रचनाकार
पंकज सुबीर
*
प्रकाशक
शिवना प्रकाशन
सम्राट कॉम्लेक्स, बेसमेंट
सीहोर म॰प्र॰
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पृष्ठ - १७६
*
रु- २५०
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चौपड़े की
चुड़ैलें (कहानी संग्रह)
नई सदी के प्रारंभ के
चार-पाँच वर्षों हिन्दी कहानी एकदम से चेहरा बदल कर सामने
आई। यह जो परिवर्तन दिखाई दिया, यह उन युवा कहानीकारों के
कारण था, जो उस समय अपनी कहानियाँ लेकर सामने आए। आज लगभग
पन्द्रह साल बीत जाने के बाद उन कहानीकारों में से कई
हिन्दी की मुख्य धारा के स्थापित कहानीकार हो चुके हैं।
पंकज सुबीर का नाम भी उनमें से ही एक है।
दो उपन्यासों ‘अकाल में
उत्सव’ तथा ‘ये वो सहर तो नहीं’ के द्वारा पाठकों में अपने
आप को अच्छे से स्थापित कर चुके पंकज सुबीर की कहानियों की
भी ख़ूब चर्चा होती है। पंकज सुबीर का चौथा कहानी संग्रह
‘चौपड़े की चुड़ैलें’ नाम से प्रकाशित होकर आया है। पंकज
सुबीर की कहानियों को उनकी किस्सागो शैली के कारण पाठक ख़ूब
पसंद करते रहे हैं। ये कहानियाँ लम्बी होने के बाद भी इसी
शैली के चलते बिना बोझिल हुए पठनीयता को बरकरार रख पाती
हैं।
पंकज सुबीर ने अपनी कहानियों
की एक भाषा भी विकसित की है, इस भाषा में कहावतों,
श्रुतियों और लोकोक्तियों का खुलकर उपयोग वे करते हैं,
कभी-कभी तो प्रयोग के रूप में कुछ अपनी कहावतें भी गढ़ते
हैं। पंकज सुबीर की कहानियों की एक और विशेषता उनके विषयों
का फैला हुआ संसार है। हर दूसरी कहानी पिछली कहानी से
बिल्कुल अलग तरह के विषय पर होती है। कहानी संग्रह को
पढ़ते समय पाठक इस विविधता का आनंद महसूस होता है। पंकज
सुबीर ने हर कहानी संग्रह में एक रेंज पाठकों के सामने रखी
है, फिर चाहे वो पहला कहानी संग्रह ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’
हो, ‘महुआ घटवारिन’ हो, पिछला कथा संग्रह ‘कसाब.गाँधी एट
यरवदा.इन’ हो, या फिर ये नया कहानी संग्रह चौपड़े की
चुड़ैलें हो। वैविध्य पंकज की कहानियों का सबसे सशक्त पक्ष
है। |
‘चौपड़े
की चुड़ैलें’ के नाम से प्रकाशित होकर आए इस कहानी संग्रह
में पंकज सुबीर की नौ कहानियाँ हैं। शीर्षक कहानी पंकज
सुबीर की चर्चित कहानी है जिस पर उनको हिन्दी का
प्रतिष्ठित ‘राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान’ प्राप्त हुआ
था। संग्रह की पहली कहानी ‘जनाब सलीम लँगड़े और श्रीमती
शीला देवी की जवानी’ अपने लम्बे और उत्सुकता जगाने वाले
नाम के कारण आकर्षित करती है। यह कहानी नया ज्ञानोदय में
प्रकाशित होने के बाद काफी चर्चित रही थी। इस कहानी में
पंकज के अंदर का क़िस्सागो फुल फॉर्म में दिखाई देता है।
शीला देवी और सलीम लँगड़े के मिलने का प्रथम दृश्य किसी
चित्र की तरह रचा गया है। उसमें क़िस्सागो शैली का जादू
पाठक के सिर पर चढ़ जाता है। मरे हुए साँप की लक्ष्मण रेखा
को पार करते जनाब सलीम लँगड़े और उसके बाद घनघोर बरसात,
हिना का इत्र ये सब मिलकर पाठक को खेत में बने उस टप्पर
में ही प्रत्यक्ष ले जाते हैं मानो! इसी प्रकार का एक
दृश्य कहानी के अंत में रचा गया है। अंत का पूरा दृश्य
बहुत कौशल से रचा गया है। वर्तमान समय के प्रतीक के रूप
में एक उल्लू को पेड़ पर बैठा होना, घटना विशेष के समय उड़
जाना और घटना के तुरंत बाद वापस आकर बैठ जाना तथा आवाज़
बदल कर बोलना, यह सब बहुत गहरा कटाक्ष है वर्तमान राजनैतिक
समय और समाज पर। इस कहानी का प्रभाव पाठक के दिमाग़ पर
कहानी ख़त्म होने के बाद भी बना रहता है।
संग्रह की दूसरी कहानी ‘अप्रैल की एक उदास रात’ बिल्कुल
अलग तरह के विषय पर लिखी गई कहानी है। इस कहानी को भी इसकी
भाषा ने विशिष्ट बना दिया है। नब्बे के दशक में युवा हुई
पीढ़ी को यह कहानी बहुत पसंद आएगी क्योंकि इसमें सब कुछ
उनके समय का है। और उस समय को उस समय के फ़िल्मी और ग़ैर
फ़िल्मी गीतों के द्वारा कहानी में दर्शाया गया है। मूल कथा
के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है जो इस कहानी को पठनीय बना
देता है। विशेषकर गर्मी की दोपहरों, उदास शामों तथा सूनी
रातों का जो चित्रण है वो पाठक को बाँध लेता है। पीपल के
पेड़ तथा उससे गिरते हुए पत्तों का रूपक प्रयोग में लाकर
लेखक ने कहानी की मुख्य पात्र जो एक स्त्री है, का जीवन
बहुत बारीकी से प्रतिबिम्बित किया है। कहानी सीधे-सीधे एक
प्रतिशोध कथा है लेकिन लेखक ने उसमें रेशमी भाषा का प्रयोग
करके उसे उदास प्रेम कथा में परिवर्तित कर दिया है। कहानी
के संवादों में गहरी और ठहरी हुई ख़ामोशी पाठक को महसूस
होती है। कहानी का अंत एकदम से चौंकाता है। अंत जिस प्रकार
से होता है वह पाठक की कल्पना से परे होता है। एक गहरे
रहस्य को परत दर परत उघाड़ती यह कहानी पाठक को अंत में
स्तब्ध छोड़ कर समाप्त हो जाती है।
तीसरी कहानी ‘सुबह अब होती है... अब होती है... अब होती
है...’ एक अपराध कथा है। हंस के रहस्य-रोमांच विशेषांक में
प्रकाशित अपराध कथा। लेकिन लेखक ने इसे केवल अपराध कथा
बनने से अपनी सजगता के चलते बचा लिया है। यह कहानी अपराध
कथा होने के बजाय स्त्री के संघर्ष की कहानी बन जाती है।
लेखक ने कहानी की मुख्य स्त्री पात्र के द्वारा संवादों के
माध्यम से कई मुद्दों को, कई विमर्शों को स्वर दिया है।
एकाकी जीवन जी रही वृद्ध स्त्री के उदास जीवन को लेखक ने
कुशलता के साथ चित्रित किया है। कहानी पढ़ते समय पाठक उस
स्त्री के साथ संवेदना के धरातल पर जुड़ जाता है। इस
प्रकार कि अंत में जो कुछ होता है, उसे भी पाठक क्षमा कर
देता है। कहानी अपने संवादों के चलते प्रभाव उत्पन्न करती
है। उम्र के दो अलग-अलग पड़ावों पर खड़े दो व्यक्तियों के
बीच के संवाद, उनके द्वंद्व और उनकी असहमतियाँ इस कहानी को
विशिष्ट बना देते हैं। और उन सबसे ऊपर वह रहस्य जो कहानी
के सबसे अंत में जाकर खुलता है, उसके खोले जाने का अंदाज़
कहानी के प्रभाव को कई गुना बढ़ा देता है। हिन्दी में इस
प्रकार की कहानियाँ लिखने का चलन नहीं है, यह कहानी पाठक
हेतु है।
संग्रह की चौथी कहानी शीर्षक कहानी ‘चौपड़े की चुड़ैलें’
है। इस कहानी पर लेखक को राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान
प्राप्त हुआ था। यह कहानी संग्रह की सबसे सशक्त कहानी भी
है। इंटरनेट तथा मोबाइल के माध्यम से युवाओं के जीवन में
घोली जा रही गंदगी की चिंता इस पूरी कहानी में है। लेकिन
उसको लेकर ने जो कथा रची है वह भी कम दिलचस्प नहीं है।
कहानी का पहला हिस्सा किसी फ़िल्म की तरह गुज़रता है। एक
टूटी हुई खंडहरनुमा हवेली, उसके पीछे आमों का वीरान बाग़,
बाग़ में एक चौकोर बावड़ी, जिसे चौपड़ा भी कहते हैं और
उसमें आवारा पत्तों की तरह बिखरे जवान होते लड़के, जो अपने
सवालों के उत्तर तलाश रहे हैं। कहानी के हिस्से में रात के
अँधेरे में दिखाई देने वाली चुड़ैलों का रूपक बहुत
ख़ूबसूरती के साथ गढ़ा गया है। कहानी दूसरे हिस्से में आमों
के बाग़ से निकल कर लड़कों के साथ हवेली के अंदर पहुँच जाती
है और फिर बिल्कुल नए रूप में सामने आती है। पहले हिस्से
की भाषा और शैली तथा दूसरे हिस्से की भाषा और शैली में
बहुत अंतर दिखाई देता है। और फिर कई सारे सवालों को पीछे
छोड़कर यह कहानी समाप्त हो जाती है। लम्बे समय तक याद रहने
वाली कहानियों में से है यह कहानी।
‘इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूँ’ कहानी वर्णन की शैली
द्वारा रची गई कहानी है। फ़्लैश बैक में जाती है फिर वापस
लौटती है और फिर जाती है। इस आवागमन में दो बदले हुए समयों
की कहानी पाठक को सुनाती है। बदले हुए समय, जिनके बीच में
पन्द्रह-बीस सालों का अंतराल है। कहानी असल में तेज़ी के
साथ बदलते समय और उसके साथ बदलती मानसिकता की कहानी है।
पहले जो बातें आम होती थीं, अब वो सांप्रदायिक होती हैं।
पिछले कुछ सालों में हमारे समाज में सांप्रदायिकता की
जड़ों ने जो पैर पसारा है, यह कहानी उसके बारे में बात
करती है। बताती है कि पूर्व में क्या था और अब क्या हो गया
है। कहानी का शीर्षक पढ़कर जो भ्रम पाठक के मन में पैदा
होता है, वो कहानी को पढ़ कर दूर हो जाता है। कहानी को
भावनात्मक स्तर पर जाकर गढ़ा गया है, इसलिए कहीं-कहीं पर
ये कहानी पाठक को बेचैन कर देती है। कहानी के मुख्य पात्र
भासा की छटपटाहट, उसकी बेचैनी को पाठक अपने अंदर महसूस
करने लगता है।
कहानी संग्रह की अगली कहानी ‘रेपिश्क़’ कुछ असहज करने वाली
कहानी है। असल में इस कहानी के साथ सहमत होने में पाठक को
कुछ समय लग सकता है। हो सकता है कि कुछ पाठक इसके साथ सहमत
हो भी न पाएँ। कहानी का शीर्षक जिस प्रकार का विरोधाभास
उत्पन्न करता है, कहानी भी उसको साथ लेकर चलती है। कहानी
बहुत संवेदनशील विषय पर लिखी गई है। उसका एक दूसरा पक्ष यह
कहानी उजागर करती है। यह दूसरा सच गले उतरने वाला नहीं है।
कहानी के फार्मेट पर यह कहानी बिल्कुल कसी हुई कहानी है
लकिन विषय के स्तर पर कुछ परेशान करती है पाठक को। इसी
प्रकार एक कहानी है धकीकभोमेग, यह कहानी संग्रह की छोटी
कहानियों में है। कहानी बाबाओं की दुनिया में झाँकती है और
वहाँ के कड़वे सच को पाठक के सामने लाती है। कहानी जिस
नैरेटर के माध्यम से कही जा रही है, उसकी अपनी कहानी और
अपना फ़्लैश बैक कहानी के साथ आकर गूँथता है और इस विचित्र
सा शब्द धकीकभोमेग जन्म लेता है। फ़्लैश बैक में मंदिर में
खड़े हुए कहानी के नैरेटर के कुछ दिलचस्प दृश्यों को लेखक
ने रच कर कहानी की पठनीयता को बनाए रखा है। मगर फिर भी
लेखक की अन्य कहानियों की तुलना में यह कहानी कहीं-कहीं
कुछ सपाट हो जाती है। क़िस्सागोई भी कम है इस कहानी में,
जबकि कहानी को नैरेशन के अंदाज़ में ही लिखा गया है।
‘औरतों की दुनिया’ और ‘चाबी’ यह अंत की दो कहानियाँ हैं।
दोनों ही कहानियाँ एक अलग तरह के पाठक वर्ग के लिए हैं।
‘औरतों की दुनिया’ में चाची और भतीजे के संबंधों के माध्यम
से लेखक ने स्मृतियों में बसे हुए बचपन का चित्र खींचा है।
कहानी बताती है कि संवादहीनता कई सारी समस्याओं की जड़
होती है। संवादहीनता को समाप्त कर दिया जाए तो संबंधों में
जमी बर्फ़ को पिघलने में देर नहीं लगती। ‘चाबी’ कहानी पाठक
को प्रारंभ होते ही उलझा लेती है। उलझन उन घटनाओं की जो एक
के बाद एक हो रही हैं। पाठक इस बीच में कई बातें सोचता है,
कई तरह से सोचता है, और अंत सब सोचे हुए से एकदम अलग निकल
कर आता है। चौंका देना लेखक को बहुत पसंद है शायद।
पंकज सुबीर का यह कहानी संग्रह उनके पिछले तीन कहानी
संग्रहों की ही तरह पठनीय है। और विषय वैविध्यता से भरपूर
है। इस संग्रह को पढ़ते समय पाठक को कहीं भी एकरसता महसूस
नहीं होती है। पंकज सुबीर की कहानियाँ लम्बी होती हैं, इसी
कारण इस कहानी संग्रह में केवल नौ ही कहानियाँ हैं। उनमें
से भी प्रारंभ की पाँच कहानियाँ बहुत लम्बी हैं, लम्बी
कहानियाँ लिखने के अपने ख़तरे हैं और लेखक ने उन ख़तरों को
उठाते हुए ये कहानियाँ लिखी है। पंकज सुबीर की पिछली कृति
उपन्यास ‘अकाल में उत्सव’ था, जो बहुत चर्चित तथा सफल रहा
था, ऐसे में पंकज सुबीर ने बहुत सावधानी से अपनी कहानियों
का चयन करते हुए अगली कृति को पाठकों के सामने रखा है।
सफलता के बाद सबसे मुश्किल होता है उसे दोहरा पाना। कहानी
संग्रह की कहानियाँ इस दोहराए जाने का आश्वासन देती प्रतीत
होती हैं।
- पारुल
सिंह
१ नवंबर २०१७ |