लोकपर्व टेसू - झाँझी
- शिवचरण चौहान
टेसू - झाँझी पर्व भारत के कई प्रदेशों में विजयदशमी
(दशहरे) के दूसरे दिन एकादशी से पूर्णिमा तक मनाया
जाता है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान,
गुजरात, बिहार, मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में टेसू
और झेंझी का पर्व मनाया जाता है और गीत गाए जाते हैं।
गाँवों, कस्बों में शाम होते ही चाँद के निकलने के साथ
बच्चों की टोलियाँ टेसू गीत गाते हुए निकल पड़ती हैं।
बालिकाएँ सिर पर मिट्टी का छोटा घड़ा या करवा, जिसमें
करीब एक दर्जन छेद होते हैं, जिसे कहीं झुँझिया तो
कहीं झाँझी कहा जाता है, लेकर निकलती हैं। झुँझिया के
भीतर कड़वे तेल का दीपक जलाकर रखा जाता है। लड़कियाँ
नाचते-गाते झुँझिया गीत गाते हुए निकलती हैं। टेसू की
तरह झुँझिया भी घर-घर जाती है और मंगल गीत गाए जाते
हैं।
चाँदनी रात में गाँव के खुले स्थान पर गाँव भर के
बड़े-बू़ढे, बच्चे व लड़कियाँ इकट्ठा होते हैं, जहाँ
पर टेसू राजा व झुँझिया रानी का विवाह कराया जाता है
और रात में ही उन्हें गणेश प्रतिमाओं की तरह गंगा में
विसर्जित कर दिया जाता है। टेसू को मिट्टी से बनाया
जाता है। कहीं-कहीं बाँस के टुकड़े में मिट्टी की एक
छोटी मटकी बाँधकर उसके आँख, कान, नाक, मुँह तथा
बड़ी-बड़ी मूँछें लगाकर टेसू बनाया जाता है। टेसू को
कुरता-पाजामा पहनाया जाता है। कहीं-कहीं पैंट-शर्ट में
सजे टेसू भी बनाए जाते हैं। इसके अलावा गत्ते व पुआल
के टेसू भी बनाए जाते हैं। टेसू को कहीं-कहीं
'गड़बड़ा` भी कहते हैं। टेसू लड़कों की टोलियाँ
निकालती हैं, जबकि झुँझिया लड़कियों के सिर पर चलती
हैं। वैसे तो अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग टेसू गीत
प्रचलित हैं।
लोक-साहित्य-
उत्तर प्रदेश में भोजपुरी, ब्रज, अवधी भाषा में जो
टेसू गीत गाए जाते हैं, वे मिलते-जुलते हैं। भोजपुरी
बच्चों की टोली चाँदनी रात में जब घर-घर टेसू को लेकर
जाती है तो टोली के बच्चे गाते हैं-
टेसू हो तुम वामन वीर, हाथ लिये सोने का तीर।
बजरंग बेटा खड़ा निशान, बाएँ हाथ चला पहिचान।।
हरे बाग मा डेरा परिगा, सब लोगों ने पूँछी बात।
कितना लोग तुऔहारे पास, अस्सी पियादे, नौ असवार।।
कुछ क्षेत्रों में दूसरा टेसू गीत गाया जाता है-
इमली की जड़ से उड़ी पतंग, नौ सौ मोती एकै रंग।
रंग-रंग की बनी कमान बाणों से भरिगा खलिहान।।
भइया भइया कहाँ जइहौ? पांडव जितावैं।
हथिया मारी लाता। जाय परे गुजराता।।
करी कृष्ण कै सेवा। गुर्जर कै दुई चार परेवा।।
टेसू के दुई-वार मजीरा। दोऊढ नाँचें गंगा तीरा।।
गंगा तीरे आई ताई। चिकन बकरिया चिकवै जाई।।
कुछ कंजूस लोग जब बच्चों की टोली को चंदे के रूढप धान,
ज्वार, बाजरा, मक्का या पैसा नहीं देते हैं तो बच्चों
की टोली गाने लगती है- टेसू अचल करैं टेसू मचल करैं।
टेसू लई कै टरैं।।
ऐतिहासिक उल्लेख-
टेसू गीतों से लगता है कि टेसू कोई पराक्रमी योद्धा
था, जो युद्ध के लिए जा रहा है। जनश्रुति के अनुसार
पाँच पांडवों में भीम के पुत्र घटोत्कच के पुत्र
बर्बरीक को ही टेसू कहा गया है। महाबली भीम ने वनवास
के दौरान एक राक्षसी हिडिंबा से विवाह किया था।
हिडिंबा से एक पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम घटोत्कच था।
घटोत्कच का ही पुत्र था 'बर्बरीक`। कहते हैं, जब
महाभारत का युद्ध शुरूढ होने जा रहा था तो घटोत्कच व
बर्बरीक भी अपनी फौजें लेकर पांडवों के लिए पहुँचे।
बर्बरीक बहुत बलवान्, किंतु घमंडी था। कहते हैं, वह
युद्ध में शत्रु या मित्र जिसका भी पक्ष कमजोर देखता
था, उसी की तरफढ से युद्ध करने लगता था। श्रीकृष्ण
बैठे महाभारत युद्ध की रणनीति तैयार कर रहे थे तो
बर्बरीक की डींगें अर्जुन से बरदाश्त नहीं हुईं।
उन्होंने गुस्से में आकर बर्बरीक का सिर काट दिया।
बर्बरीक के कटे हुए सिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से
प्रार्थना की कि वह उसे ऐसी शक्ति प्रदान करें, जिससे
वह युद्ध देख व समझ सके। श्रीकृष्ण ने उसे दिव्य शक्ति
प्रदान की तथा उसके सिर को बाँस में टँगवा दिया। जहाँ
से वह पूरा युद्ध देख सके।
महाभारत का युद्ध अठारह दिन तक चला। पांडव विजयी हुए।
सभी डींगें हाँक रहे थे कि युद्ध उनके पराक्रम से जीता
जा सका है। विवाद बढ़ा तो मामला श्रीकृष्ण तक पहुँचा।
श्रीकृष्ण ने कहा, ''सारा युद्ध बर्बरीक के सिर ने
देखा है, उसी से निर्णय करा लो।`` पाँचों भाई बर्बरीक
के पास पहुँचे और निर्णय देने को कहा। बर्बरीक बोला,
''घमंड बहुत बुरी चीज है, यदि मैं घमंड न करता तो मेरी
यह हालत न होती। अब आप मेरा विवाह व अंतिम संस्कार कर
मेरी आत्मा को शांति प्रदान करें।`` युधिष्ठिर बोले,
''तुम्हें उपदेश देने के लिए नहीं, निर्णय सुनाने को
कहा गया है। निर्णय करो।`` ''तो सुनो``, बर्बरीक बोला,
''तुम लोगों के पराक्रम से नहीं, युद्ध कृष्ण की नीति
से जीता जा सका है। तुम नाहक अपने बल पर इतरा रहे
हो!`` कहते हैं कि यही बर्बरीक बाद में टेसू के नाम से
जन-जन में लोकप्रिय हुआ और लोक जीवन में रच-बस गया। आज
भी गाँवों, कस्बों में बच्चे, किशोर, युवक टेसू की
आकृति, मूर्ति बनाकर टेसू यात्रा निकालते हैं और गीत
गाते हैं।
मध्य प्रदेश व गुजरात की कथा के अनुसार टेसू व झाँझी
की प्रेम कथा मशहूर लोककथा है, जो आज भी परंपरा के रूप
में मनाई जाती है। मध्य प्रदेश में कुछ क्षेत्रों में
झाँझी को गड़बड़ा कहते हैं। दशहरे से लेकर दीपावली तक
टेसू पर्व मनाया जाता है। क्वाँर माह सितंबर-अक्तूबर
की शरद ऋतु की सुहावनी चाँदनी रात में गाँव-गाँव में
टेसू पर्व मनाया जाता है। कहते हैं, टेसू भीम का पुत्र
तथा चंबल क्षेत्र का शासक था। बहुत पराक्रमी था। जो
सेना हारने लगती थी, वह उसी की तरफ लड़ता था। यह बात
पांडवों के हितैषी श्रीकृष्ण को पता चली तो उन्होंने
सोचा कि अगर कौरवों की हारती सेना को टेसू की मदद मिल
गई तो पांडवों को विजयश्री मिलना मुश्किल होगी।
उन्होंने महाभारत युद्ध देखने आ रहे टेसू से एक वृद्ध
ब्राह्मण के भेष में दान में उसका सिर माँग लिया। टेसू
ने सिर दान में दे दिया, किंतु शर्त रखी कि वह पूरा
महाभारत संग्राम-किसी ऊँचे स्थल से देखेगा तथा युद्ध
समाप्ति पर अपनी प्रेमिका गड़बड़ा (झाँझी रानी) से
शादी करेगा।
कृष्ण ने उसकी दोनों इच्छाएँ पूरी कीं। ऊँचे बाँस पर
टँगे टेसू के सिर ने अठारह दिन युद्ध देखा और फिर शरद
पूर्णिमा की रात में झाँझी से शादी कर दोनों ने एक साथ
प्राण त्याग दिए। गुजरात व मध्य प्रदेश के कुछ गाँवों
में शरद पूर्णिमा को विधिवत टेसू व झाँझी का विवाह
कराया जाता है और जल में दोनों के पुतले विसर्जित किए
जाते हैं। टेसू व झाँझी की कथा पंजाब में सोहनी-महिवाल
की प्रेम कथा से मेल खाती है। मध्य प्रदेश में गड़बड़ा
(ढांढी) लेकर लड़कियाँ निकलती हैं। एक मटकी को लेकर
उसके बीच में चारों ओर गोल-गोल छेद कर लिये जाते हैं।
मटकी (गगरी) में चूना पोतकर उस पर सुंदर चित्रकारी की
जाती है, फिर उसके अंदर सरसों के तेल का दीपक जलाकर
रखा जाता है। लड़कियों की टोली घर-घर जाकर गाती हैं-
गड़बड़ गड़बड़ लाडी लो सेरी भागी जायके
बाई को गड़बड़ी सेरी लागी काटो ला नउआ के घर जायके
बाई को गड़बड़ी नउआ दीन्हीं निहरनी बसोडा दीनी
छाबड़िया माली के घर जाइके
माली दीन्ही फूढलड़ा देव चढ़ावन जाई के, देव ने दीन्ही
लाडुला मगरा बैठ खाइ के
बाई को गड़बड़ी मगरे लागा मुसरा कोने लग गई बाई के घूस
को गड़बड़ी।
सामाजिक उत्सव-
बुन्देलखंड अपनी लोक परम्पराओं की विविधता और जीवन्तता
के कारण एक विशेष स्थान रखता है। क्वार ओर कार्तिक
दोनों ही माह यहाँ की लोक कलाओं की दृष्टि से बहुत
महत्वपूर्ण है। पितृ पक्ष के आरंभ से ही क्वांरी
लड़कियों द्वारा साँझी खेली जाती है और गाँव नगरों के
मुहल्ले के मुहल्ले चित्र वीथिकायों का रुप लेते हैं।
दीवारें रंगीन पन्नियों और रंगबिरंगे फूलों से सजी
आकृतियों से भर जाती है। फिर नौ दिन के नौरते में
लड़कियाँ सुअटा की प्रतिमा बनाकर खेलती है। और तब दशहरे
से शुरु होता है उदण्ड और खिलन्दड़े लड़कों का खेल टेसू।
यों तो टेसू की धूम सारे बुन्देलखण्ड में मचती है
परन्तु ग्वालियर के टेसू विशेष रुप से प्रसिद्ध है।
लड़कियाँ जगमगाती झुँझिया निकालती हैं और घर-घर जाकर
गीत गाती हैं-
मैरी झुँझिया आउर माँगे, चाऊढर माँगे।
सोलह शृंगार माँगे, बाँह भरे की चू़डी माँगे।।
दोनों पग की बिछिया माँगे, नई-नई घाँघरिया मागे।
मेरी झुँझिया चली है, सुहाग नारे सुबना।
मेरी झुँझिया का पूजौ आप नारे सुबना।।
कई स्थानों पर अलग-अलग गीत हैं। रात में एक स्थान पर
सभी इकट्ठा होते हैं और टेसू राजा, झुँझिया रानी का
विधिवत रस्मों सहित विवाह संपन्न होता है। महिलाएँ
मंगलगीत गाती हैं और फिर आधी रात को नदी या ताल में
टेसू राजा व झुँझिया रानी को विसर्जित कर दिया जाता
है।
टेसू उठने के दो दिन पहले बच्चे हिरन बनकर गाँव भर में
नाचते-कूदते व गाते हैं।
हिन्ना गु़ड आऊढर-बाऊढर।
हिन्ना माँगें तिली चाउर।। अगले दिन एक बच्चा अपने
शरीर पर नीम के पत्ते बाँधकर भालू बनता है और घर-घर
जाकर नाच दिखाता है। उसके साथ के बच्चे गाते हैं-
हुँका पी ले दम लगा ले। काले वन का रीछ नाँच दे। ताक
धिना धिन ताक धिना।। चौदहवींवाले दिन बड़े-बू़ढे,
बच्चे इकट्ठा होकर पुआल, काँस, कुआ से एक बड़ी मोटी
रस्सी बनाते हैं। इस रस्सी को 'बाँट` कहते हैं। गाँव
के लोग दो भागों में बँटकर बाँट को खीचते हैं, जिसके
हिस्से में बड़ा टुकड़ा टूटकर आता है, वह विजेता होता
है। इसे 'बाँटा चौदस` कहते हैं।
टेसू बाँस की तीन खपचियों के सहारे लड़के खुद बना लेते
हैं या बाजार से खरीद लेते हैं। कई जगह हुक्का पीते,
तलवार चलाते टेसू बनाए जाते हैं। बच्चों की टोली घर-घर
जाकर गाती है-
मेरा टेसू यहीं अड़ा खाने को माँगे दही बड़ा दही
बड़े ने पूछी बात कह दे बेटा मन की बात
आगरे के टेकरे से लड़की सुनार की
उसके भूरे-भूरे बाल उसकी नथनी हजार की
सोने के कान फूल सोने की आरसी महल बैठी ढोलकी बजाती
ढोलकी की तान अपने यार को सुनाती
यार का दुपट्टा सारे शहर की निशानी
माँगो रे लड़को आई दीवाली
रेल चली है खटके से चवन्नी निकालो मटके से।
बच्चों की टोली तब तक नहीं टलती, जब तक चंदे में अनाज
या पैसा नहीं दिया जाता। पहले गाते हैं-
टेसू आए घर के द्वार।
खोलो रानी चंदन किवार।
अगर कोई कंजूसी करता है तो टोली के बच्चे गाने लगते
हैं-
टेसू की मर गई नानी, नानी बड़ी सयानी।
नानी की थी बिल्ली, बिल्ली बड़ी चिबिल्ली।
बिल्ली खाए बर्फी, बर्फी में लगी पन्नी, दे दो एक
चवन्नी।।
पारंपरिक संस्कार-
अंतिम दिन टेसू व झाँझी का विवाह कराकर उन्हें तालाब
या नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस पर्व में
धान, ज्वार, बाजरा या रुपयों-पैसों को इकट्ठा कर
बच्चों की टोली मिठाइयाँ, पटाखे खरीदती है। बुंदेलखंड
में टेसू पर्व पाँच दिन मनाया जाता है। शरद पूर्णिमा
को टिसवारी पूर्णिमा या 'टेसू पूर्णिमा` कहा जाता है
और यह पर्व उल्लास से मनाया जाता है। बच्चे गाते हैं-
टेसू-टेसू कहाँ गए थे? पत्ता तोड़ने गए थे। पत्ता ले
गयो कौआ, टेसू हो गयो नौआ।
नौआ ने मूडे, टेसू हो गए ठूठ।
ठूठ मू रखो अंगरा, टेसू हो गए बंदरा।
बंदरा ने खाई पाती, टेसू हो गए हाथी।
हाथी ने गह लई गैल, टेसू हो गए बैल।
कहीं-कहीं पर बाल टोलियाँ टेसू गीत कुछ इस तरह गाते
हुए निकलती हैं-
टेसू की गइया लचपे दरिया, नौ गठरी भुस खाय।
गंगा पीवे, जमुना पीवे, तऊ पियासी जाए।। टेसू गीतों
में मनोरंजक बातें होती हैं तो झेंझी गीतों में
पारिवारिक व सामाजिक विषयों का चित्रण पाया जाता है।
लोक गायिकाएँ पहले इन गीतों को खूब गाती थीं।
हास-परिहास, मनोरंजन ही लोक-पर्व टेसू का उद्देश्य रहा
है।
झेंझी की एक कथा में कहा गया है कि सुआटा नामक एक
राक्षस किशोरी कन्याओं को उठा ले जाता था। उसी के
अत्याचार से ऊबकर कन्याओं ने माँ गौरी की आराधना की।
माँ गौरी ने सुआटा राक्षस का वध करने के लिए एक वीर
युवक टेसू को भेजा, जिसने दैत्य सुआटा का वध करके उसकी
पुत्री झुँझिया से विवाह कर लिया। शारदीय नवरात्र में
लड़कियाँ गोबर से सुआटा राक्षस की प्रतिमा बनाती हैं,
बाद में झुँझिया का विवाह होता है। अलग-अलग क्षेत्रों
में अलग-अलग कथाएँ व गीत प्रचलित हैं। डॉ. राष्ट्रबंधु
ने टेसू राजा और झुँझिया रानी के गीतों के आधार पर
खंडकाव्य की रचना की। आज लोग टेसू तथा टेसू पर्व को
भूलते जा रहे हैं। लोकपर्व टेसू एकता का प्रतीक था,
जिसमें गरीब, अमीर, ऊँच-नीच का भेद भुलाकर सभी लोग
शामिल होते थे, किंतु इलेट्रॉनिक मीडिया, चैनलों की
चकाचौंध व बढ़ती आपाधापी के कारण टेसू पर्व समाप्त
होता जा रहा है, इसे नए संदर्भों में पुनर्जीवित करने
की आवश्यकता है।
१ अक्तूबर २०१८ |