समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है यू.एस.ए. से
सुदर्शन प्रियदर्शिनी-की-कहानी-
विघटन
उस
की ख़ामोशी आँखों से उतर कर ओठों पर सहम गई थी, भिंचे ओठों में
कसमसा कर बैठी थी, वह जिधर अपना चेहरा घुमाती ख़ामोशी भी उस के
साथ लिपटी-लिपटी घिसट जाती थी पर अंदर कुछ फड़फड़ा कर उड़ने को
आतुर था। इस समय जानबूझ कर किसी ने उस के पंखों को हाथ में
मरोड़ कर रखा था। पर तुम्हें कुछ तो अंदाज रहा होगा - अंदर से
फड़फड़ा कर कूद गये थे मेरे शब्द। था... लेकिन इतना तो बिलकुल
नहीं। खिड़की के बाहर बर्फ का साम्राज्य फैला हुआ था दूर तक।
यहाँ तक कि जो सड़क कल तक एक दरीच की तरह नजर आती थी वह भी कहीं
इस सफेद चादर के नीचे दफन हो गई थी। ऐसे में किसी कार का आना -
जाना भी नहीं था जो इस बर्फीली ख़ामोशी में अपनी मोहर लगा सकती
और इस चुप्पी को तोड़ सकती। इतनी भी क्या बेरुखी अपने प्रति कि
सामने आती बाढ़ की उछाल न दिखाई दे, मैं अपने आप में फुसफुसाया।
जानती हो यह कितना गलत हुआ है। इस पर भी वह चुप थी। इस समय
शायद हम दोनों के बीच कुछ फड़फड़ा रहा था, बाहर आने को आतुर...
पर उस की ख़ामोशी उसको ढँके हुए थी। उस की उदासी मुझे भी छूने
लगी थी।...आगे-
*
सुशील यादव का व्यंग्य
मंगल ग्रह पर पानी
*
सतीश जायसवाल का यात्रा संस्मरण
अभी जो है जीवन है
*
राजेन्द्र वर्मा से रचना प्रसंग
गजल का
शिल्प
*
पुनर्पाठ में अतुल अरोरा के संस्मरण
''बड़ी
सड़क की तेज गली में'' का ग्यारहवाँ भाग |