समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है यू.एस.ए. से
देवी नाँगरानी
की कहानी-
परछाइयों के जंगल
माँ को बड़ी मुश्किल से
सहारा देकर बस में चढ़ाया और फिर मैं चढ़ी। बस धक्के के साथ
आगे बढ़ी तो माँ गिरते-गिरते बची। मैं भी उसे न सँभाल पाई।
एक दयावान वृद्ध ने अपने स्थान से उठकर उसे बैठने के लिए
कहा और माँ एक आज्ञाकारी बालक की तरह सीट पर बैठ गई। मैंने
टिकट लिया और उसके साथ सटकर खड़ी हो गई। ‘टैंकबंड’ बस
स्टॉप पर उतरना था। कंडक्टर ने दो बार जोर से पुकारा
'टैंकबंड, टैंकबंड' पर मैं अतीत की खलाओं में खोई रही, जब
इसी तरह सहारा देकर माँ ने मुझे पहले चढ़ाया था और बाद में
वह खुद चढ़ी थी। बस चलने लगी थी, पर फिर पाया कि कुछ छूट
गया था, कुछ नहीं बहुत कुछ छूट गया था। पिताजी जो साथ आए
थे, पीछे रह गए थे। हड़बड़ी में वे चढ़ ही नहीं पाये या...!
माँ का चेहरा ज़र्द, आँखें फटी फटी, गुमसुम आलम में वह
बड़बड़ाते हुए अचानक चिल्लाने लगी- 'अरे बस रोको, बस रोको,
मुनिया के पिता पीछे रह गए हैं। अरे भाई रोको मुझे उतरने
दो, वे पीछे रह गए हैं।' आवाज शोर में लुप्त सी हो गई और
बस हवाओं से बातें करती टैंकबंड बस स्टॉप पर...आगे-
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विश्वंभर विज्ञ की
लघुकथा-
बचाओ
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रचना प्रसंग में कुमार रवीन्द्र का आलेख-
आँगन आँगन बिखरे गीत
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आज सिरहाने पंकज सुबीर
का कहानी संग्रह-
चौपड़े की चुड़ैलें
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विज्ञानवार्ता में डॉ गुरुदयाल प्रदीप से
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