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विज्ञान वार्ता
Linda Buck

Richard Axel1
सूँघने में छुपे रहस्य और
नोबेल पुरस्कार
डॉ गुरुदयाल प्रदीप


जरा सोचिए – आंख, कान, जीभ, नाक, त्वचा जैसी ज्ञानेन्द्रियों के बिना हम कितने निस्सहाय हो सकते हंै। इन सबका संबंध हमारे स्नायुतंत्र से है तथा ये सभी हमारे लिए प्रकृति प्रदत्त बहुमूल्य वरदान हैं। इस छोटे से आलेख में इन सभी पर एक साथ चर्चा कर पाना तो संभव नहीं है परंतु आज घ्राण–शक्ति अर्थात् सूंघने की क्षमता से संबधित रहस्यों पर चर्चा करने का अवसर अवश्य है। जी हां, और यह अवसर दिया है दो अमेरिकी वैज्ञानिकों, रिचर्ड एक्सेल तथा लिंडा बॅक ने। घ्राण–शक्ति के रहस्यों पर से पर्दा उठाने की दिशा में महत्वपूर्ण अनुसंधान के लिए इस वर्ष का फिज़ियोलॉजी का नोबेल पुरस्कार इन दोनों को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया है।

घ्राण संबंधी संवेदना से जुड़ी स्नायु कोशिकाएं मुख–गुहा के कठोर तालू के ऊपर अवस्थित नासिका प्रकोष्ठ मेंं 'म्युकस मेंब्रेन' के विशिष्टता प्राप्त हिस्से में पाई जाती हैं। हम मनुष्यों की घ्र्राण क्षमता काफी सीमित होती है और इसी के अनुरूप इस विशिष्टता–प्राप्त मेंब्रेन का क्षेत्रफल भी काफी कम ह्यलगभग 5 वर्ग सें•मी•हृ होता है। वहीं पर उच्च स्तर तक विकसित घ्राणशक्ति वाले कुत्तों जैसे जानवरों में इसका क्षेत्रफल कई गुना अधिक होता है। विशिष्टता प्राप्त म्युकस मेंब्रन के इस हिस्से में स्थित 'सपोर्टिंग' कोशिकाएं लगातार म्युकस का श्राव करती रहती हैं जो इस क्षेत्र की इपीथीलियम के बाहरी सतह को गीला रखता है। इन सपोर्टिंग कोशिकाओं के बीच लगभग 100 से 200 लाख घ्राणग्राही स्नायु कोशिकाएं बिखरी पड़ी होती हैं। इन स्नायु कोशिकाओं से कई छोटे–छोटे लेकिन मोटे 'डेंड्राइट्स' निकलते हैं जिनके सिरे थोड़े चौड़े होते हैं। इन चौड़े सिरों से बारीक 'सीलिया' निकलती हैं जो म्युकस मेंब्रेन की सतह पर प्रक्षेपित रहती हैं। इस क्षेत्र की प्रत्येक स्नायु कोशिका से इसी प्रकार की लगभग 10 से 20 सीलिया निकलती हैं। इन स्नायु कोशिकाओं के 'एक्सॉन' नासिका प्रकोष्ठ में स्थित 'एथम्वाएड बोन' के 'क्रिबीफॉम प्लेट' को भेद कर 'ऑलफैक्टरी बल्ब्स' में प्रवेश करते हैं। यहां ये एक्सॉन्स यहां विशेष प्रकार के मिट्रल कोशिकाओं के डेंड्राइट्स से जुड़ कर जटिल ग्लोमेरूलस सिनैप्स का निर्माण करते हैं। औसतन 26,000 घ्राण संबंधी स्नायु कोशिकाएं प्रत्येक ग्लोमेरूलस से इसी प्रकार जुड़ती हैं। वास्तव में ये ऑलफैक्टरी बल्ब्ज़ मस्तिष्क के लिंबिक भाग के विस्तार ही हैं। इन ऑलफैक्टरी बल्ब्स का सबंध ऑलफैक्टरी टै्रक्ट द्वारा मस्तिष्क के ऑलफैक्टरी कॉर्टेक्स के विभिन्न हिस्सों से होता है।

नासिका प्रकोष्ठ के म्युकस मेंब्रेन के विशिष्ट हिस्से में अवस्थित ये घ्राणग्राही कोशिकाएं गंध उत्पन्न करने वाले रसायनों के अणुओं के प्रति संवेदनशील होती हैं। यह संवेदनशीलता अलग–अलग प्रकार के रसायनों के अणुओं की सांद्रता के प्रति अलग–अलग होती है। उदाहरण के लिए लहसुन को विशिष्ट गंध प्रदान करने वाले रसायन 'मिथाइल मर्केप्टेन' की न्यूनतम सांद्रता हवा में यदि प्रति लीटर 0 .00000004 मि•ग्रा• भी हो तो यह लहसुन की गंध का भान कराने के लिए पर्याप्त है। वहीं पर क्लोरोफॉर्म या एथिल ईथर की गंध का आभास कराने के लिए प्रति लीटर हवा में इनकी न्यूनतम सांद्रता क्रमशः 3•30 तथा 5•83 मि•ग्रा• होनी चाहिए। साथ ही एक ही प्रकार के गंध की तीव्रता में अंतर का अनुभव करने के लिए प्रति लीटर हवा में उस गंध के अणुओं की सांद्रता में कम से कम 30 प्रतिशत की वृद्धि होनी चाहिए।

हवा के साथ गंध उत्पादित करने वाले रसायनों के अणु नासिका छिद्रों से होते हुए नासिका प्रकोष्ठ में पहुंच कर 'घ्राणग्राही इपीथीलियम' के संपर्क में आते है तथा वहां उपस्थित म्युकस में घुल जाते हैं। इस घुली अवस्था में ही ये अणु घ्राणग्राही स्नायु कोशिकाओं को उद्दीप्त कर उनके विद्युत विभव ह्यएल्च्तरचिल् पेतान्तािल्हृ में परिवर्तन कर सकते हैं। इन गंध–उत्पादक रसायनों के अणुओं की संरचना में 3–4 से लेकर 18–20 कार्बन के परमाणुओं का हाथ होता है। इसके अतिरिक्त हमें यह भी ज्ञात है कि समान कार्बन के परमाणुओं की संख्या परंतु भिन्न आणविक संरचना वाले रसायनोें की गंध अलग–अलग होती है। अन्य पदार्थों की तुलना में तीव्र गंध वाले रसायनों की पानी तथा वसा में घुलनशीलता अपेक्षाकृत अधिक होती है।

लगभग 10000 से भी अधिक प्रकार के गंध–उत्पादक रसायनोंं में अंतर करने तथा उन्हें पहचानने की क्षमता का फिज़ियोलॉजिकल आधार क्या है – अभी तक हमें इसका सटीक ज्ञान नहीं था। परंतु हमें यह ज्ञान अवश्य हो गया था कि विभिन्न प्रकार के गंध हमारे 'ऑलफैक्टरी बल्ब्ज़' में अलग–अलग प्रकार के 'विशिष्ट मेटाबालिक गतिविधियों' की दर में वृद्धि दर्शाते हैं। इसके अतिरिक्त, किसी गंध–विशेष का प्रभाव मस्तिष्क के ऑलफैक्टरी कॉर्टेक्स के विशिष्ट क्षेत्र में ही मेटाबॉलिक गतिविधियों की वृद्धि के रूप में देखा जाता है।

इस तंत्र से जुड़ी गुत्थियों तथा रहस्यों को सुलझाने की दिशा में किए गए अनुसंधानों एवं सतत प्रयासों को मान देने के लिए ही रिचर्ड एक्सेल तथा लिंडा बॅक को इस वर्ष के नाबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। रिचर्ड एक्सेल संप्रति हॉवर्ड ह्युजेज़ मेडिकल इंस्टीट्यूट, कोलंबिया युनिवर्सिटी, न्युयॉर्क तथा लिंडा बक बेसिक साइंस डिवीज़न, फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च सेंटर, सीटल से संबद्ध हैं। इन लोगों ने घ्राण क्षमता संबंधी कार्य की को जेनेटिक एवं आण्विक स्तर पर समझने का प्रयास किया है। 1991 में संयुक्त रूप से प्रकाशित आलेख में इन्होंने बताया कि हमारे 3 प्रतिशत जीन्स ह्यलगभग 1000 जीन्सहृ घ्राण संग्राहक स्नायु कोशिकाओं के क्रिया–कलापों से संबंधित होते हैं। तत्पश्चात् स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए विभिन्न प्रयोगों द्वारा यह दर्शाया कि घ्राण–तंत्र किस प्रकार कार्य करता है। रिचर्ड एक्सेल का कार्य स्तनधारियों तथा कीट–पतंगों पर आधारित था तो लिंडा बक का कार्य मुख्य रूप से स्तनधारियों पर आधारित था।

जीनोम का भाग होने के कारण अन्य जीन्स के साथ घ्राण संबंधी सभी जीन्स भी हमारी सभी कोशिकाओं में पाए जाते हैं परंतु नासिका प्रकोष्ठ के म्युकस मेंब्रेन के विशिष्ट हिस्से में अवस्थित 'घ्राणग्राही स्नायु कोशिकाओं' के अतिरिक्त ये कहीं भी सक्रिय नहीं होते – वह भी एक स्नायु कोशिका में इन हजार जीन्स में से केवल एक ही जीन सक्रिय रहता है। ये जीन्स घ्राणग्राही प्रोटीन्स के संश्लेषण लिए उत्तरदायी होते हैं। अब चूंकि एक घ्राणग्राही स्नायु कोशिका में एक ही जीन सक्रिय होता है, तो जाहिर है इस कोशिका–विशेष में एक ही प्रकार के 'घ्राणग्राही प्रोटीन' के अणुओं का संश्लेषण होगा। ये संश्लेषित अणु इस कोशिका के मेंब्रेन में अवस्थित रहते हैं तथा केवल एक ही प्रकार के गंध–उत्पादक रासायनिक अणुओं के प्रति ही नहीं अपितु इससे मिलते–जुलते इसी समूह के अन्य गंध–उत्पादक रासायनिक अणुओं के प्रति भी संवेदनशील होते हैं। यह अलग बात है कि संवेदनशीलता का स्तर अलग–अलग रसायनों के प्रति अलग–अलग होगा। अर्थात् यह कोशिका–विशेष केवल एक विशेष गंध–उत्पादक रसायनों के समूह के प्रति ही संवेदनशील होती है, अन्य के प्रति नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो हम जितने प्रकार के गंध–उत्पादक अणुओं के समूह के प्रति संवेदनशील होते हैं, हमारी नासिका प्रकोष्ठ में उतने ही प्रकार के 'घ्राणग्राही प्रोटीन' से युक्त 'घ्राणग्राही स्नायु कोशिकाएं' भी होनी चाहिए।
वास्तव में सभी प्रकार के घ्राणग्राही प्रोटीन्स रासायनिक दृष्टिकोण से लगभग मिलते–जुलते होते हैं, चाहे उनका स्ांश्लेषण किसी भी जीन द्वारा किया गया हो। उनमें थोड़ा–बहुत ही अंतर होता है, परंतु यह सूक्ष्म अंतर ही उनके एक विशेष समूह के गंध–उत्पादक रसायनों के प्रति संवेदनशीलता के लिए पर्याप्त होता है। इनके रासायनिक दृष्टिकोण से मिलते–जुलते होने के कारण सभी प्रकार के घ्राणग्राही प्रोटीन्स की कार्य—प्रणाली लगभग एक जैसी ही होती है।
इन घ्राणग्राही प्रोटीन्स का निर्माण कई प्रकार के एमीनो एसिड्स के आपस में श्रृंखलाबद्ध तरीके से जुड़ने के कारण होता है। साथ ही ये घ्राणग्राही कोशिकाओं की मेंब्रेन को सात बार आर–पार कर उससे गुथे रहते हैं। एमीनो एसिड्स की ये श्रृंखलाबद्ध लड़ियां इन प्रोटीन्स में ऐसे पॉकेट्स का सृजन करती हैं जिनमें गंध–विशेष का उत्पादन करने वाले रसायन के अणु सटीक रूप से बैठ सकते हैं। किसी एक या उसी समूह के अन्य गंध–उत्पादक रसायन के संपर्क में आने पर केवल उसी रसायन के प्रति संवेदनशील घ्राणग्राही प्रोटीन से युक्त घ्राणग्राही कोशिकाओं में ही अपेक्षित परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। सर्व प्रथम इन कोशिकाओं में अवस्थित घ्राणग्राही प्रोटीन्स के अणुओं के पॉकेट्स में घ्राणग्राही रसायन के अणु सटीक रूप से बैठ कर इनकी संरचना में परिवर्तन कर इन्हें सक्रिय कर देते हैं। ये सक्रिय घ्राणग्राही प्रोटीन्स के अणु तत्पश्चात् स्वयं से जुड़े एक अन्य रसायन 'जी–प्रोटीन' को सक्रिय कर देते हैं। ये सक्रिय जी–प्रोटीन्स, घ्राणग्राही कोशिकाओं में उपस्थित एक अन्य सूचना संप्रेषक रसायन 'सी–एएमपी' ह्यसाइक्लिक एडिनोसिन मोनो फॉस्फेटहृ के अणुओं को सक्रिय कर देते हैं जो इन कोशिकाओं के मेंब्रेन में उपस्थित 'ऑयन चैनेल्स' को सक्रिय कर विभिन्न प्रकार के ऑयन्स के मेंबे्रन के आर–पार के आवागमन का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। परिणाम, इन कोशिकाओं के विद्युत–विभव में परिवर्तन के रूप में परिलक्षित होता है।
यह परिवर्तित विद्युत–विभव, इन कोशिकाओं में एक निश्चित तीव्रता वाले स्नायु–आवेग के उत्पादन का कारण बनता है। इन कोशिकाओं के एक्सॉन द्वारा यह स्नायु–आवेग ह्यन्एरव्ए म्पिुल्स्एहृ आलफैक्टरी बल्ब्ज़ के ग्लोमेरूलस को प्रभावित करते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि एक ही प्रकार के घ्राणग्राही प्रोटीन्स से युक्त स्नायु कोशिकाओं के एक्सॉन्स लगभग एक ही ग्लोमेरूलस पर समाप्त होते हैं। आलफैक्टरी बल्ब्ज़ में लगभग 2000 ग्लोमेरूलस होते हैं अर्थात् लगभग 1000 प्रकार के घ्राणग्राही कोशिकाओं की तुलना में दुगुने। इन ग्लोमेरूलस में न केवल स्नायु कोशिकाओं के एक्सान्स का अंत होता है बल्कि इस सूचना–संप्रेषण–श्रृंखला की अगली कड़ी ‘मिट्रल कोशिकाओं’ं का संपर्क–सूत्र भी पाया जाता है। एक मिट्रल कोशिका एक ही ग्लोमेरूलस द्वारा सक्रिय होती है। इन मिट्रल कोशिकाओं के लंबे एक्सान्स मस्तिष्क के आलफैक्टरी कार्टेक्स तथा अन्य भागों के विभिन्न हिस्सों के संपर्क में रहते हैं, जहां इनके द्वारा संप्रेषित सूचनाओं को व्याख्यायित कर लिया जाता है।
वास्तव में कोई भी गंध केवल एक ही प्रकार के गंध–उत्पादक रासायनिक अणुओं का परिणाम नहीं होती, अपितु नाना प्रकार के गंध–उत्पादक रसायनों के अणुओं से मिल कर बनती है। जब भी किसी गंध विशेष से संबंधित रसायन हमारी नासिका में पहुंचते हैं तो अपनी–अपनी रासायनिक संरचना के अनुसार एक साथ उतने ही प्रकार की विशेष घ्राणग्राही कोशिकाओं के सक्रिय कर देते हैं। इन सभी प्रकार की स्नायु कोशिकाओं से मिलने वाली सूचना विभिन्न प्रकार के ग्लोमेरूलस तथा मिट्रल कोशिकाओं से गुजरती हुई एक साथ मस्तिष्क तक के आलफैक्टरी कॉर्टेक्स के विभिन्न हिस्से पहुंचती है, जहां उन्हें एक साथ व्याख्यायित कर उसे पूर्व स्मरण–शक्ति के बल सही रूप में पहचान लिया जाता है।
तो जनाब, यह रहा गंध में अन्तर करने तथा उन्हें सतीक रूप से पहचानने की प्रक्रिया का रहस्योद्घाटन। वैसे तो इस तंत्र का महत्व जीवन के हर क्षेत्र में है परंतु 'भोजन के चुनाव' तथा 'यौन क्रियाओं' से इसका विशेष संबंध है। जीभ पर अवस्थित स्वाद कलिकाओं में पाए जाने वाले स्वाद संबंधी स्नायु कोशिकाओं तथा घ्राण संबंधी स्नायु कोशिकाओं से जुड़े तंत्र में संरचनात्मक अंतर के बावजू.द इनकी कार्य प्रणाली लगभग एक जैसी है। दोनों ही रसायन संग्राहक हैं। यही नहीं, दोनों में घनिष्ट संबंध भी हैं। इन दोनों के क्रिया–कलापों का प्रभाव पाचन–तंत्र की प्रक्रियायों पर भी पड़ता है। भोजन का जायका इन दोनों तंत्रों के मिले–जुले क्रिया–कलापों का परिणाम होता है। जुकाम की स्थिति में घ्राण तंत्र पर विशेष प्रभाव तो पड़ता ही है, साथ ही भोजन के जायके पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। भोजन उतना सुस्वादु नहीं लगता। अधिकांश दुर्गंधयुक्त भोजन के पीछे जीवाणुओं का हाथ होता है जो भोजन को सड़ाते हैं। सड़ा हुआ भोजन प्रायः विषैला भी हो जाता है। दुर्गंध के कारण अक्सर हम ऐसे भोजन को अस्वीकार कर देते हैं। विभिन्न जंतुओं से लेकर हम मनुष्यों तक में विपरीत सेक्स के शरीर से निकलने वाली गंध यौन–आकर्षण तथा यौन–उत्तेजक का कार्य करती है।

आशा है, भविष्य में जब भी आप किसी सुगंध का आनंद लेंगे तो रिचर्ड एक्सेल तथा लिंडा बॅक को भी एक बार अवश्य याद करेंगे। एक और मज़ेदार बात – यदि आप लंबे समय तक एक ही गंध के संपर्क में रहें तो धीरे–धीरे आप को उसकी तीव्रता में कमी महसूस होने लगेगी और कोई आश्चर्य नहीं यदि आप उस गंध को बिल्कुल ही महसूस न कर पाएं। थोड़ी देर उससे अलग रहने के बाद यदि आप पुनः उसी गंध के संपर्क में आएं तो उसे लगभग उसी तीव्रता के साथ महसूस कर सकते हैं।

२४ नवंबर २००४

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