प्रदीपकुमार सिंह कुशवाह
की लघुकथा-
नवरात्र
*
पर्व परिचय में-
लोक पर्व
टेसू-झाँझी
*
सुधा अरोड़ा का दृष्टिकोण-
स्त्रीशक्ति की भूमिका से उठते सवाल
*
नवरात्र के अवसर
पर-
जितेन्द्र चौधरी का आलेख-
नवरात्रि में
नव-दुर्गा
*
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
नासिरा शर्मा
की कहानी-
असली बात
शहर
में फसाद हुए आज पहला ही दिन था। हिंदू-मुसलमान मोहल्लों के
बीच तमतमाती हवा बह रही थी। प्रशासन ने मौके की नजाकत देख कड़े
पहरे और बंदूक के जोर पर उनके जोश पर रोक जरूर लगा दी थी, मगर
अंदर खदबदाते लावे को शांत नहीं कर पाए थे। खाली सड़क और गली
में पुलिस की गश्त के बावजूद गुनजान घरों की छतों से कभी-कभार
सनसनाती बोतलों और अद्धों का आदान-प्रदान जारी था, जिसका पता
लगाना पुलिस के लिए मुश्किल था कि किस घर से हमला किस घर पर
हुआ है। सो गोलियों की बौछार और हवाई फायर के दबदबे ने या फिर
कबाड़ा खत्म हो जाने के कारण दोनों मोहल्लों में रात के आखिरी
पहर के लगभग खामोशी छा गई। सिपाही रामदीन की ड्यूटी बताशे वाली
गली में लगी थी। आज दंगे का दूसरा दिन था। पूरा शहर होशियार की
मुद्रा में खड़ा था। नए एस.पी. ने कड़े आदेश देते हुए
पुलिसकर्मियों से साफ शब्दों में कहा था कि तुम्हारी ड्यूटी है
कि कोई घटना न घटे, वरना सबको लाइन हाजिर करवा दूँगा।
आगे...
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