गोवर्धन पूजा,
गोबर और गोसंस्कृति
–
महेन्द्र भानावत
भारत
गाँवों का कृषि प्रधान देश है। पूरी कृषि बैल पर
निर्भर है। धरती का भार झेलने के लिए गाय ने अपने बेटे
बैल को भेजा, तभी तो बैल को लेकर कई गाथाएँ, हीड़,
स्तुतियाँ और पूजा-अनुष्ठान प्रचलित हैं। गाय संस्कृति
हमारे देश की आत्म संस्कृति है, इसीलिए घर-घर गोपालन
की प्रथा चली। राजा-महाराजा अपने यहाँ बड़ी तादाद में
गायें रखकर अपने राज्य को सुख-समृद्धिपूर्ण बनाये रखते
थे। मंदिरो में भी बड़ी श्रद्धाभक्ति से गायों का
रखरखाव होता था। गुजरात का गोधरा नाम ही गायों से
पड़ा। किसी समय वहाँ डाकोर मंदिर की एक लाख गायें तक
रहीं। इसी कारण वह धरती गऊ-धरा कहलाई। कालान्तर में
गऊ-धरा से गोधरा नाम हो गया।
नाथद्वारा के श्रीनाथजी मंदिर में गाय संस्कृति के कई
निराले ठाठोत्सव देखने को मिलते हैं। श्रीकृष्ण ने
गायों को सर्वाधिक महत्त्व और ममत्व दिया, फलस्वरूप
पूरे भारत में अनेक रूपों में गाय संस्कृति का
सांस्कृतिक अनुष्ठान और धार्मिक महात्म्य फलित हुआ।
गाय श्रेष्ठ दान की प्रतीक बनी और शादीब्याह जैसे
मांगलिक प्रसंगों पर बहिन-बेटी को गाय देने की प्रथा
चल पड़ी। भारतवंशियों ने गाय को माता माना और उतना ही
आदर दिया। गोरोचन भी गाय से ही प्राप्त होता है। यह
बहुत कीमती होता है जो गाय के मस्तिष्क से प्राप्त
किया जाता है। हजारों गायों में से यह एकाध गाय में ही
मिलता है। गाय का दूध, मक्खन, छाछ सब स्वास्थ्यवर्धक
है। मक्खन तो सर्वाधिक मूल्यवान है। इसीलिए बचपन में
श्रीकृष्ण उसे येनकेन प्रकारेण और चौर्यकला तक से
प्राप्त करने में नहीं हिचकते थे।
नव प्रसूता गाय का दूध भी उतना ही बलिष्टकारी होता है।
इस दूध में चना तथा मोगर की दाल खूब अच्छी तरह भिगो दी
जाती है और फिर इसे एकाकार कर इसके लड्डू बनाये जाते
हैं। ये लड्डू बड़े ताकतवर होते हैं, जो कमजोर महिलाओं
को खिलाये जाते हैं। इसी दूध को हल्की आँच दे गर्म
पानी पर जमाकर बली नामक मिष्ठान बनाया जाता है, जो
बड़ा ही स्वादिष्ट तथा गुणकारी होता है। मेवाड़ में
इसकी बड़ी बड़ाई है। गायों का सर्वाधिक महत्व हमारे
देश में ही है। श्रीकृष्ण के कारण इसका सुव्यवस्थित
समुचित विकास हुआ, और गोवर्धन पर्वत का किस्सा तो सभी
का ज्ञात है।
ब्रज में एक ग्वाला था, जिसका नाम गोरधन था। इसकी
घरवाली श्रीकृष्ण की परम भक्त थी। श्रीकृष्ण ने उसे
दर्शन दिये। वहीं गोरधन भी था। उसने चाह प्रकट की कि
गाय के पाँव से कुचलने पर ही उसका प्राण निकले। यही
हुआ, तब श्रीकृष्ण ने उसी गाय के गोबर से उसका पुतला
बनाया और घर-घर पूजा प्रारंभ की। तब से दीवाली के
दूसरे दिन गोरधन-पूजा प्रारंभ हुई। उसी दिन से गोबर का
सर्वाधिक महत्त्व प्रतिपादित हुआ। तब से गोबर कहीं
व्यर्थ नहीं जाने दिया जाता है। खेती के लिए
सर्वोपयोगी गोबर की ही खाद कही गयी है। यह गोबर सारे
धार्मिक अनुष्ठानों और मंगलकारी सुकृत्यों का श्रेष्ठ
विधान है। व्रत कथाओं से जुड़े थापों का गोबरांकन सुख,
स्वास्थ्य और सुमंगल प्रदान करता है। कुमारिकाओं का
साँझी अनुष्ठान गोबर से ही विविध आकार लिए उभार पाकर
प्रतिदिन रंगबिरंगी फूल-पत्तों से सुगंधता है।
भाद्र माह में मारवाड़ में घरों की दीवालों पर
गाँवगाँव गोगाजी के हरिये गोबर के अंकन न केवल कलात्मक
उभार देते हैं, अपितु पूरे वर्ष गोगाजी महाराज उन्हें
समग्र रोग, शोक, दु:ख, दारिद्रय से बचाये भी रखते हैं।
सक्रांत पर गोबर के सकरांतड़े, गोबर से बने होली के
आभूषणों के प्रतीक बड़कुले, वर्षादेवी को बुलाने के
लिए घर-घर बच्चों द्वारा फेरी जाने वाली डेड़कमाता और
दीवाल पर उल्टे मुँह लटके इंद्र-इंद्राणी, आखातीज पर
गोबर के भूट्टे-भूट्टी लोकजीवन के आश-विश्वास के फलित
चक्र हैं। घर-घर में गोबर के कंडो़ं-छाणों से ही
गृहणियाँ भोजन पकाती हैं। बड़ी रसोई दालबाटी भी कंडों
पर ही बनती है। कई जगह दाहक्रिया भी कंडों पर की जाती
है। घर-आँगन की लीपापोती भी गोबर-माटी से की जाती है।
दीवाली के महीने भर पहले से यह तैयारी प्रारंभ हो जाती
है। सुबह तीन चार बजे उठकर कई बार मैं भी अपनी माँ के
साथ छापरड़े से छाणे बीनने जाता। लाल पीली माटी लेने
खान पर जाते और उसके पिंडोरे बनाकर रख देते। वे दिन एक
अलग ही मस्ती के होते।
बरसात में जब घर टपकता, तो माँ बहुत परेशान होती।
थोड़ी-सी बरसात रूकने पर दीवाल के सहारे गोबर और उसकी
राख मिलाकर मोटी परत लगाते। इसे रागोबर लगाना कहते,
जिससे पानी टपकना बंद हो जाता। अपने गाँव कानोड़ में न
जाने कब से गाय के खूँटों को देख रहा हूँ, जो सड़क के
एक तरफ किनारे जमीन में गड़े हुए हैं। केवल उनका
मुख-भाग बाहर निकला हुआ है। गाँवों में गोबर गोबरी नाम
रख मैंने कइयों को बड़ा प्रसन्न होते देखा। गोबर गणेश
तो गाँवों में ही क्यों शहरों में भी मिल जायेंगे। अब
तो गोबर गैस भी निकल आई है। श्रीकृष्ण ने गोचर पर्वत
पर खूब गायें चराईं, बाँसुरी बजाई। वहाँ गायों का
वंशवर्धन हुआ, फलस्वरूप उसका नाम ही गोवर्धन पड़ गया।
वह पर्वत जहाँ गायों ने केलिक्रीड़ा की, कृषि के लिए
आवश्यक धनसंपदा दी, परिवारों को भरणपोषण दिया, ग्वालों
को सुखदा गृहस्थी दी, ऐसा गोवर्धन गायों के चरने और
गोबर से टीला बनते-बनते पहाड़ बन गया, अन्यथा प्रारंभ
में तो वहाँ मैदान ही था। दीवाली पर धनवानों के घरों
में धनदेवी लक्ष्मी की पूजा होती है, पर पूरे राष्ट्र
का धन तो सचमुच में गोबर ही है, जो सभी के लिए उपादेय
है। यह एक ऐसा धन है, जो खजाने का नहीं, बैंक का नहीं,
आभूषण किंवा जवाहरात का नहीं, पर समग्र जीवन-चक्र का,
आम जनता के भरण-पोषण से जुड़ी कृषि सभ्यता का है। यह
धन रोटी देता है, कपड़ा देता है और मकान देता है।
फूलों में सबसे बड़ा फूल कपास देता है, जिससे बने
कपड़े से दुनिया अपना तन ढकती है।
गोबर सबके लिए उपयोगी, अनिवार्य और अनुपम होने से
आजीविका का संबल और जीवन-पोषण का मुख्य स्रोत है। अत:
गोबर भारत राष्ट्र का उत्कृष्ट धन है। दीवाली के
त्यौहार पर गोबर के गोवर्धन घर-घर, गाँव-गाँव बनाये
जाते हैं। इस गोवर्धन को नये धान-मकई से सजाया जाता
है। हाथ-पाँवों में अनाज के दानों के आभूषण बनाए जाते
हैं। नई रुई और नये कपास का पहनावा दिया जाता है। गले
की हाँसली और कमर का कंदोरा बनाया जाता है। उनके
नाभिस्थल पर गन्ने का रोपण किया जाता है। यह प्रतीक है
जीवन-रस का, सरसता का, जो घर-घर, गाँव-गाँव संचरित
होता है। इस गोवर्धन को फिर गायों से चरवाया जाता है।
गोवर्धन के पास एक तलैया बनाई जाती है, जिसमें दही
बिलोया जाता है। इस गोवर्धन की पूजा में गीत गाये जाते
हैं। कुंकुम, चावल, मूँग, दीप, लच्छा, सुपारी एवं
पान-पैसे से सजी थाली से गोवर्धन की पूजा में गाया
जाता है
ऊँचो जो खेड़े काना कांगणी जो वाई कांगणी जो वाई
नींदणवाली ओ चंदरावतीजी खोदताँ जो नींदताँ काना दोई
जणा आया, दोई जणा आया एक तो गोरा ने दूजा साँवलाजी
गोरा तो कीजे काना बाईसा रा वीरा बाईसा रा वीरा साँवरा
तो कीजे बाईसा रा घर धणीजी गोरा ने सोवे काना कसूमल
पागाँ कसूमल पागाँ साँवरा ने सोवे डोरो रेशमी अर्थात
हे कन्हैया! ऊँचे खेत पर काँगणी बोई। चंदरावती ने उसे
नींदा खोदते-नींदते दोनों आये। उनमें से एक गोरा तथा
दूसरा साँवला था। गोरा बाईसा का भाई तथा साँवला उसका
पति था। गोरे को कसूमल पाग और साँवले को रेशमी डोरा
शोभित था।
इसी अवसर पर एक और गीत भी गाया जाता है- गोरी गाव रो
गोबर मंगाद्यो रामदुवारे गोरधन माँडस्याँ रोली तो भोली
फूल पतास्याँ गोरधन पूजण चालस्याँ सात सहेली रळ पूजा
करस्याँ हँस-हँस मंगल गावस्याँ अर्थात् गोरी गाय का
गोबर मंगा दो। रामद्वारे गोरधन माँडेंगी। रोली, फूल और
पतासियों से गोरधन पूजा को चलेंगी। सात सहेलियाँ मिल
पूजा सप्ताह भर यह गोवर्धन वहीं रहता है, फिर इसका
विसर्जन कर दिया जाता है। आदिवासी इस गोवर्धन-गोबर धन
में पैदा हुए कीड़ों से शकुन देखते हैं। गोबर धन ही
सचमुच में हमरा गोवर्धन बना हुआ है। गोबर कहाँ नहीं
है? यह धन गरीब-अमीर सब में बँटा हुआ है। इस राष्ट्रीय
धन का वरण करते हुए भी हमने इसके महत्त्व को अजाना
किया। आवश्यकता है, इस धन के पूरे उपयोग की, इसके
महत्त्व को प्रतिपादित करने की, इसकी ऊर्जा के
गुणात्मक महत्त्व की और इस क्षेत्र में अधुनातन प्रयोग
और अनुसंधान की। गोबर हमारी भौतिक आवश्यकता और ऊर्जा
का ही ताप नहीं, आध्यात्मिक और आत्मिक अलख का भी अक्षर
विन्यास है।
१ अक्तूबर २०१७ |