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रचना प्रसंग

 

आँगन आँगन बिखरे गीत
- रवीन्द्र उपाध्याय


पिछले पचास-पचपन बरसों में पता नहीं कौन रोग लगा कि हमारे गाँवों के आँगन, दुआर, खेत और खलिहानों में जो मौज-मस्ती, मिठास और रसमयता थी वह धीरे-धीरे ग़ायब हो गई। अब तो लोगों के बीच पहले वाली रागात्मक घनिष्ठता भी नहीं बची। टेलिविज़न, प्रधानी के चुनाव, विकास के पैसे की लूट तथा दारू की दूकानों ने गाँव की संस्कृति पर ऐसा पुरज़ोर हमला किया कि गाँव की आत्मा ही सूख गई. परंपरा से चले आ रहे गीत-संगीत के बोल भी विस्मृत हो गए तो फिर क्यों न मैं अपने बचपन में सुनी ठिठोली से भरी तुकबंदियों और स्वत:स्फूर्त परंतु हृदय को झंकृत कर देने वाली पदावलियों की याद दिलाऊँ?

आषाढ़ आ गया, पानी नहीं बरसा। लड़के-लडकियाँ गुहार लगाते हैं-
"काठ कठौती पीयर धोती मेघा भैया पानी दे!
अन मन देवता पन मन देवता
पनियाँ के परल अकाल होऽऽऽ मेघा सारे पानी दे!
मेघा सारे पानी दे!"

पहले तो मेघ को भैया कहा, कठौती में पीली धोती रंग कर उसकी अभ्यर्थना की, उसे अन्न देने वाला और पानी देने वाला देवता कहा, फिर एकाएक बोल पड़े-साले मेघ, अब तो पानी दे दे! पानी बरसते ही गाँव में हलचल मची। पेड़ पर झूला डालने के जुगाड़ शुरू। लड़कियाँ पुरानी कापी में से कजरी के बोल याद करने लगीं। एक-से-एक चुटीले बोल-
"फाटक खोलि द टीसन के बाबू हम बनारस जइबों ना!"
"दिल में खटक गई खटकिनियाँ काली जामुन वाली ना!"

लेकिन ७-८ बरस के लड़की लड़के तो चकई-चकवा खेलने में मस्त हैं, ज़मीन पर पैरों को पास-पास रखे, एक दूसरे के हाथों की उँगलियों में उँगलियाँ फँसाए और धड़ को पीछे करके गोल-गोल नाचना! वे गाते हैं-
"कोठा पर बदरिया चुनरिया झुरवावेले।
आन्हीं मानी आवेले चिरइया ढोल बजावेले!"

पता नहीं किसने ऐसी मनोज्ञ कल्पना की! बदली अपनी भीगी चुनरी को कोठे पर फैला कर सुखा रही है, इतने में आँधी आ गई, चिड़ियाँ ढोल बजाने लगीं! भरपूर पानी बरस गया! अब धान की रोपनी में पूरा गाँव लगा है, और स्त्रियाँ -घुटने के ठीक नीचे तक पानी में पाँव टिकाए धान रोप रही हैं। भला कौन सा काम है जिसे वे गीत गाए बिना पूरा कर लें! वे गाती हैं कि ऐ बालम! काले बादल घिर आए हैं। शिव जी के मन्दिर जाना है (सावन तो शिवजी का महीना ही है), वहाँ निचले तल्ले पर कजली हो रही है, इसलिए जल्दी खानाखा लो (अर्थात् छुट्टी दे दो)।
"जेवना जे ले रे बलमुआ उपराँ कारी बदरी!
उपराँ शिव जी के मन्दिरवा निचवाँ होले कजरी!"

धान की रोपाई पूरी हुई कि गाँव के हृष्ट-पुष्ट लड़कों ने बगिया में दो-दो अखाड़े खोद डाले। एक अखाड़ा बड़ों के लिए और दूसरा छोटे पहलवानों के लिए! अबकी बार नाग-पंचमी पर सारे गाँव को दिखा देना है कि है कि हमस लड़ने का बूता किसी में नहीं है-
"चौदह भँइस के चौदह चभक्का चौदह सेर घीउ खाँव रे!
कहाँ बाड़ें तोर बाघ मामा एक तक्कड़ लड़ जाँव रे!"

(मैंने चौदह भैंसों के थनों से दूध पिया है। मैं चौदह सेर घी खा जाता हूँ। अरे, तेरे वे मामा कहाँ गए जो बड़े बाघ बनते थे? बुला उनको, मुझसे एक टक्कर लड़ लें!) बरसात के एक गीत में माता कौशल्या की वेदना कैसे उकेरी गई है, देखिए-
"झिमिर झिमिर झिम मेहा बरसे पवन बहे चौआई ना
कवने बिरिछ तर भींजत होइहें राम लखन दुनू भाई ना!"

पिछले साल की बाढ़ ने धान की सारी फ़सल चौपट कर दी थी लेकिन बाढ़ के पानी के साथ जो मिट्टी बह कर आई, उससे सारी कसर निकल गई। न पूरी खाद देनी पड़ी, न बहुत देखभाल करनी पड़ी- धान के पौधे छातीभर ऊँचे, मोटी मोटी बालियों से लदे! बस अगहन तक भगवान् कुपित न हों-
"हरियर हरियर महादेव भरि भरि कोठी अन्न देव।
चारों कोने चारि मन! बीच में पचास मन!"

(यह किसी बड़े किसान की कल्पना नहीं है, छोटे किसान के लिए इतना बहुत है!)
बच्चे भी अपनी मस्ती में चूर हैं! छोटी लड़कियाँ गुड्डे-गुड़िया खेल रही हैं। कोई लड़की गुड्डे की ओर से बोल पड़ती है-
"ऐ दुलहिनियाँ गाजर खो! (खो=खा लो)
तोर भइया अइलें नइहर जो!" (ऐ दुल्हन, तुम्हारे भाई आए हैं। गाजर खा लो और जाओ अपने मायके।) फिर सारी लड़कियाँ खिलखिला कर हँस पड़ती हैं। लड़के इतने पाजी हैं कि बूढ़ों से जबतक गाली न सुन लें, उनको चैन ही नहीं पड़ता। पता नहीं किसने ये दो लाइनें रचीं, जिन्हें सुना-सुना कर बच्चों ने बूढ़ों को चिढ़ाना चालू कर दिया-
"ए बूढ़े बाबा भगहिया काहें छोट बा?
का करीं बच्चा? चुतरवे बड़ा मोट बा!"

(इन पंक्तियों में हास्य से कहीं अधिक ग़रीबी की करुणा छिपी है। काश! बूढ़े बाबा का नितंब कुछ दुबला होता तो उनका एकमात्र कच्छा उसे ढँक पाता!) गाँव के लड़कों से सभी आजिज़ रहते हैं। गाँव के सिवान पर डीह बाबा का स्थान है, इमली के विशाल पेड़ की ऊँची जगत बनी है, वहाँ मिट्टी के सजावटी हाथी के रूप में डीह बाबा हैं, एक हनुमान जी हैं, पत्थर के शिवजी हैं। लड़के जब नहीं तब कंकड़ चला देते हैं जिससे हाथी का एक पैर टूट जाता है! बच्चे शरारतन समवेत स्वर में गाते हैं और फिर हँस पड़ते हैं-
"काली माई करिया भवानी माई गोर!
डीह बाबा लंगड़ पुजारी बाबा चोर!"

बरसात बीतने वाली है, लेकिन ये निगोड़े बादल कब कैसा प्रपंच दिखाएँ? कुआर में भी बरसेंगे और क्या पता कार्तिक में भी बरसें! घर का हर कोना चू रहा है। जलौनी लकड़ियाँ गीली हो गईं, खाटों की पटियाँ ऐंठ गईं। चूल्हा फूँक-फूँक कर दुल्हन की आँखें लाल हो गईं, घर के कोने कोने में धुआँ भर गया! बच्चा धुएँ के मारे या बिला वजह फेंकर रहा है। उसे 'घुघुआ माना' खेला कर बझाया जा रहा है, मतलब चारपाई पर लेट कर अपने पैरों को मोड़ कर बच्चे को उसपर बैठा लेना और बच्चे के दोनों हाथ पकड़ कर उसे पैरों पर झुलाना- इसे कहते हैं घुघुआ माना! इसका अंत 'पुलुलुलु पुलुलुलु' से होता है जब खेलाने वाला अपने पैर को ऊँचा उठा लेता है-तब बच्चा हँस पड़ता है! लेकिन देखिए न, यहाँ भी धान उपजने की बात!
"घुघुआ माना, उपजे धाना।
एही धान के चिउरा कुटवलों
बाभन बीसुन नेवता पठवलों।
बभना के पुतवा देला असीस
जीयऽ बाबू लाख बरीस!
पुलुलुलु पुलुलुलु ...!"

यदि घुघुआ खेलाने की बात छोड़ दें तो इस को ऐसे भी कहा जाता है-
"अनर मनर पुआ पाकेला चिल्लर खोंइछा नाचेला।
चिलरा गइल खेत खरिहान ले आइल मनसिया धान।
एही धान के चिउरा कुटवलों बाभन बीसुन नेवता पठवलों।
बभना के पुतवा देला असीस जीयऽ बाबू लाख बरीस!"

(चिल्लर ख़ुशी से नाच रहा है क्योंकि पुआ पक रहा है! दौड़ा दौड़ा खलिहान गया, ढेर सारा धान उठा लाया। फिर हमने उसका चिवड़ा कुटवा कर ब्राह्मणों को न्योता दिया। ब्राह्मण के पुत्र ने आशीर्वाद दिया कि यह बच्चा लाख बरस जिये!)
बरसात बीती, कहाँ छिप गई? उसे बुढ़िया ने अपने गाल में चुरा लिया! बरखा कहीं दूर ग़ायब हो गई।बच्चे कहते हैं-
"एक पइसा के लाई बुढ़िया गाल में चोराई
बरखा ओनियें बिलाई बरखा ओनियें बिलाई।"

यह लो, आ गया अगहन का महीना। पूरे साल का सर्वाधिक आल्हादकारी, मंगलमय और संगीतमय महीना। भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा था- "मासानां मार्गशीर्षोंऽहम्" अर्थात् मैं महीनों में अगहन हूँ। पूरे छह माह की मेहनत का फल देने वाला। घर-आँगन को धान की भीनी सुगंध से भर देने वाला अगहन! सबसे श्रेष्ठ और स्वादिष्ट अन्न है चावल! चाहे भात बनाइए, खीर पकाइए, चिवड़ा कुटवाइए, चाहे फरुही (भूजा) भुजवा लीजिए। सुनिए किसी टोले से आवाज़ आ रही है-
"झनझन झनझन झाँझा बोले खनखन खनखन चूड़ी।
ठनठन ठनठन रुपया बोले खाँवें कचौड़ी पूड़ी!"

(क्या व्यंजना है, ग़रीबों की दुनिया में रुपयों की ठनठन का संगीत!)
अगहन से शादी-ब्याह शुरू। पउनी-पँवरिया और नाच दिखा कर पैसा माँगने वाले बंजारों की टोली भी निकल पड़ी है। किसी के घर मांगलिक अवसर पर धोबी-धोबिन का नाच चल रहा है। मैंने अपने गाँव में धोबी का नाच
नहीं देखा, परन्तु मेरी दादी जी ने मुझे धोबी नाच की दो लाइनें सुनाईं थीं जिनका मतलब था कि "ऐ भाई जी, खूब ऊँचा कोठा बनवाना, निचले तल्ले पर दरवाज़ा रखना। कोठे के ऊपर हंसों और पक्षियों का बसेरा रहेगा और नीचे रनिवास!"
"उँचे उँचे कोठवा उठइह ए भाई जी नीचे नीचे रखिह दुआरि ए रमऊँ।
उपरा बसेरा करें हंस परेउआ निचवाँ रहेली रनिवास
ए भाई जी, निचवाँ रहेली रनिवास!"

लेकिन इससे बहुत अच्छे धोबी-गीत डा० विद्या विन्दु सिंह की पुस्तक 'अवधी लोकगीत विरासत' में हैं जिन्हें बिना उद्धृत किए मुझसे नहीं रहा जाता! पहला गीत धोबियों के कष्टमय जीवन के बारे में है। पूरे संसार में जितना दु:ख है, उसका आधा वह अकेला झेलता है और आधा दु:ख संसार के हिस्से पड़ता है-
"दुखवा के मोटरी उठाइ परमेसरी लै चलु धोबिया दुआर!
आधा दुखवा उहै मटियावै अधवा में सब संसार!"

(हे परमेश्वरी देवी, दु:ख की पूरी गठरी, गंदे कपड़ों की गठरी के समान, आपने धोबी के दुआर पर रख दी है। इसमें आधा तो वही धोता अर्थात् झेलता है और आधा बाक़ी संसार में बँट जाता है।)
दूसरा गीत तो बहुत प्रसिद्ध है-
"मोटी मोटी लिटिया लगइहे रे धोबिनियाँ
बिहने चलेके बाटे घाट!
तीनि चीजु जिनि भुलिहे धोबिनियाँ
टिकिया तमाखू अउरी आगि!" (ऐ धोबिन, मोटी मोटी रोटियाँ सेंक लो, कल धोबी घाट चलना है। तीन चीज़ें ले चलना न भूलना- तमाखू, टिकिया और आग!) पुराने समय में दियासलाई भी दुर्लभ थी। अग़ल बग़ल के घरों से आग माँग कर चूल्हा जलाना आम बात थी।

कभी-कभी १८५७ के रणबाँकुरे ठा० कुँवर सिंह की गाथा सुनाने वालों की टोली पहुँच जाती थी, ढोलक, झाँझ और मजीरा लेकर-
"बक्सर से जो चले कुँवर सिंह पटना जा के टीके।
पटना के मजिस्टर बोले करो कुँवर को ठीके।
एतना बात जब सुने कुँवरसिंह दइ बंगला फुँकवाई।
गली गली मजिस्टर रोवे लाट गया घबराई। हो गुरु बक्सर से!"

साँझ को दिया जलाने के समय सबसे पहले तुलसी के चौरे पर दिया रखने का विधान है। पहले स्त्रियाँ सँझवाती का गीत गाती थीं, अब तो किसी के घर यह गीत नहीं सुनाई देता-
"मइया चलऽ बारऽ दियना हमारे अँगना!
मइया तुलसी के बिरवा हमारे अँगना! मइया..!
मोरे पिया परदेसे हमरे संग कोऊ ना! मइया..!"

दीपावली बीती, भैया दूज बीता और गाँव की स्त्रियाँ छठ पूजन की तैयारी में जुट गईं। छठ के पुराने गीत बहुत प्रसिद्ध हैं- "केरवा जे फरेला घउद से ओपर सुग्गा मेंडराय!
   सुग्गवा के मरलीं धनुष से सुग्गा गिरे मुरूझाय।"
"साँझि भइल छठी रहबू तूँ कहँवा!
अगर चन्नन के दिया बाटे जहँवा!"

यह संतोष का विषय है कि छठ के अधिकांश गीत स्त्रियों को कण्ठस्थ हैं और चाहे मुम्बई हो या पटना, गीत वे ही हैं, उनकी धुन भी एक ही है!
जाड़े का मौसम ग़रीबों के लिए बहुत कष्टदायक होता है-
"रामजी रामजी घाम करऽ
सुगवा सलाम करे
तोहरी बलकवा के जड़वत बाऽ
पुअरा फुँकि फुँकि तापत बाऽ!" (हे राम जी, जल्दी धूप कीजिए, यह सुग्गा आपकी प्रार्थना करता है। आपके बालक को जाड़ा लग रहा है, वह पुआल फूँक-फूँक कर ताप रहा है!)

लेकिन जाड़े में ठिठुरे बैठे रहने से कैसे काम चलेगा। गेहूँ के खेत में घासें उग आई हैं। औरतें खुरपी से सोहनी कर रही हैं। बिना गीत गाए वे कोई काम करती हैं भला?
"ऊड़त देखीले प्रेम चिरइया बइठेली निबिया की डाढ़ि रे।
आवत देखीले दुई रे बेटउवा, एक साँवर एक गोर रे।
गोरकू त हउवें मोरी माई जी के जनमल, सँवरो ननद जी के भाय रे!" (मैंने प्रेम के शगुन वाली चिड़िया को उड़ते और नीम की डाल पर बैठते देखा। इसके बाद मैंने दो नवयुवकों को आते देखा। अरे, गोरे वाले तो मेरी माता की कोख से पैदा हुए मेरे भाई हैं और साँवले वाले तो मेरी ननद
के भाई अर्थात् मेरे पति हैं।)

मेरा बचपन सरयू माता के तीर पर बसे बरहज कस्बे में बीता। दस वर्ष फ़ैज़ाबाद जिले में तैनात रहने के कारण भी सरयू के निकट रहा, इसलिए मेरे मन में सरयू माता के प्रति गंगा जी और यमुना जी से ज्यादा लगाव
है। बरहज में सरयू के तीर पर बड़े सुन्दर घाट बने हैं, एक बड़ा घाट तो हाल ही में बना है। वहाँ कार्तिक पूर्णिमा और माघ अमावस्या पर बड़े मेले लगते हैं जिनमें सभी श्रद्धालु सरयू स्नान अवश्य करते हैं। इन मेलों में झुंड बना कर नहाने जाने वाली स्त्रियों का यह गीत मैं बचपन से सुनता आया हूँ-
"बिमल जल सरजू में
करुँ असनान हो बिमल जल सरजू में।
राम कहेंलें हम सरजू नहाइबि सीता कहेली हम चलब जरूर
बिमल जल सरजू में!"

अब फागुन का मादक महीना आ गया। कहीं चौताल की टोली है, ढोलक पर ताल देकर 'चहका' यानी प्रसन्नता का गीत चल रहा है-
"जियरा घबराय जियरा घबराय
पिरतम की आई न पाती, जियरा घबराय।
ए हो, कहँवा बोले पपीहरा कहँवा बोले मोर।
कहँवा बोले कोइलिया कहँवा पिया मोर। पिरतम...
ए हो, नदिया किनारे बोले पपिहराबनवा बोले मोर।
अमवाँ की डाली बोले कोइलियासेजिया बोले पिया मोर। पिरतम...

होली के परंपरागत गीत अभी गाँव वालों की ज़बान पर हैं, इसलिए उनका उल्लेख करना आवश्यक नहीं है। हाँ, चैत में कटिया का यह गीत कहीं विस्मृत न हो जाय-
"आम गदराए घनश्याम नहिं आए
पिया कौने देसवाँ!
बिलमाए भरमाए
पिया कौने देसवाँ!"

कटिया के ही एक दृश्य में एक स्त्री अपने बच्चे को खेत के किनारे सुला देती है और धूप से बचाने के लिए उसे दउरी से ढक देती है। उसे सियार थोड़े ही ले जाएगा? वह तो उसका चाचा है!
"घाम रे घमउरी, तोर बाप बीने दउरी।
दउरिया में बच्चा, सियार तोर चच्चा!"

इस तरह के फुटकर कहकहे, गीत और छंद जो आँगन से खेत- खलिहान तक सुनाई देते थ, वे इक्का दुक्का किसी को याद हों तो हों, लेकिन नौजवान पीढ़ी को इन सबसे कोई मतलब नहीं। जो गीत बचे हैं, वे बचे हैं पुरानी पीढ़ी की कुछ स्त्रियों के कारण। 

 

१ नवंबर २०१७

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