगा। अब वो तो रहा नहीं, और कोई गवाह नहीं है।"
''ओह चाची! सच जो भी हो, तुम चिंता न करो। शाम तक तुम्हारी
साड़ी आ जायेगी। तू मेरी माँ की अच्छी सहेली रही हो और गंगू
मेरा सबसे बढिय़ा दोस्त था। अब तो तुम्हीं मेरी माँ हो।"
'अच्छा बेटा!" अपनी बदकिस्मती ओढ़े वह लकुटिया टेकती चली गयी।
शाम को जब मैं कस्बाई बाजार से लौटा तो चाची के लिए दो जोड़े
साड़ी और जरूरी सामान खरीदता आया।
''जरा इस फार्म पर अपना अगूँठा लगा दो चाची" सामानों की गठरी
सौंपता मैं बोला और कजरौटी खोल कर उनके सामने कर दी।
''ये काहे का अँगूठा बेटा?" मैं कर्ज कहाँ से चुकाऊँगी मकनू?"
''अरे ये हैंडनोट नहीं है चाची- वृद्धावस्था पेंशन के फार्म
हैं- कोशिश करूँगा कि तुम्हारी पेंशन जल्दी शुरू करवा दूँ। पता
नहीं, गाँव के मुखिया सरपंच की निगाह तेरी तरफ क्यों नहीं
जाती।"
उसके महीनों बाद एक दिन मेरे वृद्ध पिता मेरे पास रहने के
ख्याल से आये। उनके साथ एक पुरानी-धुरानी संदूकची थी। मुझे
पहचानते देर नहीं लगी कि यह माँ की संदूकची है जो उन्हें विवाह
के समय मायके से मिली थी।
''ये तेरी माँ की एकमात्र बची चिन्हानी है। इसमें तेरे बचपन की
बहुत सी स्मृतियाँ संजोकर रखी हैं। कहती थी इसे मकनू को दे
देना।"
मैं उस बक्से को अपनी किताबों के रैक पर रखकर भूल गया। तकरीबन
दो सप्ताह बाद ही पिता शहरी जीवन से ऊबकर गाँव लौट गये। मैं
उन्हें जाती हुई साँझ की तरह देखता रह गया। वे उसी साल की ठंड
की भेंट चढ़ गये। गुजर चुके दिन बाँसुरी की उदास धुन की तरह
यादों में रह गये। श्राद्ध कर्म से लौटकर शहर आया तो भयंकर
एकांत ने आ घेरा। एक रविवार की दोपहरी में माँ की संदूकची को
खोलकर उसके अंदर रखी बेशकीमती वस्तुओं को एक-एक कर उलटने
पुलटने लगा। अचानक मेरी निगाह एक गुलाबी रंग के पुराने रूमाल
पर अटक गयी। माँ बताती थी वो बेल बूटे कढ़े रूमाल छोटी मौसी ने
पिता जी को विवाह के समय उपहार में भेंट किये थे। रुमाल की
पोटली बँधी थी। पोटली की गाँठ खुलते ही मेरी वो पुरानी तस्वीर
दिख गयी जो मेरे वजीफा के लिए खिंचवायी गयी थी। उसके नीचे
दो-दो के दो और एक के दो रुपये एक के ऊपर एक रखे हुए थे।
एकबारगी जितन चाची के कर्ज के बाकी दस रुपये का मामला मेरी
आँखों के सामने से गुजर गया। संदूकची में उन छ: रुपयों के
अतिरिक्त मेरी कई स्मृतियाँ- मसलन वो अखबार की कतरन जिसमें
मेरा नाम छपा था, काँच की कुछ गोलियाँ, मेरी लिखी तीन-चार
कविताएँ जो स्कूल की पत्रिकाओं में छपी थीं, जन्म के समय के दो
नन्हें-नन्हें पैंट और बिना बाँह के तीन मलमल के छोटे-छोटे
कुर्ते। इन्हें देखकर मेरी आँखों से आँसू निकल आये। मेरे
माता-पिता ने मेरी स्मृतियों को जिस जतन से संजोये रखा था, उसे
सोच सोच कर मेरा गला भर आया। मैं घंटों अपने जीवन में उभरे इस
शांति और सन्नाटे के फर्क को समझने की कोशिश में उलझा रहा।
बसंत बीत गया। अप्रैल की गर्माहट भरे दिन शुरू हो चुके थे। एक
दिन दफ्तर में सत्तु भैया का फोन आया कि जितन चाची नहीं रही।
उनकी पेंशन शुरू हो गयी थी लेकिन वे उठा न सकीं।
,''हमलोग उनकी अंत्येष्टि के लिए चंदा इकठ्ठा कर रहे हैं मकनू।
तुम भी कुछ पैसे भेज देना, ब्रह्मभोज में काम आयेंगे। तुम्हारी
दी हुई नई साड़ी उनके अंतिम वस्त्र के रूप में काम आ गयी।"
खबर सुनकर मैं ठगा सा रह गया। ''चंदा इकठ्ठा करना बंद कर दीजिए
भईया। सारा खर्च मैं उठाऊँगा। जितन चाची और गंगाचरण का मुझ पर
बहुत बड़ा अहसान है। उनके कर्ज के दस रुपये मुझे चैन से सोने
नहीं देते"
अनजाने मेरा मन उस माँ-बेटे के प्रति कृतज्ञता से भर उठा।
लाल फीतों में बँधी फाइलों को निपटाकर एक तरफ सरकाते हुए मैं
ड्राइवर को सीधे गाँव चलने का हुकुम देकर दफ्तर से बाहर निकल
आया। |