| 
					
					 शहर 
					में फसाद हुए आज पहला ही दिन था। हिंदू-मुसलमान मोहल्लों के 
					बीच तमतमाती हवा बह रही थी। प्रशासन ने मौके की नजाकत देख कड़े 
					पहरे और बंदूक के जोर पर उनके जोश पर रोक जरूर लगा दी थी, मगर 
					अंदर खदबदाते लावे को शांत नहीं कर पाए थे। खाली सड़क और गली 
					में पुलिस की गश्त के बावजूद गुनजान घरों की छतों से कभी-कभार 
					सनसनाती बोतलों और अद्धों का आदान-प्रदान जारी था, जिसका पता 
					लगाना पुलिस के लिए मुश्किल था कि किस घर से हमला किस घर पर 
					हुआ है। सो गोलियों की बौछार और हवाई फायर के दबदबे ने या फिर 
					कबाड़ा खत्म हो जाने के कारण दोनों मोहल्लों में रात के आखिरी 
					पहर के लगभग खामोशी छा गई। 
 सिपाही रामदीन की ड्यूटी बताशे वाली गली में लगी थी। आज दंगे 
					का दूसरा दिन था। पूरा शहर होशियार की मुद्रा में खड़ा था। नए 
					एस.पी. ने कड़े आदेश देते हुए पुलिसकर्मियों से साफ शब्दों में 
					कहा था कि तुम्हारी ड्यूटी है कि कोई घटना न घटे, वरना सबको 
					लाइन हाजिर करवा दूँगा और जो कोई संदेहात्मक स्थिति में दिखे 
					उसे गोली मार दो। इस आदेश के बाद सिपाही रामदीन घरों के अंदर 
					की भी सुनगुन लेने की कोशिश करता सुबह से गली के कई चक्कर लगा 
					चुका था। अब सुस्ताने के लिए वह लैंपपोस्ट से टिककर खड़ा हुआ और 
					मुँह में बीड़ी लगा लंबे-लंबे कश लिए।
 
 "भैया जी! बच्चा गरमी से हलकान हो रहा है - जरा खुली हवा में 
					टहला देते।"
 दरवाजे की ओर से जनाना आवाज सुन सिपाही रामदीन चौंक पड़ा। बीड़ी 
					फेंक आगे बढ़ा। उसने बंद दरवाजों और खिड़कियों को घूरा और मन ही 
					मन झल्लाया। खुले दरवाजे़ से दो हाथ एक बच्चे को बढ़ाते दिखे। 
					काले-कलूटे, नंग-धड़ंग रोते बच्चे को आगे बढ़कर रामदीन ने सँभाला 
					और चुटकी बजा उसे बहलाने लगा।
 
 "यह चकल्लस कब से लगाए हो?" दूसरी गली का कांस्टेबिल मोड़ पर 
					खड़ा हो मुस्कराया, जिसका कोई जवाब रामदीन ने नहीं दिया। बच्चे 
					का सारा बदन घमौरियों से भरा था जिनकी चुनचुनाहट से बेहाल वह 
					मुँह फाड़े आलाप लगाता रहा। रामदीन ने सीटी बजाई और हाथ का डंडा 
					'खट-खट' जमीन पर मारता आगे बढ़ने लगा। मकान की दोतरफा कतारों के 
					बीच फँसी गली तंग थी, मगर गरमी के बावजूद वहाँ हवा का गुजर था। 
					थोड़ी देर बाद लड़का शांत हो गया और सिपाही की सीटी से खेलता 
					उसके कंधे पर सिर रख सो गया।
 
 "यह साला भी मामा की गोद समझ ठाठ से सो रहा है। इससे पहले कि 
					वर्दी खराब करे, इसको इसकी माँ को वापस कर देना चाहिए।" रामदीन 
					ने प्यार से काले-कलूटे लड़के का मुँह ताका और दरवाजे पर पहुँच 
					डंडा बजाया।
 "कब तक कर्फ्यू खुलेगा, भैया जी?" औरत ने दरवाजे की चौखट से 
					हाथ बढ़ा बच्चे को उठाया।
 "लड़ते वक्त तो तुम लोग सोचते नहीं हो, अब हम का बताएँ!" रामदीन 
					का खीजा स्वर उभरा।
 
 "अब जहाँ चार बरतन साथ होंगे तो वहाँ टकराहट तो होगी न, भैया 
					जी!" औरत का मद्धिम स्वर गूँजा।
 
 रामदीन सिपाही का आज तीसरा दिन था। उसे लगने लगा था कि तनाव 
					लगभग अपनी मौत मर चुका है, मगर दरवाजे-खिड़कियाँ पुलिस के डर से 
					इस गरमी में भी किसी ने खोले नहीं हैं। कल शाम को कोने वाले घर 
					से जोर की रुलाई फूटी थी। बहुत पूछने पर भी जब अंदर खामोशी छाई 
					रही तो रामदीन हनुमानगढ़ी की तरफ तैनात दो सिपाहियों को सीटी 
					बजा बुलाने पर मजबूर हो गया। तीनों के दरवाजा तोड़ने की धमकी पर 
					अंदर से आवाज आई कि, 'दादी गुजर गई हैं।'
 'तो इसमें छुपाने की कौन-सी बात है?'
 
 थाना इत्तला भेजी गई। खुद सुखबीर और परशुराम हवलदार ने बाहर से 
					सांत्वना दी तो भी दरवाजा नहीं खुला। कर्फ्यू हटने के समय 
					कफन-दफन जो भी घंटे-भर में कर सकते थे, उसे अंजाम दे वे फिर 
					दरवाजा बंद कर बैठ गए। रामदीन के नरम व्यवहार ने दिलों से डर 
					कम नहीं किया और न किसी ने उसकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा 
					चाय-पानी को ही पूछा। 'उसका तो कर्तव्य है', यह सोचकर रामदीन 
					ने कंधे उचकाए। आखिर आदमी ही तो समय पड़ने पर आदमी के काम आता 
					है। अब यह विधवा तंबोलन है, दो माह पहले पति ट्रक से दब मर 
					गया, अकेली है। मदद माँगती है सो कर देता हूँ। मगर बाकी लोग 
					पुलिस की गोली से इस तरह भयभीत हैं जैसे पहले कभी दंगा-फसाद 
					किया न हो।
 
 रामदीन को चार दिन पहले की घटना याद आई। जहाँ दोनों मोहल्लों 
					की गलियाँ एक-दूसरे को काटती सड़क पर मिलती हैं, वहाँ एक बूढ़ी 
					मस्जिद है। उसी से मिला हुआ प्याऊ है जो सूख गया है, मगर 
					बैठकबाजी खत्म नहीं हुई है। वहीं पर हनुमानगढ़ी है, जहाँ पर 
					आना-जाना लगा रहता है। पीपल के पेड़ पर हनुमान जी का पुराना 
					मंदिर है। अकसर छोटी-मोटी वारदातें उसी दोराहे से उठकर आसपास 
					तनाव पैदा करती हैं। उस दिन भी वही हुआ। लाइट दो-तीन घंटे से 
					थी नहीं, गली अँधेरे में डूबी थी। एकाएक चीख-पुकार से वहाँ खड़ा 
					परेशान सिपाही समझ नहीं पाया कि शांत माहौल में ऐसा क्या हुआ 
					जो लोग रोने-चिल्लाने लगे हैं। खबर मिलते ही थाने से टॉर्च ले 
					चार-पाँच हवलदार दोराहे पर पहुँच गए। पूछने पर कि आखिर हुआ 
					क्या, जितने मुँह उतनी कहानियाँ। भीड़ अँधेरे में जमा भी हुई और 
					छँट भी गई। जो लोग पुलिस के हत्थे चढ़े, उनसे कोई बात वे उगलवा 
					न सके। तंग आकर प्रभारी ने बताशे वाली गली और हनुमानगढ़ी में 
					कर्फ्यू लगवा दिया और हिदायत दी, 'कड़ा पहरा और सख्त बरताव शहर 
					के उन सभी संवेदनशील इलाकों में बरता जाए, ताकि बदमाश अपनी 
					चौकड़ी भूल जाएँ।' सब समझ चुके थे कि नया अफसर सख्त है, किसी की 
					सुनता नहीं है, जवान है और कानून का मतवाला है। मगर शहर के 
					खाए-पिए अधेड़ बदमाशों के हाथ खिलौना लग गया था, उसे चिढ़ाने और 
					तपाने में उन्हें मजा आने लगा था। जो समाज हरदम बारूद के ढेर 
					पर बैठा हो वहाँ ऐसी दिल्लगी कितनी महँगी पड़ सकती है, इस बात 
					की गंभीरता समझना उनका काम नहीं था। अनुभवी दरोगा ताड़ गए थे कि 
					इस हंगामे में भी उन्हीं की खुराफात का हाथ है, तभी कुछ हाथ 
					नहीं लगा। इस बात को वह अफसर से कह नहीं सकते थे, वरना उलटा 
					उन्हें ही लताड़ पड़ती कि भारतीय पुलिस की हैसियत यह हो गई है कि 
					गुंडे-बदमाश उनसे मसखरी करें!
 
 नवरात्र शुरू होने वाला था। शहर में रौनक लगनी शुरू हो गई थी। 
					लाउडस्पीकर से भजन, कीर्तन, ऐलान सुनकर हनुमानगढ़ी वाले जितना 
					कुढ़ रहे थे, उनसे ज्यादा बताशे वाली गली के हलवाई, माली और 
					उनसे अधिक झुग्गी-झोंपड़ी वाले खुश, जो इस आशा में साल-भर रहते 
					हैं कि शक्तिपीठ में नवरात्र शुरू होने के साथ भंडारा खुल 
					जाएगा और उन्हें भरपेट स्वादिष्ट खाना खाने को मिलेगा, जिससे 
					वे चार पैसे बचा पाएँगे। मगर बैठे-ठाले यह कर्फ्यू की मुसीबत 
					तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है।
 
 पुलिसवालों को अंदाजा हो गया था कि तनाव दम तोड़ गया है, मगर 
					अफसर तो सबकी कमर की हड्डी तोड़ने का प्रण ले चुका था, दोनों 
					मोहल्लों के गरीबों ने पछताना शुरू कर दिया था। सुस्ती अब 
					उदासी में बदल गई थी। मजदूर ने मजदूरी से हाथ धोए, दुकानदारों 
					ने ग्राहकों से। चूल्हे तो घर-घर दूसरे दिन से ही ठंडे पड़ने 
					लगे थे। कर्फ्यू खुलता भी घंटे-भर को तो खरीदारी की सकत किसमें 
					थी? बताशों के बिना हनुमान जी का मंदिर सूना पड़ा था। 
					चींटे-चींटियाँ अलबत्ता बताशों का चूरा ढो-ढोकर बिल भर रहे थे। 
					आखिर कुछ दुकानदारों ने सलाह-मशविरा कर एस.पी. को मनाने की बात 
					सोची और कर्फ्यू खुलते ही सीधे थाने पहुँचे तथा विपदा कह 
					सुनाई।
 
 "घर-घर फाका है, न काम है, न रोटी, न खरीदार, न मुनाफा। ऐसी 
					स्थिति में अब हमारी गलती माफ करें। सजा बहुत हो गई, महाराज!"
 "वह सब ठीक है, मगर इस बार कर्फ्यू तभी हटेगा जब आपस में लड़ना 
					छोड़ोगे।"
 "यह तो बड़ी मुश्किल शर्त है। हम तो ठहरे अहिंसा के पुजारी, मगर 
					उधर वालों से राम बचाए।" छक्कू स्टोर वाले ने कान को हाथ 
					लगाया।
 "बहुत सीधे हो, लाला, तुम - बात-बात पर धमकी कौन देता है!" 
					मुन्ना बढ़ई बिगड़ गया।
 "देखा, बिना किसी कारण मेरे सामने भी शुरू हो गए! भागो यहाँ 
					से, वरना सबको दंगा फैलाने के जुर्म में लॉकर में बंद करा 
					दूँगा - रामसिंह! आज से कर्फ्यू एक घंटे की जगह सिर्फ आधा घंटा 
					खुलेगा। अभी इनका दिमाग ठंडा नहीं हुआ है।"
 
 यह खबर छोड़े हुए तीर की तरह दोनों मोहल्लों में जाकर लोगों के 
					दिल व दिमाग में बिंध गई। लपकते-दौड़ते झुंड के झुंड लोग 
					सिरफिरे प्रभारी के पास पहुँचे और मिन्नतें करने लगे। प्रभारी 
					पांडेय ने मिलने से इनकार कर दिया। थाना बाहर से घिरने लगा था। 
					उसने ऊपर छत से ऐलान कर दिया कि जो चाहे आप लोग करें, प्रभारी 
					बात नहीं सुनेंगे, क्योंकि उनका विचार है कि आप सब यहाँ आपस 
					में अपने-अपने को गामा और रुस्तम पहलवान समझकर कुश्ती लड़ लें। 
					सुनकर लोग मन ही मन पछता उठे कि आखिर किसलिए उन्हें यह दिन 
					देखना पड़ रहा है? घरों में रोटी नहीं, काम पर कोई गया नहीं। 
					बताशा उधर वालों ने बनाया नहीं, इधर वालों ने उसे शहर ले जाकर 
					बेचा नहीं। इस परेशानी में 'सुलेमान भाई' और 'राजू भैया' कहकर 
					सब एक-दूसरे को सफाई देने लगे कि भला हमने कभी दुश्मनी निभाई 
					आपस में? पता नहीं कौन है जो यह सब करता है और गेहूँ के साथ 
					घुन भी पिसता है। आधे घंटे की नाक रगड़वाई के बाद एस.पी. को 
					यकीन हो गया कि अब लोहा गरम है और सबने 'किसी और' को अपने अंदर 
					से पकड़ लिया है। कल पहचान भी लेंगे। प्रभारी द्वारा ऐलान 
					करवाया गया कि इस शर्त पर कर्फ्यू अभी इसी समय हटाया जा रहा है 
					कि अब कोई दंगा-फसाद नहीं होगा, वरना -
 "नहीं होगा, नहीं होगा।" ऐलान के बीच ही लोग चीखने लगे और उसी 
					जोश में बाकी बात सुने बिना घरों को लौटने लगे।
 
 कल शाम से तंबोलन के लड़के को बुखार हो गया था। अब कर्फ्यू हटा 
					तो जेब में फूटी कौड़ी नहीं, फिर डॉक्टर या अस्पताल जाए कैसे? 
					कुछ सोचकर सूफी बाबा की दरगाह की तरफ चल पड़ी कि वहाँ के 
					मुजाविर से विनती कर फुँकवा लेगी। दवा न सही, दुआ तो असर कर 
					सकती है। तौलिये में लपेट बेटे को लेकर जब दरगाह पहुँची तो शाम 
					ढल गई थी। भीड़ आज गजब की थी। किसी तरह बच्चे को बचाती अंदर 
					दाखिल हुई। चबूतरे के सामने बच्चे को लिटाकर माथा टेका और 
					बेकरार नजरों से बड़े मुजाविर को ढूँढ़ा। नमाज खत्म हो गई थी। 
					हारमोनियम उठाकर कव्वाल अपनी जगह ले चुके थे। धीरे-धीरे करके 
					मजमा बढ़ने लगा और कव्वाली शुरू हो गई। एक-दो रुपए की भेंट 
					हारमोनियम के सामने रख लोग झूमने लगे। वातावरण में एक शांति की 
					छटा-सी फैलने लगी। उसी बीच उसने देखा कि मुजाविर साहब अंदर से 
					आ रहे हैं। वह लपकी, साथ ही एक गेरुए कपड़े वाला संन्यासी भी 
					उठा।
 
 "लो, सँभालो।" मुजाविर ने आठ-दस बंडल अगरबत्ती के उस आदमी को 
					थमाए।
 "यह रखो! कल से शुरू करवा देना। अब मैं चलता हूँ।" रुपए 
					मुजाविर के सामने रख, अगरबत्ती झोले में डाल गेरुए कपड़े वाला 
					मुड़ा और शीश नवा बाहर की तरफ चला गया।
 "भूख से अधमरा मेरा बेटा कल से बीमार है, मुजाविर साहब!" जवान 
					तंबोलन देखते-देखते बूढ़ी लगने लगी।
 "घबराने की बात नहीं।" मुजाविर ने बच्चे के सिर पर हाथ फेरा और 
					सीने पर कुछ पढ़कर फूँका। फिर पास पड़े इलायचीदानों के पैकेटों 
					के ढेर से एक उठा तंबोलन को दिया।
 तंबोलन बच्चे को उठा दूसरी तरफ सरक गई और बेचैन हो उसने पैकेट 
					को खोला और एक दाना बेटे के मुँह में डाला, जिसे वह फौरन चूसने 
					लगा - और खुद अपने मुँह में पाँच-छह दाने डाले। दो दिन बाद 
					जबान को खाने का स्वाद मिला था, जिसने भूख पर लगा प्रतिबंध तोड़ 
					दिया था। तंबोलन का भूख के मारे बुरा हाल हो गया। उसी के साथ 
					उसे चक्कर महसूस हुआ कि कल दुकान खोलने के लिए कत्था, चूना, 
					सुपारी, पान कहाँ से लाएगी? इस हालत में किसी से कुछ माँगना भी 
					मुश्किल है। सभी की जेबें खाली हैं। उसने शुक्रिया-भरी नजरों 
					से मुजाविर को ताका और इलायचीदाने की फाँकी मुँह में डालने 
					वाली थी कि उसका हाथ मुजाविर के चेहरे पर दौड़ते गुस्से को देख 
					बीच में ही रुक गया, जो सामने बैठे दो-तीन लोगों को दबी जबान 
					से फटकार रहे थे।
 
 "हाँ-हाँ, यहाँ टीले वाले मंदिर के महंत आए थे। मजार से छुली 
					अगरबत्तियों का पैकेट ले गए हैं और नवरात्र के नौ दिन तक मजार 
					पर कुरानख्वानी करवाने के लिए ये पैसे भी दे गए हैं - फिर? यह 
					उनका एतकाद है। बचपन से वह आते रहे हैं। यह रिश्ता तब से बना 
					है जब तुम लोग पैदा भी नहीं हुए थे। उनकी ख्वाहिश रहती है कि 
					सूफी बाबा के मजार की तरह उनके मंदिर से कोई गरीब निराश न लौटे 
					तो इसमें तुम्हारी दखलअंदाजी का क्या मतलब है? पीर-औलिया 
					इनसानों में फर्क नहीं करते। यह दर सबके लिए खुला है - 
					अमीर-गरीब, हिंदू-मुसलमान, छोटा-बड़ा। खबरदार, जो फिर कभी अपनी 
					जाहिलाना राय मुझे देने यहाँ आए!"
 
 आसपास के लोगों के कान खड़े हो गए। तीन-चार मर्द बड़ी शालीनता से 
					उनको जाने का इशारा कर तब तक खड़े रहे जब तक वे दोनों हाथ जोड़, 
					सिर झुका बाहर की तरफ नहीं बढ़े।
 कुछ देर बाद बड़ी पतीली और रोटी उठाए कुछ औरत-मर्द दाखिल हुए, 
					जिनको देख दीवार से लगे मर्द-औरत अपना कटोरा ले आगे बढ़ने लगे। 
					उनकी मुराद पूरी हुई थी। तंबोलन भी प्रसाद के इंतजार में आगे 
					की तरफ खिसकी, मगर अफसोस, जब तक उसकी बारी आई तब तक रोटियाँ और 
					शोरबा खत्म हो गया था। वह निराश-सी उठी और बेटे को उठाकर बाहर 
					सड़क पर आ गई, जहाँ फकीरों की भीड़ होटलों के सामने बैठी थी। भूख 
					से बेताब होकर उसके कदम मुड़े, मगर फिर वह ठिठककर खड़ी हो गई कि 
					वह तंबोलन है, फकीरन नहीं। कल तक भूखी रह सकती है।
 
 दूसरे दिन बेटे का बुखार तो उतर गया था, मगर होंठों पर पपड़ी जम 
					गई थी। पानी पिला-पिलाकर वह कब तक उसे जिंदा रख सकती थी। शाम 
					ढले जब भीड़ को टीले की तरफ जाते देखा तो वह भी चल पड़ी। कुछ दूर 
					चलकर फिर उसके कदम रुकने लगे कि वह तो - वहीं टीले के नीचे बैठ 
					हसरत से भीड़ को ऊपर जाते और खुश-खुश लौटते देख वह अपने को रोक 
					नहीं पाई। ऊपर पहुँच उसने देखा कि वही संन्यासी सबके पत्तलों 
					में खाना डालता आगे बढ़ रहा है। उसके आठ-दस साथी सबकी आवभगत में 
					लगे हैं। गंदे, चिथड़े वाले कपड़े पहने बूढ़े, बच्चे, मर्द, औरत 
					खाना खा रहे हैं। उसकी आँखें भीगने लगीं। वह मुड़ी और टीले से 
					उतरने को हुई कि तभी पीछे से आवाज आई, "माँ, भंडारे की रोटी तो 
					चखती जाओ - आओ, इधर आओ - यह तो तुम्हारा अधिकार है।"
  
 तंबोलन ने घबराकर पीछे देखा। आग्रह में इतना प्यार था कि वह 
					उधर ही बढ़ गई। पत्तल पर एक साथ कई व्यंजन देख उसे अजीब लगा। 
					पेट भरकर जब वह उठी तो उसे अपने स्तन बहुत भारी लगे। हाथ धो वह 
					कुछ दूर पेड़ के नीचे बैठ बेटे को दूध पिलाने लगी। एक असीम सुख 
					में डूबते हुए उसने सोचा, 'रोटी में कितनी ताकत है! जब चाहती 
					है, बाँट देती है और जब चाहती है, एक कर देती है।'
 |